हम बहुत बुरे दौर से गुजर रहे हैं, इंसान को जिन जिन चीजों पर गुमान था वो सब एक एक कर धराशायी हो रहा है, चाहे वो विवेक हो, पैसा हो, सत्ता का नशा हो या फिर अपनों का साथ। कब कौन किस से बिछड़ जाए इसका कोई ठिकाना नहीं। फिर भी इंसानों की आँखें खुल नहीं रहीं जो ज्यादा भयावह और डरावना है। पूरे वातावरण में एक अजीब सी बेचैनी और अवसाद घर कर गया है, उपर से जब सरकार के नुमाइँदों को हाथ खड़े करते हुए देखते हैं तो निराशा और बढ़ने लगती है, धीरे धीरे ये निराशा क्षोभ और बेबसी में तब्दील होने लगती है। लेकिन हम इन सबसे उबरना चाहते हैं। इस अवसाद के माहौल में स्वयं को और दूसरों को भी थोड़ी हिम्मत देना चाहते हैं मन से निकलता है –
मेरे जीवन के साथ बड़ी मजबूरी है
मैं वीरानों में गीत सुमन के लिखता हूं ।
लेकिन फिर किसी सुबह अचानक खुद अवसाद में चला जाता हूं जब भरोसा नहीं करने वाली खबर को सच मानना पड़ता है। वैसा ही एक सच है प्रभात का चला जाना। प्रभात – बिल्कुल अपने नाम की तरह, हमेशा हरेक की जिंदगी में सुबह की रौशनी फैलाने वाला। हमेशा हंसने वाला, जिस एक दिन उसे वीडियो कॉल पर हमने रोते देखा उसी दिन मेरे सब्र का बांध टूटा और लगा कि मनुष्य निश्चित ही कभी न कभी हारने लगता है। प्रभात को आप में से कई लोग जानते होंगे अलग अलग कारणों से लेकिन एक कारण जो सबके लिए कॉमन होगा वो है हर किसी के काम आना और हमेशा हंसते रहना। प्रभात रिश्ते में हमारा भाई लेकिन उसकी पहचान अपनी थी, अपने कॉलेज के दिनों से ही उसमें कुछ अलग करने की चाह थी। बाजारवाद के इस दौर में जहां हर युवा पैसों के पीछे भागता है वो पानी और पर्यावरण के पीछे भाग रहा था, गांधी के पीछे भाग रहा था। अपनी काबलियत से वो एक बहुत अच्छा पत्रकार बन सकता था, एक दशक पहले हमने उसे अपनी ओर खींचने का प्रयास भी किया लेकिन ज्यादा पैसों की नौकरी छोड़ उसने न्यूजरूम से दूर गांधी शांति प्रतिष्ठान में कम पैसों की नौकरी करना बेहतर माना। कभी भी उसकी शिकायत उसे नहीं रहती, उसकी शिकायत इस बात से रहती कि सरकार ने एक साल में 5 लाख कुएं खुदवाना तय किया तो पांच सौ भी क्यूं नहीं खुद रहे। पर्यावरण के बड़े धरोहर अनुपम मिश्र जी की छत्रछाया में वो पानी और पर्यावरण के लिए दिन रात अथक काम करता रहा। महज 7-8 सालों में उसने अपने काम से अपनी मेहनत और अपनी इच्छाशक्ति से एक नई इबारत लिख दी।
तीन साल पहले प्रभात की जिद पर उसके साथ हम झांसी के इलाके में गए, कुछ ऑर्गेनिक फार्मिंग में संभावनाएं तलाशने, वहां जब कई गांवों के लोगों को मालूम हुआ कि प्रभात आया है तो वो कई कई किलोमीटर दूर से अपना काम छोड़ प्रभात से मिलने आए थे। प्रभात ने महज 2 सालों में उस बंजर इलाके में इतने प्राकृतिक तालाब का निर्माण करवाया कि उन इलाकों में सिंचाई के लिए किसी सरकारी तंत्र पर निर्भर रहने की जरूरत नहीं थी, और ये तालाब भी स्थानीय लोगों की मदद से ही बना उसमें सरकारों का योगदान शून्य था। प्रभात पर घंटों बोल सकता हूं, पोथी लिख सकता हूं।
इसी बीच एक असाध्य रोग ने प्रभात को अपनी गिरफ्त में ले लिया। भगवान की भी लीला अपरंपार है। जो दिन रात नशा करता है, तमाम बुराईयों के साथ धरती पर बोझ है वो टिका हुआ है, समाज के नाक में दम किए हुआ है लेकिन ईश्वर अपने पास उसे ही बुलाता है जिसकी जरूरत समाज को सबसे ज्यादा होती है। प्रभु का ये खेल समझ नहीं आता। चार साल पहले प्रभात के पिताजी की कैंसर के सफल ऑपरेशन के बाद मृत्यु हो गई। प्रभात अपना दुख प्रकट नहीं कर पाया और डॉक्टरों ने जब बताया कि नहीं रोने की वजह से मिले सदमे से उसके दिमाग की एक ऐसी नस दब गई है जिसका इलाज शायद संभव नहीं, धीरे धीरे वो शरीर के बाकी अँगों पर असर करेगा औऱ वो काम करना बंद कर देंगे। AIIMS के बहुत बड़े चिकित्सक ने प्रभात को स्वयं बताई। प्रभात ने हिम्मत नहीं हारी, लड़ता रहा देश के अलग अलग हिस्सों में इलाज कराता रहा और अपना काम करता रहा लेकिन दो साल पहले से उसकी तबीयत ज्यादा खराब रहने लगी। इन दो सालों में प्रभात के इलाज में उसके बड़े भाई पंकज ने भी कोई कोर कसर नहीं छोड़ी लेकिन इन दो सालों में प्रभात ने अपने माफिक तमाम झंझावातों से जूझने की शक्ति अपनी पत्नी संध्या को दे दी। संध्या जिस तरीके से बच्चों को पालते हुए प्रभात की सेवा कर रही थी और दुनिया के सामने चेहरे पर शिकन नहीं लाती उसे देख पौराणिक कथाएं याद आती हैं। लेकिन ईश्वर ने इस सावित्री से उसका सत्यवान छीन लिया। प्रभात ने शनिवार की देर रात आखिरी सांस ली। उसकी इच्छा थी कि उसका अंतिम संस्कार उसकी कर्मभूमि दिल्ली में ही की जाए। उसकी ये इच्छा पूरी की जा रही है लेकिन इस कोरोना काल में उसे उचित अँतिम विदाई नहीं मिल रही है, लेकिन कोई बात नहीं.. … उसी के शब्दों में Show Must Go on !