असंतोष इंसानी प्रकृति का एक सामान्य स्वरुप है। असंतोष हर किसी में, किसी भी वस्तु, कार्य, प्रणाली, विचार या संगठन के प्रति होना स्वाभाविक
है। असंतोष जो कि व्यक्ति विशेष या समूह में व्याप्त है, उसे संतोषप्रद तरीके से सँभालने की कला ही कूटनीति कहलाती है। सरकार के प्रति उसके नीतियों का आकलन हरेक समुदाय या समूह अपने विचारों के हिसाब से करता है, परंतु सरकार के नुमाइंदों को इन नीतियों का विश्लेषण जरूर करना चाहिए।हमारा पर्याय यहाँ किसानों के बीच फैली उस असंतुष्टि से है जो सिमटकर सिर्फ एक ही मुद्दे पर टिक गयी है कि न्यूनतम मूल्य निर्धारण की पद्धति में कुछ सुधार की जानी चाहिए।अब, कुल मिलाकर स्थिति यह बन गयी है कि सरकार इसे विपक्ष नियोजित बता रही है और रजाई से बाहर निकलकर देश के अन्नदाताओं को समझा नहीं रही है।
भुगत कौन रहा है? दिल्ली की जनता, जो महामारी के इस काल में ट्रैफिकमारी की शिकार हो गयी है, किसान जो मन से या बेमन से बुआई छोड़कर लालकिला और क़ुतुब मीनार देखने को बाध्य हैं या फिर घर चलाने वाला एक साधारण इंसान जो इस डर में है कि सब्ज़ियों, फलों के दाम और बढ़ेंगे तो खाना क्या बनेगा? मेरे हिसाब से तो यह उदाहरण है मानसिक गरीबी का – सरकारी नुमाइंदे हों या फिर किसानों के हितकारी नेता, इन सब का। जब तक सरकार इस तरह के कानूनों को हिंदी में सरल, सहज भाषा और कम बिंदु में नहीं बनाएगा, तब तक कोई भी, किसी भी विषय को अगवा कर लेगा क्योंकि ज्यादातर किसान अनपढ़ या अंग्रेजी को कम जानने वाले है।उपाय तो बहुत हो सकते हैं लेकिन मंशा साफ़ होनी चाहिए। नीतियाँ अच्छी हों या कम अच्छी, अमूमन बुरी नहीं हो सकती अगर वह संसद के दोनों सदनों से पास होकर कानून बन जाती है तो।
अभी तक के आंकड़ों के अनुसार बड़े तौर पर अगर देखा जाये तो 22 फसलों में से 2 ही फसलों पर लगे MSP का फायदा किसान उठा पाते हैं और वो भी पैदावार के हिसाब से जहाँ धान या गेहूँ की फसल होती है, उन राज्यों के किसान ही इससे प्रभावित होते हैं। अब दलाल भी तो उन्ही किसानों को लूटते हैं, इसलिए अगर सरकार यह कानून लाकर किसानों को दलालों से मुक्ति दिलवाना चाहती है तो इस उद्देश्य के बोध को किसानों तक तो पहुंचाए, सिर्फ पेंशन लेने के हकदार हुए सदन में बैठे नेताओं तक ही क्यों? फिर तो जो जैसा समझेगा, उसी को परोसेगा और फायदा मिलता दिखा तो फायदा उठाएगा। यही हो रहा है आज।कहीं पढ़ा था- एक पार्टी के किसान बुराड़ी के मैदान में, दूसरी पार्टी के किसान दिल्ली बॉर्डर पर और भारत का किसान खेतों में…कहीं ऐसा सही तो नहीं, और अगर है तो हे प्रधानसेवक के कर्मठ योद्धाओं! कंबल रजाई से बाहर निकलो और सही तरीके से अपने मंतव्य को रखो, समझाओ और हम दिल्लीवासियों को सिर्फ कोरोना के डर में ही जी लेने दो, इसमें जीना हमने सीख लिया है अब और किसी दूसरे भय के अन्धकार में हमें मत ठेलो!
पंकज तेतरवे जी के फेसबुक वॉल से साभार