चिकन-बिरयानी की सुगंध-दुर्गंध की बातें छोडि़ए, ‘मीडिया मंडी’ के बंद कमरों से अंदर से शोर पैदा करने वाले खर्राटों की आवाजें बाहर आ रही हैं। अब आप पूछेंगे कि छोटे परदे पर चौबीस घंटे चीखने-चिल्लाने वाले खर्राटे कैसे मार रहे हैं? दोस्तों, यही तो विडंबना है। वे सो रहे हैं अपनी पत्रकारीय दायित्व को बला-ए-ताक रख, चीख-चिल्ला रहे हैं अपने कुकर्मों, अपने निकम्मेपन, अपनी अयोग्यता पर परदा डालने के लिए। चीखने-चिल्लाने के पहले और बाद में जो समय इन्हें मिलता है, उसका ‘सदुपयोग’ ये खबरची वैसे तलवों की तलाश करने में बीताते हैं, जो ‘जैम’, ‘जेली’, ‘बटर’ से लिपे-पोते होते हैं। उन तलवों को चाट-चाट मुसटंड्डे हुये ये खरबची छोटे परदों पर चीख-चीख कर ‘तलवों’ की शक्ति प्रदर्शित करते हैं। चूंकि, इन्हें शर्म तो आती नहीं, मीडिया मंडी उन्हें चाबुक मार नींद से जगाने को विवश है।
ऐसा पहले कभी नहीं हुआ था। सुविधानुसार या फिर यूं कहें कि निज स्वार्थ की पूर्ति के लिए कभी-कभी खबरों को गिराने या उठाने का गोरखधंधा तो चलता था, किंतु अब उन पर बुलडोजर चलाया जाने लगा है। अंधे, बहरे, गूंगे बने खबरची बिलकुल कठपुतली बन मंच पर थिरकने लगे हैं। क्या खबर और खबरचियों की यही नियति बन कर रह जाएगी? नहीं! अल्पसंख्या में ही सही, ‘मीडिया मंडी’ में कुछ ऐसे खिलाड़ी अभी भी मौजूद हैं जो इनसे मुकाबला करते हुए ईमानदार पत्रकारिता के झंडाबरदार बनने को ताल ठोंक रहे हैं।
पिछले दिनों केंद्र सरकार ने फतवा जारी किया कि सरकार की नीतियों का विरोध करते हुए बोलने वालों या लिखने वालों के खिलाफ कड़ी कार्रवाई की जाएगी। यह एक ऐसा फरमान था जिसका संज्ञान लेते हुए खबरिया चैनलों को लोकतंत्र के बुनियादी सिद्धांत और मौलिक अधिकार को चिन्हित करना चाहिए था। लेकिन, उन्होंने सरकारी कर्मचारियों के लिए जारी फरमान को अपने लिए जारी फरमान लिया और साष्टांग की मुद्रा में आ गए। धिक्कार!
बात यहीं खत्म नही होती। ये महारथी तो इतने विनम्र हो गये कि उन्होंने अपनी स्मरण शक्ति को भी कैदखाने में डाल दिया। पिछले दिनों जेएनयू में प्रधानमंत्री के पुतले के दहन को लेकर खबरिया चैनलों के बीच इस बात की होड़ लग गई कि कौन इस कृत्य को भयंकर अपराध बताने में आगे निकलता है। इन चैनलों ने न केवल जेएनयू के इस कांड पर हैरानी जलाई, विलाप किया, बल्कि कार्रवाई की भी मांग करते रहे। उनमें ऐसा हाहाकार मचा दिखा, मानो देश के लोकतांत्रिक इतिहास में किसी प्रधानमंत्री का पुतला फूंकने की पहली घटना हुई हो। वे भूल गये कि इसके पहले प्रधानमंत्री डा मनमोहन सिंह का पुतला वर्तमान सत्तारूढ़ भाजपा फूंक चुकी है। सिर्फ पुतला ही नहीं फूंका था, बल्कि तब के प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह को चोर तक निरुपित किया गया था। राजदल अगर ऐसा करते हैं, तब इस आधार पर कि लोकतंत्र में विरोध जताने का हक सभी को प्राप्त है, उन्हें क्षमा किया जा सकता है। किंतु, खबरिया चैनल जब ऐसी घटनाओं का संज्ञान ले चिल्लपों मचाते हैं, तब उनका दायित्व हो जाता है कि ऐसी घटनाओं के इतिहास को भी खंगाल लें। उनका दायित्व है कि वे दर्शकों को ताजा घटना की जानकारी के साथ-साथ संदर्भवश ऐसी अन्य घटनाओं की जानकारियां भी दें। जेएनयू की ताजा घटना पर चिल्ला-चिल्लाकर दोषियों के लिए दंड की गुहार मचाने वाले खबरिया चैनलों को यह भी बताना चाहिए कि आजाद भारत में प्रधानमंत्री, मुख्यमंत्री के पुतलों को फूंकने की गलत परंपरा पहले से जारी है। लेकिन, चैनलों ने ऐसा नहीं किया। प्रधानमंत्री के रूप में डा. मनमोहन के पुतले को फूंकने की घटना पर परदा डाल दिया गया। वे यह भी भूल गये कि भूतकाल में डॉ. मनमोहन सिंह ही नहीं, महात्मा गांधी को भी रावण निरुपित कर उनका वध करने वाले कार्टून छापे गये। इस महान कृत्य को अंजाम देने वाले स्वयं आज की सत्तारूढ़ भाजपा और उनके सहयोगी थे। यही नहीं, पिछले दिनों ऐसे कार्टून भी प्रकाशित किए गए जिसमें 10 सिर वाले महात्मा गांधी का वध करने को तैयार सावरकर और श्यामा प्रसाद मुखर्जी को दिखाया गया। शर्म ये कि दस सिरों में न केवल गांधी बल्कि पटेल, नेहरु और मौलाना आजाद के सिर भी शामिल थे। यही नहीं, कुछ चैनलों ने तो बिलकुल बेशर्म की भांति घटना की निंदा करते हुए जेएनयू के चरित्र को भी आड़े हाथों ले लिया। एक चैनल लगातार ‘जेएनयू नहीं सुधरेगाÓ जैसी सुर्खियां दिखा रहा था। एक अन्य चैनल जेएनयू को कुछ इस रूप में पेश कर रहा था मानो जेएनयू देश की एकमात्र बिगड़ी हुई जगह है। चैनल की विद्वान संपादक मंडली भूल गई कि जेएनयू देश के शीर्ष विश्वविद्यालयों मे से एक है, जहां से ऐसी-ऐसी प्रतिभाएं बाहर निकली हैं, जो आज देश के विभिन्न क्षेत्रों में शीर्ष पर विराजमान हैं। खबरिया चैनलों के विद्वान संपादक-पत्रकार कृपया कुंठा का त्याग कर प्रतिभा का वरण करें। ये न भूलें कि देश की जनता जब करवट लेती है, तो उसमें तिकड़मबाज, चाटुकार, दलाल आदि कुचल जाते हैं।