हमारे परिवार की एक पीढ़ी आज पूरी तरह समाप्त हो गई। 85 साल की उम्र में छोटका बाबा महेश चंद्र झा आज इहलोक से परलोक को प्रस्थान कर गए। आज सुबह सुबह जब यहां इंग्लैंड में हमें खबर मिली तो मन व्यथित हो गया। खबर के साथ ही न जाने क्या क्या आँखों के सामने तैरने लगा। तेज तर्रार फौजी का आत्मबल, दुखों के पहाड़ से लड़ने की प्रबल इच्छा और विनोदपूर्ण स्वभाव इन सबका मिश्रण था बाबा के चरित्र मेँ।
छोटका बाबा 8 भाई-बहनों में सबसे छोटे थे जाहिर है अपने पिताजी के लाडले, पिताजी ही नहीं अपने दो भाईयों शिक्षाविद् बाबा दिनेश चंद्र झा और प्रख्यात लेखक कवि रमेश चंद्र झा के भी बहुत प्रिय थे। हमें याद है जब हम बड़े हो रहे थे तो बाबा अक्सर अपने शिक्षक मित्रों को कहते कि बड़े भाई ने आजादी की लड़ाई लड़ी तो छोटे भाई ने भारत चीन की लड़ाई में मुख्य भूमिका निभाई। उस उम्र में हमें पता नहीं था कि “वीर चक्र” क्या होता है और उसकी क्या अहमियत होती है। जब बड़े हुए तो गर्व से सीना चौड़ा होता कि हमारे परिवार में देश पर मर मिटने वालों की गिनती नहीं की जा सकती, छोटका बाबा अपने वीर चक्र पर बात करना पसंद नहीं करते। क्यूंकि जितनी खुशी उनको वीर चक्र से मिली होगी उससे ज्यादा दुख बाद के जीवन में उनके हिस्से आ चुका था । पहले 1983 में 18 साल के बेटे को अंतिम विदाई देनी पड़ी। बाद में बाबा के दूसरे बेटे केशव चाचा जो हमसे उम्र में 13 दिन बड़े और हमारे सबसे अच्छे मित्र थे उनको भी असमय काल ने आज से 18 साल पहले हमसे छीन लिया। हम केशव चाचा लगभग एक साथ ही गांव से दिल्ली निकले थे। उनकी कहानी फिर कभी।
सिकंदराबाद, अंबाला और दिल्ली की उनकी पोस्टिंग हमें याद है। बड़े बेटे पप्पू चाचा के असमायिक निधन के बाद छोटका बाबा आर्मी की नौकरी से समयपूर्व रिटारयमेंट लेकर गांव आ गए। जब वो कार्यरत थे और छुट्टियों में आते तो हमसे गांव की खबरें सुनते थे और कहते कि इसको गांव-जवार की हलचल पता रहती है। उस वक्त न उन्हें पता था और न हमें कि आगे चलकर यही हलचल मालूम करने की फितरत हमें इस पेशे में ले आएगी।
इधर मैं जब भी गांव जाता तो निश्चित थोडा समय निकाल कर बाबा से मिलता। अगर कभी एक-दो दिन के लिए गया और मुलाकात नहीं कर पाया तो अगली बार उनकी शिकायत रहती और उनका दुख भी झलकता। इधर कुछ सालों से ठीक से बोल नहीं पाते थे लेकिन जब भी मैं जाता तो बाबा जरूर इशारों से पूछते कि नया क्या लिख रहे हो। पहले मेरे हर लेख पर उनकी नजर रहती बाद में मेरी हर किताब उनके रैक पर होती। किताबों की कुछ प्रतियां रिश्तेदारों को देने के लिए हमसे मंगाते। जब 2016 में कवि जी बाबा की किताब “स्वाधीनता समर में सुगौली” का पुनर्पकाशन किया और उसकी प्रति उनको देने गया तो बाबा बहुत रोए थे और अपने दोनों भाईयों को याद कर कुछ किस्से बताने लगे और हमें कहा कि उनकी कुछ और किताबों को दोबारा प्रकाशित करवाना। साथ ही ये भी बताया कि जब उनका उपनयन संस्कार होने वाला था तो कवि जी बाबा 1942 के आंदोलन में जेल में थे और वहीं से उनके लिए गीत लिखे। ये गीत मेरी दादीमां भी अक्सर हमें सुनाती थी। ये सब बातें अब किस्से-कहानियों का हिस्सा रह जाएँगी। लेकिन इन कहानियों में इतना गर्व और स्वाभिमान भरा है कि आने वाली पीढ़ियां उन्हें याद करेंगी और बार बार दोहराएँगी। हम अपने अगली पीढ़ियों से गुजारिश करेंगे कि उस गर्व की अनुभूति करें और ख्याल रखें कि जो स्वाभिमान हमारे पूर्वजों ने हमें विरासत में सौंपा है उसे बरकरार रखेँ। न उनकी यादें धुमिल होने पाए और न उनकी छवि। मैं चाहकर भी आपके अंतिम दर्शन नहीं कर सका इसके लिए बाबा आप हमें क्षमा करेंगे, आप हमेशा हमारी यादों में रहेंगे। नमन।