नागरिकता संशोधन कानून का देश में मुसलमानों के एक वर्ग और उनकी बहुसंख्या वाले विश्वविद्यालयों में विरोध हो रहा है। राजनैतिक स्तर पर कांग्रेस और वामदल इसका विरोध कर रहे हैं। कुछ क्षेत्रीय दलों ने विरोध किया है। विऱोध शांतिपूर्वक और लोकतांत्रिक नहीं है, हिंसक है। ‘खून की नदियां बहा देने ’ की धमकी दी जा रही है। अलीगढ़ में मुस्लिम विश्वविद्यालय के छात्र कलम के साथ–साथ कट्टे और बम से पुलिस पर हमला कर रहे हैं। जामिया में पांच बसें, पुलिस वैन, चौकी फूंक दी गई हैं। सार्वजनिक सम्पत्ति को इस तरह नुकसान पहुंचाया जा रहा है जैसे यह हमारे देश की नहीं किसी शत्रु देश की हो।
विरोध समझ से परे है। जबकि यह स्पष्ट है, कि ‘नागरिकता संशोधन कानून 2019’ से देश के किसी भी नागरिक को हानि नहीं होनी है। गृहमंत्री संसद में स्पष्ट रूप से बता चुके हैं कि यह कानून ‘नागरिकता लेने वाला नहीं नागरिता देने वाला कानून ’ है। इससे उस वर्ग को नागरिकता मिलेगी, जिन्हें अफगानिस्तान, पाकिस्तान और बंगलादेश में धार्मिक आधार पर सताया गया है, योजनाबद्ध ढंग से, नीति के तहत उत्पीड़ित किया गया है । जोकि, सत्तर साल से उपेक्षा और उत्पीड़न का दंश झेल रहा है। ये वर्ग हिन्दू, सिख, जैन, बौद्ध,पारसी और ईसाई है। यह सभी जानते हैं कि सम्बन्धित तीनों देश मुस्लिम राष्ट्र हैं। ये संवैधानिका रूप से इस्लामी गणराज्य हैं। अर्थात इन राज्यों में मुसलमानों के उत्पीड़न का प्रश्न ही नहीं उठता। बल्कि, ये तो उन देशों में उत्पीड़न करने वाले समाज के अंग हैं। तो फिर इन देशों के मुसलमानों को इस कानून में शामिल करने का औचित्य क्या है? लेकिन, हमारे देश के मुसलमानों का एक वर्ग (अधिकांश मुसलमान नहीं) इस सच्चाई को ना तो देखना चाहते हैं और ना ही समझना चाहते हैं, कि उनका हित इससे प्रभावित नहीं होगा। कानून उनके लिए किसी भी तरह से अहितकर नहीं है। कानून लागू होने के बाद उनकी नागरिता पर कोई आंच नहीं आएगी। यह बात बार–बार कही गई है और सरकार लगातार आश्वासन दे रही है। लेकिन, विरोध करने वाले लगातार संविधान के अनुच्छेद 14 के अन्तर्गत मिले ‘समानता के सिद्धान्त’ का उल्लंघन करने की बात कर रहे हैं, जोकि निराधार है। समानता के सिद्धान्त के अतिक्रमण की बात तब प्रासंगिक हो सकती थी, जब यह कानून भारतीय नागरिकों के लिए ही बनता । कानून भारत के नागरिकों के लिए बना ही नहीं है। भारत की सीमा के बाहर के लोगों के लिए बना है, जिन्हें नागरिक बनाया जाना है। जब इससे ना तो भारत के मुसलमान प्रभावित होंगे और ना ही यहां कि हिन्दू या सिख प्रभावित होने वाले हैं तो फिर समानता के सिद्धान्त का उल्लंघन कहां है? यह सिर्फ और सिर्फ सीमा पार के लोगों पर लागू होता है।
भारत को स्वतंत्रता की खुशी जिन लोगों की इज्जत, आबरू और जान की कीमत पर मिली, वे पश्चिमी और पूर्वी पाकिस्तान के हिन्दू और सिख परिवार ही हैं। हम दिल्ली, लखनऊ, पटना, भोपाल, हैदराबाद, मुम्बई और चेन्नई वालों को आजाद भारत में सांस लेने की सौगात मिली और पाकिस्तान के हिन्दू – सिखों को क्या मिला ? बेघर होने का दंश । लूट, बलात्कार, अपहरण, सम्पत्तियों पर कब्जे का दंश। इन्हें घर बार छोड़ना पड़ा। जब हम आजादी का जश्न मना रहे थे, तो ये सामान समेट कर सीमा के अन्दर तम्बुओं में जगह तलाश रहे थे। इनके परिवारों के कुछ लोग पाकिस्तान में ही रह गए थे। इन्हें आशा थी वहां की सरकार उन्हें भारत की तरह ही संरक्षण देगी और धार्मिक, सामाजिक स्वतंत्रता के साथ ये लोग जीवन यापन कर पाएंगे। लेकिन, ऐसा नहीं हुआ। यह सभी जानते हैं पाकिस्तान में इस्लामी कट्टरपंथियों और का कब्जा रहा है। इन्होंने पाकिस्तान को हिन्दू और सिख विहीन करने का अभियान चलाया। इसके लिए ईशनिंदा कानून का सहारा लिया गया। हिन्दू , सिखों, जैन, पारसियों, बौद्धों और ईसाइयों का इतना उत्पीड़न किया कि उन्हें भागकर भारत की शऱण लेनी पड़ी। कई लाख लोग सत्तर साल से सीमा के अन्दर ‘बगैर नागरिकता’ के रह रहे थे। इन्हें शरण देना, इनका संरक्षण करना और अपना नागिरक बनाना भारत का नैतिक कर्तव्य है। यह कानून तो सत्तर साल पहले ही बन जाना चाहिए था। क्योंकि, हम इन बलिदानियों इन परिवारों के ऋणी जो हैं। हमारे देश के नेताओं ने और सरकारों ने विभाजन के समय जो भरोसा मुसलमानों को दिया था, उसे निभाया है। यही कारण है कि देश में मुस्लिम जनसंख्या लगातार बढ़ी है। महत्वपूर्ण पदों पर मुस्लिम निर्वाचित और नियुक्त हुए हैं। कहीं कोई भेदभाव नहीं है, बल्कि कुछ मामलों में विशेषाधिकार मिले हैं। जबकि, पाकिस्तान और बंगलादेश (पूर्वी पाकिस्तान) में हिन्दू सिख ईसाई जनसंख्या नगण्य हो गई है। कहां गए इन देशों के हिन्दू और सिख ? क्या उन्हें आसमान लील गया ? क्या अरब सागर में समा गए ? नहीं, पाकिस्तान की इस्लामपरस्त नीति ने उनका बलात् धर्मान्तरण करा दिया, मार दिया अथवा खदेड़ कर भारत की सीमाओं में तम्बुओं में रहने को मजबूर कर दिया। इन्हीं को देनी ही भारत की नागरिता।
इस विधेयक को संसद में पारित कराकर कानून बनाने के लिए प्रधानमंत्री और गृहमंत्री की जितनी भी प्रशंसा की जाए वह कम है। भारत अपने ‘ धर्म ‘ का पालन कर रहा है। इतिहास गवाह है कि भारत ने दुनिया के हर धर्म के लोगों को शरण दी है। पारसी जैसा जैसा धर्म जो दुनिया में विलप्त होने के कगार पर है, किसके कारण यह बताने की जरूरत नहीं है। उन्हें भी भारत ने ही शरण दी है। यहूदियों को जब कहीं जगह नही थी, तो भारत ही था, जिसने उन्हें अपनाया । इतना ही नहीं जो यहां हमलावर बनकर आये उनके सम्मान में भी “ गंगा – जमुनी तहजीब ‘ उद्घोष किया गया । बेहतर होता कि भारत का मुस्लिम नेतृत्व एकमत से इस कानून का समर्थन करता । यदि समर्थन नहीं भी करते तो कम से कम विरोध तो नहीं करते। मुस्मिल नेतृत्व एक बार फिर चूक गया है। पहली बार उनसे चूक तब हुई जब रामजन्मभूमि के मुद्दे पर समझौते से मन्दिर निर्माण का प्रस्ताव इन्होंने नहीं माना। यह जानते हुए भी कि अयोध्या का वह स्थान भगवान राम का जन्मस्थान है। यदि सर्वोच्च न्यायालय के फैसले से पहले मुस्लिम पक्ष ने दावा छोड़ा होता तो दुनिया की निगाह में भारत के मुसलमानों का सम्मान बहुत अधिक होता । सर्वोच्च न्यायालय का फैसला आने के बाद भी इस बात पर अड़े रहे कि पुनर्विचार याचिका दाखिल कर मन्दिर निर्माण का रास्ता रोकेंगे। भारत के बहुसंख्यक समाज ने कभी भी यहां के अल्पसंख्यकों के साथ भेदभाव नहीं किया है। न तो कानून के स्तर पर और न ही समाजिक और राजनैतिक स्तर पर। अब समय इनके सोचने का है कि ये किसकी राजनीति के शिकार हो रहे हैं ? कौन हैं, जो इन्हें भड़का कर या गुमराह करके अपनी ‘ फेल ‘ हो चुकी राजनीति को चमकाने के लिए उकसा रहे हैं। ये सब बातें मुस्लिम नेतृत्व को खुद समझनी होंगीं। ऐसा नहीं है कि जामिया, एएमयू और नदवा के प्रदर्शन में शामिल छात्र कोई नासमझ हैं। सब समझदार हैं, इनके पास पूरी जानकारी है कि ‘नागरिता कानून’ का मतलब क्या है? ये जानते हैं कि इससे भारत के मुसलमान प्रभावित नहीं होंगे, फिर भी अगर विरोध हो रहा है तो फिर जरूर कोई ऐसा कारण है, जिसे समझना होगा।