वैसे तो सबको पता है कि भाषा को मान्यता देने का काम केन्द्र के गृह मंत्रालय का होता है, राज्य सरकार का उसमें कोई हस्तक्षेप नही है, वह भी दिल्ली जैसा राज्य ! खैर यह बाद की बात है, अभी बात करते है आम आदमी पार्टी के ताजा घोषणा पत्र की जिसमें उन्होनें यह कहा कि हम केन्द्र सरकार पर दबाब डालेंगे कि भोजपुरी आठवीं अनुसूची में शामिल हो।
सरकार को इसके लिए बधाई दी जा सकती है कि सामने पूर्वांचली ताकत को देखते, समझते हुए उन्होंने कम से कम इस विषय को शामिल किया, परन्तु एक बात खटक रही है कि जो सरकार अपने पाँच साल के कार्यकाल में एक पत्र तक भोजपुरी के समर्थन में नही लिख पाई अगर वह कहती है कि केन्द्र सरकार पर हम दबाब डालेंगें, इस पर कैसे कोई यकीन कर सकता है ?
केजरीवाल सरकार ने रेवड़ी की तरह हर छोटी मोटी भाषाओं के लिए अकादमियों का गठन किया और उसमें अपने आदमी भरे, लेकिन वह भोजपुरी को भूल गयी और भोजपुरी के लिए अलग अकादमी नहीं बना सकी आखिर क्यों ?
केजरीवाल सरकार चाहती तो अपने विश्वस्तरीय सरकारी माॅडल स्कूल, जिसमें उनके किसी भी मंत्री का लड़का/लड़की नहीं पढ़ता/पढ़ती, उसके प्रारंभिक कक्षाओं में भोजपुरी की पढ़ाई शुरू करवा सकती थी, उसके लिए भोजपुरी शिक्षकों को बहाल कर सकती थी लेकिन उसने ऐसा भी नही किया। प्रो नक्सल स्वभाव कि वजह से सरकार का शुरु से ही अकादमियों और संवैधानिक संस्थानों में यकीन नहीं था। भोजपुरी तो छोड़िए जनाब सरकार ने अपने हथकंडे के डंडे से हिन्दी अकादमी को भी कहीं का नहीं छोड़ा। खैर अकादमियों के शीर्ष पर बैठ भ्रष्टाचार करने की जो परम्परा वामपंथियों ने इस देश मे शुरु की वह आज भी जारी है! कैसे किसी अकादमी का मामूली सा क्लर्क दिल्ली में करोड़ों का सम्पत्ति अर्जित कर लेता है, यह सब सोचिएगा तो आपके सर में दर्द होने लगेगा।
हां तो मै बात कर रहा हूँ भोजपुरी की, तो भैया भोजपुरी के आठवीं अनुसूची वाला आन्दोलन 1947 से चल रहा है और आज भी जारी है। बिहार के भोजपुरी अकादमी के पतन के बाद दिल्ली की भोजपुरी अकादमी भोजपुरी के नाम पर एक मात्र अकादमी है जो चल रही है तो कहीं ना कहीं इसके लिए शीला जी साधुवाद देना चाहिए।
पूर्वांचल के पत्रकारों को डूब के मर जाना चाहिए अगर मै ऐसा कहूँ तो गलत होगा लेकिन उनको जीने से भी क्या फायदा जिनके जेहन में अपनी मातृभाषा के लिए प्रेम नहीं है। सबको गलत नहीं कहा जा सकता है कुछ लोग यथाशक्ति अपनी अवाज और कलम चलाते रहते है परन्तु अधिकतर बोल भी नहीं पाते है। सत्तारूढ़ दल के इर्दगिर्द आज की पत्रकारिता सिमट सी गयी है। यहाँ सरकार किसी कि बने, अकादमी, सरकार अपने अयोग्य लोगों को ही अधिकतर, संभालने का मौका देती है। अयोग्य आदमी सबसे पहले स्वहित, खोजता और चाहता है। इसी के साथ जो बात बिगड़नी शुरु होती है वह अकादमी के मिलने वाली सुविधाओं के बन्दर बाँट पर खत्म होती है।
मुझे याद आ रहा है कि 2019 में पूर्वांचली सांसदों का अभिनंदन समारोह चल रहा था और उसमें सांसद अर्जुन राम मेघवाल जो भोजपुरी आन्दोलनों के समकक्ष ही राजस्थानी भाषा के मान्यता आन्दोलन से जुड़े है, कहा था कि केन्द्र सरकार ने तीन भाषाओं को आठवीं अनुसूची में लाने का फैसला कर लिया है। निर्णय शीघ्र सुनने को मिलेगा। खैर जब तक मिल नही जाता तब तक यह भी राम मंदिर हम जैसे ही खिंचता दिख रहा है।
मिशनरी स्कूलों ने भारत मे लोकभाषाओं के प्रति जो हीनता का बोध कराना और भरना शुरु किया उसपर उस समय किसी का ध्यान ही नहीं गया। इसी बीच हमारी एक समूची पीढ़ी ऐसी तैयार हो गयी जिसको संयुक्त परिवार, गाँव, भाषाई अस्मिता, संस्कृति जैसे शब्दों से कोई मतलब नहीं रहा।इस पीढ़ी ने खुद को खाना, जीना और मरना तक अपने आप को सीमित कर लिया। भोजपुरी कमोबेश अभी इक्कीस देशों में बोली और समझी जाती है, वह भी बिना किसी राजाश्रय के। भोजपुरी को अपने वैसे बेटों की जरुरत है जो पार्टी से परे हो, संगठन से परे हो, व्यक्तिगत महत्वाकांक्षा से परे हो। यकीन मानिए भोजपुरी के लिए वह दिन सबसे दुखद होगा जब वोट के बदले कोई उसका राजनीतिक इस्तेमाल करेगा और दोहन करेगा। भोजपुरी के पास लाठी है बस उसको लाठी थामने वाले हाथ चाहिए ।
वोट आपका है अपने समझ से दीजिए कम से कम अपने स्वविवेक का इस्तेमाल तो जरुर कीजिए।देश को मजबूती राज्य से मिलती है! देश है तो सब है।
नोट : अगर आपकी भावनाएँ पोस्ट से आहत हुई है तो इसे फगुनाहट की शुरुआत मान सकते है
जलज कुमार मिश्र के फेसबुक से साभार