कुछ लोग इस बात से दुखी हैं कि प्रियंका गांधी को बनारस से चुनाव क्यों नहीं लड़ाया गया। इनमें ज्यादातर पत्रकार हैं जो कांग्रेस के इस फैसले को गलत रणनीति मान रहे हैं। कुछ तो इसे ‘चुनाव लड़ने से पहले हार मान लेना’ बता रहे हैं तो कुछ पत्रकार कांग्रेस रणनीतिकारों के खिलाफ सोशल मीडिया पर गुस्सा उतार रहे हैं। “अगर लड़ना ही नहीं था तो सस्पेंस बनाकर क्यों रखा।“ गुस्सा करने वालों में ज्यादातर मोदी विरोधी हैं जो मानते हैं कि प्रियंका मोदी को हरा सकतीं हैं या कड़ी टक्कर दे सकती हैं।
मेरी राय थोड़ी अलग है। मुझे लगता है कि प्रियंका को मोदी के खिलाफ उम्मीदवार न बनाकर कांग्रेस ने सही फैसला किया है। मेरा ऐसा मानने के पीछे कई वजह हैं। पहला, प्रियंका गांधी के बनारस से हारने की सम्भावना ज्यादा थी, यही मान कर कांग्रेस ने कोई रिस्क नहीं लिया क्योंकि एक तरह से प्रियंका का सक्रिय राजनीति में ये पहला मैच है। और पहले मैच में ही शुन्य पर आउट होने से उसकी भावी राजनीति प्रभावित होती। कांग्रेस के पास राहुल के बाद वही नेता ‘मटीरियल’ है। फिलहाल पार्टी उसे किंगमेकर की भूमिका में ही रखना चाहती है। अगर इस चुनाव में पार्टी ने अच्छा किया तो क्रेडिट राहुल के साथ साथ प्रियंका को भी मिलेगा। और अगर नतीजे अच्छे नहीं रहे तो पार्टी परम्परा के अनुसार दोष विपक्षी बिखराव और परिस्थितियों पर मढ़ा जाएगा। दोनो ही सूरत में केवल प्रियंका पर उंगली नहीं उठाई जा सकती।
दूसरा, प्रियंका को पूर्वी उत्तर प्रदेश में 42 लोकसभा सीटों की जिम्मेवारी दी गई है। इसके अलावा वह दूसरे राज्यों में भी प्रचार कर रहीं हैं। उत्तर प्रदेश मे अब तक किए रोड शो में प्रियंका ने काफी समर्थन बटोरे हैं। उनकी रैलियों और रोड शो में भीड़ को देखने के बाद भी उसे बनारस में उलझा कर रखना गलत रणनीति होती। अगर प्रियंका मोदी के खिलाफ बनारस से उम्मीदवार होतीं तो उन्हें बनारस में ज्यादा से ज्यादा समय देना पड़ता क्योंकि प्रधान मंत्री की उम्मीदवारी को कोई पार्टी हल्के में नहीं ले सकती। फिर पूर्वी उत्तर प्रदेश के बाकी क्षेत्रों का क्या होता जहां प्रियंका की मौजूदगी से कांग्रेस की उम्मीदें बढ़ी हैं। एक सीट (बनारस) पर हार के लिए कांग्रेस कई सीटों की सम्भावित जीत को दांव पर नहीं लगा सकती थी।
प्रियंका को बनारस से लड़ाने का समर्थन करने वालों को ये भी समझना होगा कि अगर प्रियंका उम्मीदवार होतीं तो उन्हें वहां मोदी के अलावा गठबंधन की उम्मीदवार का मुकाबला भी करना पड़ता। गठबंधन की उम्मीदवार शालिनी यादव स्थानीय होने के साथ बनारस की पूर्व मेयर हैं, उन्हें भी काफी वोट मिलने की सम्भावना है। और वे वोट प्रियंका के कोटे का ही होता। मायावती और अखिलेश भी प्रियंका को हराने के लिए पूरा जोर लगा देते वरना वे प्रियंका की उम्मीदवारी पर समर्थन की घोषणा पहले ही कर चुके होते, जैसा उन्होंने अमेठी और रायबरेली में किया। वैसे भी, मायावती और अखिलेश उत्तर प्रदेश में एक मजबूत गैर भाजपा नेता का उदय क्यों चाहेंगे। अगर प्रियंका गांधी उत्तर प्रदेश में बड़ी नेता के रुप में उभर गईं तो इसका सियासी नुकसान माया-अखिलेश को ज्यादा है। कुछ उत्साही कांग्रेसी प्रियंका को अभी से भावी मुख्यमंत्री के रुप में देखने लगे हैं।
अब सवाल ये भी उठता है कि अगर प्रियंका को बनारस से लड़ना ही नहीं था तो हवा क्यों बनाई गई, सस्पेंस क्यों रखा गया ? ये कांग्रेस की रणनीति हो सकती है कि प्रियंका की चर्चा के बाद मोदी बनारस के अलावा किसी और सीट से भी नामांकन कर दें। अगर ऐसा होता तो दो सीटों पर चुनाव लड़ने की वजह से राहुल गांधी पर भगौड़ा का जो आरोप भाजपा ने लगाया, कांग्रेस को उसका जवाब देने का मौका मिल जाता।
कांग्रेस की ये रणनीति भी हो सकती है कि अगर राहुल गांधी अमेठी और वायनड दोनो सीटों पर चुनाव जीत गए तो अमेठी से इस्तीफा देकर वहां से प्रियंका को लड़ा दे क्योंकि गांधी परिवार के लिए ये सबसे सुरक्षित सीट है और यहां से प्रियंका उत्तर प्रदेश की अगली सियासी यात्रा (विधानसभा चुनाव) प्रभावी ढंग से आगे बढ़ा सकती हैं।