भारत समेत पूरी दुनिया कोरोना की मार से त्राहिमाम कर रही है। जिस रफ्तार से ये अब हमारे देश में फैल रहा है उसने हम सबको अनजाने भविष्य की चिंता में डाल दिया है। अब हम सबसे ज्यादा प्रभावित देशों में चीन को पीछे छोड़ चुके हैं। चीन ने अपने देश में कोरना की रफ्तार थाम ली है। हमारे यहां जितनी ज्यादा जांच हो रही है इस बीमारी का उतनी ही पता चल रहा है। ऐसे में अब केंद्र सरकार ने GDP के दस फीसदी के बराबर मतलब 20 लाख करोड़ के पैकेज का ऐलान कर दिया है। और किस मद में कितना पैसा और कैसे दिया जाएगा उसकी घोषणा भी हो चुकी लेकिन इस बीच जिन घटनाओँ ने देश को सबसे ज्यादा झकझोरा है वो है हजारों किलोमीटर लंबी सड़क को पैदल नाप रहे मजदूर और गरीब हिंदुस्तानियों की दुर्दशा। महानगरों में रोजी रोटी की तलाश में गए ये मजदूर अपने बच्चों, अपने परिवार को लेकर पैदल ही चिलचिलाती धूप में अपने गांवों को निकल पड़े। सैकड़ों लोगों के लिए ये दूरियां काल बन गईं और उनका सफर अधूरा रह गया।
रोज कमाने-खाने वालों के लिए ये कोरोना मुसीबत के पहड़ की तरह टूटा, फैक्ट्रियां बंद, दुकानें बंद, सारे कामकाज बंद नतीजा पैसा बंद। और उन लोगों को चाहिए हर रोज पैसा अपनी जिंदगी जीने के लिए। सरकार ने शुरुआत में जो घोषणाएं की अव्वल तो वो अधूरी थी और दूसरी सही वक्त पर, सही व्यक्ति के पास नहीं पुहंच पाई। लेकिन क्या इसमें सारी गलतियां सरकार की ही थी ।
इस पूरे मामले को हम दो हिस्सों में बांटते हैं। पहली बात कि आखिर आजादी के इन 73 सालों में हमने किस किस्म के हिंदुस्तान का निर्माण किया है जहां अमीरों और गरीबों की खाई लगातार बढ़ती गई है। दशकों से सारी योजनाएं इस देश में गरीबों के लिए बनाई गईँ लेकिन उनकी हालत वैसी की वैसी रह गई। बल्कि अगर ये कहें कि और बुरे हालात हुए तो अतिशयोक्ति नहीं होगी। दरअसल इसकी बुनियाद में है हमारी सोच। हमने देश में स्मार्ट सिटी बनाने की बजाय सुंदर गांव बनाने पर जोर दिया होता देश के ये हालात नहीं होते। हमने सारी फैक्ट्रियों, उद्योगों को शहरों तक सीमित नहीं करके उनका विस्तार छोटे कस्बों की तरफ किया होता तो देश के ये हालात नहीं होते। हमने पूरे देश में एक समान शिक्षा व्यवस्था लागू कर समाज को साक्षर बनाने की बजाय शिक्षित करने के प्रयत्न किए होते तो शायद देश के ये हालात नहीं होते। तो इन घटनाओँ पर गौर करते हुए आज से तकरीबन चालीस साल पहले की युवा तुर्क पूर्व प्रधानमंत्री चंद्रशेखर की एक तस्वीर हमारे जेहन में उभरती है। आप ये तस्वीर देख पा रहे होंगे । इस तस्वीर में चंद्रशेखर अपनी भारत यात्रा के दौरान एक स्कूल में हैं और उस स्कूल के बोर्ड पर लिख रहे हैं “मजदूर ही कल के भारत का निर्माण करेंगे।“ तो क्या अब वो वक्त आ गया है।
अब दूसरा हिस्से में ये समझिए कि ये लाखों मजदूर जो सालों से महानगरों और शहरों की चकाचौंध में अपने लिए दो वक्त की मुसलसल रोटी का इंतजाम नहीं कर पाए वो मजूदर इस त्रासदी की अवस्था में हाल फिलहाल में अपने गांव, अपनी जमीन से शहरों का रुख करेंगे। सवाल ये भी उठता है कि अगर ये इन महानगरों में रहकर अपने लिए इतना भी इंतजाम नहीं कर पाए कि बुरे दौर में महीने-दो महीने गुजर बसर कर सकें तो आखिर ये इन शहरों में क्या करने आए। औऱ इन शहरों से इनको क्या मिला। वही कीड़े-मकौड़े वाली जिंदगी जिससे बेहतर तो अपने गांव में हो सकते थे। तो आखिर इन 73 सालों में सरकारों ने क्या किया कि हमारे देश का एक बड़ा तबका बुरे दिनों में दो महीने अपने घर में बैठकर अपनी जिंदगी नहीं गुजार सकता। इन सब बातों पर गौर करने के बाद एक बार फिर चंद्रशेखर की उस तस्वीर को देखने का मन करता है कि क्या ये मजदूर जो अपनी जान की परवाह किए बिना हजारों किलोमीटर अपने गांव लौट गए हैं क्या वो निश्चित तौर पर थोड़े भी हालात बदलने पर गांव से शहरों का रुख नहीं करेंगे। तो यकीन मानिए चिंता बढ़ जाती है। हमारे लोगों की याद्दाश्त कमजोर होती है। इनमें से ज्यादातर, हमारी मानिए तो करीब अस्सी फीसदी लोग इन दिनों की परेशानियों को भूल कर फिर रोजी-रोटी की तलाश में शहरों की ओर दौड़ेंगे। शायद हमारे-आपके बीच के कुछ लोग इससे इत्तेफाक नहीं रखें लेकिन यही सत्य है।
दरअसल ये वक्त या यूं कहिए कि सौ दो सौ साल का सबसे बुरा वक्त हमें और मजबूत कर सकता है, हमें और दृढ़ निश्चयी बना सकता है अगर हम शहरों की चकाचौंध की ओर न भागे, मजबूरी में ही सही लेकिन अब अगर प्रकृति से प्रेम कर बैठे तो यकीन मानिए हमारे गांवों की सूरत कुछ अलग होगी। जब हमारे गांवों की सूरत बदलेगी तभी देश की सूरत बदलेगी। हम इन विकास के दावेदारों को अपने गांव -अपने कस्बों तक लौटने के लिए विवश कर पाएँगे। सही मायने में मेक इन इंडिया का डंका बजा पाएँगे। और यही मजदूर नए भारत का निर्माण कर पाएँगे। तो बस आज से ही अपनी जिंदगी में थोड़े थोड़े बदलाव कीजिए, क्यूंकि हमने पहले भी कहा है और फिर कह रहा हूं कि 2020 के पहले की दुनिया और 2020 के बाद की दुनिया दो दुनिया होगी। तो इस नई दुनिया में हमें अपनी आदतों में बदलाव तो करना ही है साथ ही अगर अपने निश्चय में कुछ बदलाव कर दिया तो इन मजदूरों के सहारे हम नए भारत का निर्माण कर सकेंगे। इन मजूदरों तक जहां भी हमारी आवाज पहुंच रही है वो अब गांठ बांधे कि इन महानगरों की चकाचौंध में नहीं उलझकर अपनी जमीन पर नए भारत का निर्माण करेंगे। जो मजूदर अपने खून पसीने से सींचकर महानगर बसा सकता है, वो गांव को सुंदर बना सकता है। गावं को विकासशील बना सकता है और यही होगा सही मायनों में आत्मनिर्भर भारत। नया भारत।