यह बिहार के पिछले 30 सालों की दास्तान है। क्या कुछ घटा इन तीस सालों में, कौन समस्याओँ से रू-ब-रू हुआ, कौन समस्याओं की जड़ में था? बिहार ने क्या खोया क्या पाया ? इन्हीं तमाम बिंदुओं की पड़ताल है – वरिष्ठ पत्रकार अनुरंजन झा की किताब – ‘गाँधी मैदान‘. (https://www.amazon.in//dp/9387464962)
यह किताब आपको सोचने पर विवश करती है कि कैसे देश के पहले राष्ट्रपति देशरत्न डॉ. राजेंद्र प्रसाद के गांव जीरादेई से कैसे देश के सबसे खतरनाक गुंडों में से एक शहाबुद्दीन विधायक और सांसद बन गया। गांधी के चंपारण में कैसे गैंगवार ने जगह ले ली। वाल्मीकि के जंगल को कैसे डकैतों ने मिनी चंबल बना दिया। वीर कुँअर सिंह का आरा कैसे ब्रह्मेश्वर मुखिया का आरा हो गया। दुनिया भर में जिस छठ पर्व की धूम मचा दी, उस पर्व के लिए गांवों में अब घाट क्यों बंट गए?
अनुरंजन झा कहते हैं “अपनी पहली किताब “रामलीला मैदान – A Series of False Gods” में हमने कोशिश की थी कि अन्ना आंदोलन के वक्त भ्रष्ट व्यवस्था से जनता रू-ब-रू हो। यह मेरी दूसरी किताब है और इस किताब में हम दिल्ली के रामलीला मैदान से निकलकर पटना के गांधी मैदान के जरिए बिहार का दर्द समझने की कोशिश कर रहे हैं।
वह कहते हैं “हमने अपनी पहली किताब के वक्त भी कहा था कि हम कोई कहानी नहीं बल्कि हकीकत बयान कर रहे हैं और एक बार फिर हम कह रहे हैं कि गांधी मैदान के जरिए बिहार के पिछले 30 साल को जीने और समझने की कोशिश कर रहे हैं। साथ ही पूरी शिद्दत से कह रहे हैं कि हम कहानी नहीं कहते हैं सच बयान करने की कोशिश करते हैं। दरअसल हम ऐसा महसूस करते हैं कि सच से बड़ी और दिलचस्प कहानी कुछ हो ही नहीं सकती है।”
अनुरंजन झा के अनुसार यह किताब उन सभी प्रश्नो का उत्तर देती है जिनके उत्तर ३० सालों से जनमानस ढूंढता आ रहा है। सामाजिक न्याय के नाम पर पिछले तीस सालों से लड़ी जा रही लड़ाई में समाज किस करवट बैठा? जिनके लिए सामाजिक लड़ाई लड़ी गई वो आज समाज में कहां है और जिन्होंने उनके लिए लड़ाई लड़ने और सबकुछ न्यौछावर करने का वादा किया वो आज कहां है?
किताब का एक अंश
“नब्बे के दशक के शुरुआत में बिहार एक नया बिहार देख रहा था, एक नया बिहार महसूस कर रहा था, सालों से चली आ रही सत्ता चलाने की शैली में आमूल चूल बदलाव आ गया था। बिहार को पहला ऐसा मुख्यमंत्री मिला था जो किसी बंगले-कोठी में रहने की बजाय वेट्रनेरी कॉलेज के चपरासी वाले क्वार्टर से अपना शासन चला रहा था। जिस इलाके का वो प्रतिनिधित्व करता था उस इलाके से बाहर उसे कोई नहीं जानता था लेकिन जैसे ही मुख्यमंत्री की कुर्सी की रेस में वो आया अनायास बिहार का चेहरा बन गया। देखते ही देखते दिग्गजों को धूल चटाते हुए बिहार की सत्ता की बागडोर अब उसके हाथ में थी और वो सालों से चली आ रही सभी राजनैतिक प्रथाओं को तोड़ देना चाहता था। उसे ऐसे नेस्तानाबूद करना चाहता था जैसे वो समाज पर बंदिशें हों । पलक झपकते वो अकलियतों की आवाज बन चुका था। गरीबों का मसीहा बनने की राह पर चल चुका था। ऐसा लग रहा था मानों वो बिहार की तकदीर बदल देगा । अफसरशाही को चाबुक से सरेआम हांकने की उस शख्स की शैली ने जल्दी ही लोगों के दिल में एक उम्मीद जगा दी थी। लेकिन यह उम्मीद ज्यादा दिनों तक कायम न रह सकी।“
“…18 अप्रैल 1974 को जिस गांधी मैदान से जेपी ने आंदोलन की नींव रखी, जिस सामाजिक सद्भाव के सहारे सत्ता की चूलें हिला दीं उसी आंदोलन से निकले उनके दो दो सिपाहियों ने आने वाले दिनों में बिहार को सामाजिक न्याय के नाम पर सिर्फ धोखा दिया। अभी तक का लेखा जोखा करें तो उसमें दोनों ने बराबर की हिस्सेदारी निभाई। एक ने अपने कार्यकाल में अपहरण, फिरौती, रंगदारी और सुपारी किलिंग की इंडस्ट्री जमा दी, प्रतिभा का पलायन करवा दिया तो दूसरी ओर दूसरे शख्स ने अपने पहले कार्यकाल में पूरे राज्य में शराब के ठेके खुलवाकर और वोट की खातिर अनपढ़ों को शिक्षक बना कर नई पीढ़ी की बुनियाद ही खराब कर दी। एक बार वोट पाया शराब के ठेकों के जरिए तो दूसरी बार वोट पाया उन ठेकों को बंद करवाकर । पिछले तीस साल में बिहार के इन दो कर्णधारों ने बराबरी की हिस्सेदारी निभाई – अब तक 15-15 साल बांट बिहार का बंटाधार कर दिया। चलिए मान लेते हैं पहले 15 साल में जो गड़बड़ियां हुई थीं उसे ठीक करने के लिए 5 साल नाकाफी होता है लेकिन उसे दुरुस्त करने के लिए 15 साल तो कम नहीं ही होते हैं। और जब इन 15 सालों में हालात और बिगड़ जाएं तो क्या कहा जाए? पिछले तीस सालों में एक तरफ बिहार से प्रतिभा का पलायन होता रहा तो दूसरी तरफ लाख प्रयासों के बावजूद एक भी कॉरपोरेट को इंडस्ट्री लगाने के लिए रिझा नहीं पाए। जयप्रकाश नारायण के दोनों चेले लालू प्रसाद यादव और नीतीश कुमार बारी बारी से बिहार की सत्ता पर काबिज तो हुए लेकिन सामाजिक न्याय के नाम पर पिछले तीस सालों में बिहार की जनता के साथ धोखा ही किया।“