हिंदी के मूर्धन्य साहित्यकार कुंवर नारायण जी के निधन से मेरी तरह उन लाखों लोगों को तकलीफ पहुंची होगी, जिनके लिये वे अद्भुत प्रतिभा के अनमोल कवि थे. तीसरे सप्तक और नई कविता के पायेदार कवि कुंवर जी की रचनाओं से गुजरते समय दो तरह के बोध स्वाभाविक हैं. पहला- बड़े प्रश्नों पर असाधारण तरीके से साधारण भाषा औऱ शिल्प का प्रयोग. दूसरा – चकित करनेवाली दृष्टि और साहित्य चेतना. उनकी एक कविता “दीवारें” हैं जिसमें वे कहते हैं – “अब मैं छोटे-से घऱ और बहुत बड़ी दुनिया में रहता हूं. कभी मैं एक बहुत बड़े घर और छोटी-सी दुनिया में रहता था. कम दीवारों से बड़ा फर्क पड़ता है. दीवारे ना हों तो दुनिया से भी बड़ा हो जाता है घर”.
उनको आप जितना पढेंगे जीवन का विस्तार उतना दिखता है, समय का संक्रमण और समस्याएं भी. लेकिन बड़ा से बड़ा प्रश्न जितनी आसानी से कुंवर नारायण की कलम के नीचे दिखता है- वही उनके कद का एहसास कराता है. मौजूदा समय में इंसान के काहिलपन और उसकी चुप्पी को कुंवर नारायण जिसतरीके से पकड़ते हैं उसे देखिए जरा- “हम सब सीधी ट्रेन पकड़ कर अपने घर पहुंचना चाहते हैं. हम सब ट्रेन बदलने की झंझटों से बचना चाहते हैं. हम सब चाहते हैं एक चरण यात्रा और परम धाम. हम सोच लेते हैं कि यात्राएं दुखद हैं और घर उनसे मुक्ति”.
जिस दौर में शमशेर जैसा दुधर्ष कवि रहा हो, केदारनाथ सिंह जैसे बारीक बुनावट वाले कवि हों उस दौर में कुंवर नारायण एक ऐसा आसमान रचते हैं जिसमें जीवन के सारे रंग, संघर्ष और समय का हर पहर अपनी मौलिकता के साथ मिलता है. कुंवर जी का हिंदी साहित्य हमेशा कर्जदार रहेगा. विनम्र श्रददांजलि .