कवि, कथाकार और उपन्यासकार यानी हर विधा में समान रूप से सक्षम हिंदी के एक सुपर स्टार (सही अर्थों में) लेखक ने मुझे कुछ साल पहले आपबीती सुनाई थी। रॉयल्टी हड़पे जाने को लेकर वयोवृद्ध साहित्यकार विनोद कुमार शुक्ल की पीड़ा जब सामने आई तो मुझे उस लेखक की कहानी याद आ गई। आप भी सुनिये..
” मैं लिखता गया, प्रकाशक छापता गया। अनुबंध वगैरह का कोई चक्कर उन दिनों होता नहीं था। मेरी किताबें खूब बिकती थीं। मुझे साहित्य अकादमी का पुरस्कार भी मिल गया। ना मैंने कभी रॉयल्टी के बारे में पूछा और ना प्रकाशक ने बताया।”
” संयोग से मुझे दिल्ली में टू बीएचके का एक सेमी फर्निश फ्लैट अलॉट हुआ। जिसके बाथरूम और किचेन में दरवाज़े तक नहीं थे। मुझे रॉयल्टी का ख्याल आया और मैंने प्रकाशक को फोन मिलाया। प्रकाशक ने विनम्रता से कहा कि तत्काल चेक भिजवाता हूँ।”
” जल्द ही प्रकाशक ने चेक भिजवा दिया, जिसे देखकर मैं सन्न रह गया। हर लाइब्रेरी, साहित्य बेचने वाले हर स्टॉल पर नज़र आने वाली मेरी तमाम किताबों की कुल जमा रॉयल्टी सिर्फ ग्यारह हज़ार रुपये! वह मेरे जीवन भर के फुल टाइम राइटिंग की कमाई थी।”
“मैंने गुस्से में प्रकाशक को फोन किया और कहा कि रॉयल्टी के पैसे से मैं शौचालय का दरवाज़ा लगवाउंगा और उसपर आपके प्रकाशन संस्थान का नाम लिखवाउंगा।”
” दो दिन बाद प्रकाशक मेरे पास आया और कहने लगा कि भाई साहब आप तो बहुत ज्यादा नाराज़ हो गये। इसके बाद उसने पचास हज़ार रूपये का एक और चेक दिया। इसके कुछ समय बाद प्रकाशक का भाई मेरे पास आया जो खुद भी एक पब्लिशिंग हाउस चलाता है। उसने कहा कि आपके साथ बहुत गलत हुआ, आप अपनी तमाम किताबों के राइट मुझे दे दीजिये।”
” मैंने प्रकाशन के अधिकार बड़े भाई से लेकर छोटे भाई को दिये गये। बड़े भाई ने कहा कि आप पछताएंगे। उसकी बात ठीक निकली। छोटा भाई ने किताबों की रॉयल्टी के रूप में थोड़े-बहुत पैसे नियमित रूप से देने तो लगा लेकिन ऐसा लगा जैसे वो मुझे बंदर बनाना चाहता है। वह किसी भी चिरकुटपने वाले पीआर प्रोग्राम में मुझे साधिकार बुला लेता था, जहां मंच पर तीन ऐसे लोग बैठे होते थे, जिनका साहित्य से कुछ लेना-देना नहीं होता था।”
” अगर विदेशी भाषाओं में मेरी रचनाओं का अनुवाद नहीं हुआ होता और मैं अंग्रेजी में ना लिख रहा होता तो `हिंदी के सबसे बड़े प्रकाशक’ गले में झोला टांगकर भिक्षाटन को मेरी नियति बना देते।”
(निजी बातचीत को नाम के साथ सार्वजनिक करना उचित नहीं है, इसलिए लेखक का नाम नहीं लिख रहा हूँ। लेकिन मुझे यकीन है कि अगर ये कहानी मुझे सुनाई गई है तो हिंदी के समाज में उठने-बैठने वाले बहुत से और लोगों को भी पता होगी। वैसे भी बात महत्वपूर्ण है, व्यक्ति नहीं।)
नोट : यह आलेख लेखक राकेश कायस्थ के फेसबुक वॉल से लिया गया है।