अभी पिछले दिनों दिल्ली और उसके आस-पास के इलाकों में प्रदूषण की मार ने पूरे देश का ध्यान अपनी ओर खींचा। तरह तरह की घोषणाएं हुईं लेकिन नतीजा वही निकला ढाक के तीन पात। इस दौरान शोर करने वालों में किसी ने यह आवाज नहीं उठाई कि शहरों पर से बोझ कम करके गांव का रुख किया जाए। हम तो पिछले कई सालों से इस कोशिश में लगे हैं गांव का रुख किया जाए। अगर अगली पीढ़ी को कुछ भी विरासत में देकर जाने की इच्छा है तो हमें गांव के बारे में सोचना चाहिए, गांव का रुख करना चाहिए। अपने अपने स्तर पर कोशिश करनी चाहिए। मैं यह बात एक बार फिर इसलिए दोहरा रहा हूं क्योंकि पंचलैट ने गांव की यादें एक बार फिर ताजा कर दी हैं।
फिल्मकार प्रेम प्रकाश मोदी ने कुछ ऐसी ही कोशिश की है। कुछ नए और कुछ मंजे हुए कलाकारों के साथ एक फिल्म आई है “पंचलैट”। यह फिल्म मशहूर साहित्यकार फणीश्वरनाथ रेणु की कहानी पंचलैट पर आधारित है। सबसे पहले तो इस फिल्म के निर्माताओँ को तहेदिल से साधुवाद जिन लोगों ने आज के दौर में ऐसी हिम्मत दिखाई जहां पद्मावती फिल्म को हिट कराने के लिए पद्मावती के किरदार से छेड़छाड़ या फिर ऐसी खबर फैलाकर उसका लाभ लेने वालों का बड़ा बाजार है। जहां बिना कहानी की फिल्में हिट कराने के लिए नई नई कहानियां बनाई जाती हैँ या फिर पचासों करोड़ की भव्यता के साथ दर्शकों को सिनेमाघरों में खींच लाने के लिए सारे हथकंडे अपनाए जाते हैं और उनकी जेब से सैकड़ों करोड़ निकलवाए जाते हैं वैसे दौर में फणीश्वरनाथ रेणु की कहानी को बुनना वाकई जिगरे का काम है। क्योंकि यह जोखिम बड़ा है।
प्रेम मोदी ने बड़ी ही खूबसूरती से पचास-साठ के दशक के गांव को बड़े पर्दे पर उतारा है। वो गांव जो हममें है लेकिन कहीं पीछे छूट गया है। ऐसा नहीं है कि गोधन का गांव अब फारबिसगंज जाने से मिल जाएगा। आज के दौर में गांव जाकर भी वो गांव नहीं मिलता। गांव जाकर भी वो मासूमियत नहीं मिलती, छोटे-छोटे मासूम ख्यालों को अपनी नाक का सवाल मानने वाला और फिर महज एक पंचलैट के लिए सबकुछ भुलादेने वाला गांव अब नहीं रहा। इसलिए यह फिल्म एक बार जरुर देखनी चाहिए। छोटे-बड़े शहरों, मोटर-गाड़ियों के शोर, बस-ट्रेन की चिल्लमपों के बीच पनपे प्यार की कहानी तो हमने आपने काफी देखी है। लेकिन गोबर-कीचड़ के बीच पनपे प्यार को समझने के लिए यह फिल्म देखनी चाहिए। गांव की जिंदगी, गांव की खुशी, गांव के लोग और गांव का दर्द समझने के लिए यह फिल्म जरुर देखनी चाहिए। अलबत्ता रेणु ने पचास-साठ के दशक के गांव की कहानी लिखी है और फिल्मकार ने उसे ही दिखाने का भरपूर प्रयास किया है लेकिन दो दिन पहले आई एक रिपोर्ट कहती है कि यूपी-बिहार-झारखंड के आधे गांव आज भी बिना बिजली के हैं इसलिए जाहिर तौर पर १९५४ का पंचलैट आज भी मौजूं है, हां यह बात दीगर है कि महानगरों की भागमभाग में किसी को सुध लेने की फुसरत कहां।
थिएटर के मंझे हुए कलाकारों से सजी इस फिल्म की कहानी बड़े ही सहज तरीके से बढ़ती है। फिल्म एक बार जो आपको गांव में ले जाती है तो बस फिर सिनेमाघर से बाहर निकलकर ही शहर का अहसास होता है। यह निर्देशक की जीत है। कई सालों से छोटे छोटे किरदार निभा रहे अमितोष नागपाल के लिए यह बड़ा मौका था और उन्होंने न्याय किया है। नायिका अनुराधा मुखर्जी की यह दूसरी फिल्म है और इस लिहाज से उनका अभिनय भी ठीक है। यशपाल शर्मा की पत्नी का किरदार निभा रही कल्पना झा ने अपनी छाप छोड़ी है। मामी और भाभी के उम्र के बीच मन में चल रहा अंतर्द्वंद अपने एक्सप्रेशन से दिखा पाना आसान काम नहीं है। राजेश शर्मा के हिस्से ज्यादा काम नहीं है लेकिन जो मिला अच्छा किया है। मालिनी सेनगुप्ता, बृजेंद्र काला, रवि झंकल, ललित परीमू, प्रणय नारायण और पुनीत तिवारी ने भी अच्छा काम किया है। दरअसल कहानी और सिनेमेटोग्राफी के साथ कलाकारों का अभिनय ही ऐसा है जो फिल्म को बांधे रखता है।
फिल्म का सबसे कमजोर पक्ष है संगीत, संगीत ने ही रेणु की एक रचना मारे गए गुलफाम को अमर कर दिया। फिल्मकार को यह तो याद रहा कि रेणु ने गोधन से गवाया – हम तुमसे मोहब्बत करके सनम हंसते भी रहे रोते भी रहे लेकिन उनको यह भी याद करना चाहिए था रेणु को पर्दे पर जीवंत करने वाले शैलेंद्र ने लिखा था – हर दिल जो प्यार करेगा वो गाना गाएगा। अगर संगीत में भी उसी माधुर्य की चाशनी होती जो उस दौर के फिल्मों में था तो निश्चित तौर पर पचास साल बाद गांव की पृष्ठभूमि पर संजोने वाली फिल्म हो जाती। और इसी वजह से एक शानदार और बहुत अच्छी फिल्म बनते बनते यह एक अच्छी फिल्म बनकर रह गई। जाहिर है कि आज के दौर में शैलेंद्र सरीखा निर्माता तलाश करना नामुमकिन है क्योंकि गुलजार ने एक बार कहा था कि शैलेंद्र बस जन्म ले लेते हैं, शैलेंद्र वो नहीं कि उनके जैसा जन्म लेता रहे। आज से पचास-पचपन साल पहले साधारण शब्दों से अनमोल और असाधारण गीत लिखने वाले शैलेंद्र ने पांच साल की मेहनत के बाद फणीश्वरनाथ रेणु की कहानी मारे गए गुलफाम पर तीसरी कसम नाम की फिल्म बनाई थी। जरुरत से ज्यादा बजट हो जाने की वजह से शैलेंद्र काफी कर्ज में डूब गए । तीसरी कसम के गीत अपना डंका बजा रहे थे लेकिन फिल्म बॉक्स ऑफिस पर औॆंधे मुंह गिर गई थी। फिल्म के नुकसान ने समय से पहले हमारे बीच से शैलेंद्र को छीन लिया था। और शायद यही वजह रही होगी कि उसके बाद तमाम दिग्गज फिल्मकारों ने बड़ी ही खूबसूरत और सुंदर फिल्में बनाई लेकिन किसी ने ठेठ गांव की कहानी छूने की हिम्मत नहीं जुटाई। हालांकि शैलेंद्र के जाने के बाद तीसरी कसम अपने दौर की बेहतर फिल्म साबित हुई और आज भी कल्ट फिल्म मानी जाती है। इस बेहतरीन फिल्म की कई वजह में एक खास वजह है रेणु की कहानी। जो आंचलिकता रेणु के गांव में नजर आती है कि वो कहीं और नहीं दिखती इसीलिए तमाम बार पर्दे पर गांव उतारे जाने के बावजूद हीरामन और गोधन का गांव हमें नहीं मिलता । इसीलिए मेरी गुजारिश है कि यह फिल्म शहरों के साथ गांव के युवाओँ को भी देखनी चाहिए ताकि उनको एहसास हो कि विकास की अंधी दौड़ में हम क्या कुछ खोते जा रहे हैं।
प्रेम प्रकाश मोदी का आज के दौर में सितारा फिल्म बनाने वालों को शैलेंद्र के ही शब्दों में जवाब है कि – छोटी सी ये दुनिया.. पहचाने रास्ते हैं… तुुम कहीं तो मिलोगे, कभी तो मिलोगे.. तो पूछेंगे हाल ।