कांग्रेस ने प्रियंका गांधी को कमान सौंपने की तैयारी कर ली है। पार्टी में इस बारे में सुगबुगाहट तेज हो गई है। पहले ये बात दबी जुबान मे कही जा रही थी लेकिन राहुल गांधी के अध्यक्ष पद छोड़ने और पार्टी गतिविधियों से लगातार दूर रहने की वजह से अब कुछ लोग खुलकर बोलने लगे हैं कि प्रियंका को कांग्रेस की बागडोर सौंपने का वक्त आ गया है। सही समय का इंतजार है जब इसकी विधिवत घोषणा हो जाए। सम्भव है ये वक्त दिल्ली विधानसभा चुनाव के बाद कभी भी आ जाए। वर्तमान अध्यक्ष सेनिया गांधी के लगातार गिरते स्वास्थ्य ने भी इस चर्चा को हवा दे दी है।
प्रियंका गांधी को पार्टी की कमान क्यों सौंपी जाए और इससे पार्टी को फायदा होगा या नहीं- इन पर चर्चा करने से पहले ये जान लेना जरुरी है कि आखिर अचानक पार्टी में ये बहस क्यों छिड़ गई है।दरअसल, महाराष्ट्र और हरियाणा विधान सभा चुनाव के नतीजों ने कांग्रेस को संजीवनी दी है। नेताओं और पार्टी कार्यकर्ताओं में नया उत्साह पैदा हुआ है। तर्क दिया जा रहा है कि अगर हरियाणा में थोड़ा और पहले चुनाव का नेतृत्व भुपेन्द्र सिंह हूडा और कुमारी सेल्जा को दिया होता तो नतीजे कुछ और होते। कम समय में भी इन दोनो ने हरियाणा में अच्छे परिणाम दिए। राहुल गांधी चुनाव प्रचार से लगभग गायब रहे। बोलने वाले तो ये भी बोलते हैं कि राहुल गांधी का वहां कम जाना पार्टी के लिए अच्छा ही रहा।अब उम्मीदवार भी नहीं चाहते कि राहुल उनके यहां चुनाव प्रचार में जाएं। ये तो पार्टी की मजबुरी है कि उन्हें स्टार प्रचारक की सूची में रखा जाता है।
हरियाणा में राहुल गांधी के चहेते अशोक तंवर ने प्रदेश अध्यक्ष पद से हटाए जाने के बाद विद्रोह कर दिया लेकिन उसका कोई असर नहीं हुआ। उल्टा, कांग्रेस को फायदा हुआ। यही काम महाराष्ट्र में संजय निरुपम ने किया लेकिन उनकी बगावत भी कामयाब नहीं हुई। इन दोनो मामलों से एक बात तो तय हो गई कि राहुल गांधी ने पार्टी में सफेद हाथी पाल रखे थे जो जनता और जन समस्यों से काफी दूर थे। पार्टी के लोग राहुल गांधी को भी अब इसी रुप में देखने लगे हैं। राहुल व्यक्तिगत पसंद नापसंद को तरजीह देते हैं भले ही इससे पार्टी को कोई फायदा न हो। हरियाणा और महाराष्ट्र के चुनाव में पार्टी नेताओं ने ये महसूस किया, ये अलग बात है कि जाहिर करने की हिम्मत उनमें नहीं है।
राहुल गांधी के खिलाफ कई बातें कही जातीं हैं- वह सुविधा की राजनीति करते हैं। राजनीति 10 बजे से 5 बजे तक की सरकारी नौकरी नहीं है। वे सड़कों पर लड़ाई करने के बजाए ट्वीटर शेर बनना चाहते हैं। कई गम्भीर समस्याओं पर जब सरकार को घेरने का मौका आया तब वे केवल बयानबाजी तक सीमित रहे। सड़क पर उतरने का कई मौका गंवा दिया।जब भी कोई बयान देने के लिए मुंह खोलते हैं, कोई न कोई विवाद खड़ा हो जाता है। विषय की पूरी समझ रखने के लिए रिसर्च नहीं करते। किसी ने ठीक ही कहा है कि राजनीति में गुंडों के लिए जगह है मूर्खों के लिए नहीं।
इसके विपरीत प्रियंका में दम है। वह राजनीति समझती हैं। कब कहां और कैसे सरकार पर हमले किए जाएं, बखूबी जानतीं हैं। सड़क पर उतरने में जरा भी देर नहीं करतीं। उत्तर प्रदेश के सोनभद्र में सामूहिक हत्याकांड हुआ वह बिना देरी किए मौके पर पहुंच गईं। ये अलग बात है कि राज्य सरकार ने उन्हें गांव में घुसने नहीं दिया पर उनका मकसद पूरा हो गया। राज्य सरकार की किरकिरी हुई और प्रियंका की वाहवाही। भट्टा परसोल के बाद राहुल गांधी ने ऐसा कोई सियासी अक्रामकता नहीं दिखाई है। प्रियंका के बयान या भाषण काफी कन्विंसिंग होते हैं जो जनता को विश्वसनीय लगते हैं जबकि राहुल के बयान को लोग गम्भीरता से नहीं लेते।
नवम्बर में जब कांग्रेस देशव्यापी आन्दोलन की तैयारी कर रही है, सरकार को आर्थिक मंदी, बेरोजगारी जैसे मुद्दों पर घेरने की तैयारी कर रही है, राहुल भैया छुट्टियां मनाने इंडोनेशिया प्रस्थान कर गए।
कांग्रेस के बारे में अब ये बात किसी से छिपी नहीं है कि पार्टी को अनुशासित और एकजुट सिर्फ गांधी परिवार का कोई सदस्य ही रख सकता है। परिवार से बाहर के किसी व्यक्ति की आमस्वीकृति नामुमकिन है। इतिहास गवाह है, जब भी ऐसी कोशिश हुई, कामयाब नहीं हुई। राहुल गांधी को मौका मिला पर वे सफल नहीं हुए। ऐसा नहीं कि उन्होंने कोशिश नहीं की लेकिन भारतीय जनता पार्टी और राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की संगठनात्मक युगलबंदी के सामने उनकी कोशिश ऊंट के मुंह में जीरा साबित हुई। सियासत में मेहनत से ज्यादा जरुरी कुशल नेतृत्व और ठोस रणनीति होती है। किसी भी सियासी घटना पर आप कैसे और कितनी जल्दी रिएक्ट करते हैं इस बात पर भी आपकी कामयाबी निर्भर करती है।
वर्तमान अध्यक्ष सोनिया गांधी में नेतृत्व क्षमता तो है और वे पार्टी को एकजुट भी रख सकतीं हैं। लेकिन दो मामलों में वह पिछड़ जातीं हैं- एक, वह अच्छी वक्ता नहीं हैं कि अपनी वाक्पटुता से सामने वाले को धराशायी कर सके । दूसरा, वह पार्टी के पुराने नेताओं (फुंके कारतूस) पर ज्यादा भरोसा करतीं हैं। उनके अध्यक्ष रहते पार्टी के वही पांच-छह चेहरे कांग्रेस के हर फैसले पर हावी रहते हैं। उनके पास न तो नई सोच है और न ही कोई नया आयडिया । ऊपर से उनमें से ज्यादातर किसी न किसी विवाद में फंसे हुए हैं। उनका अतीत पार्टी को फायदा नहीं पहुंचा सकता है । भाजपा के राष्ट्रवाद और हिन्दुत्व के धारदार मुद्दों का उनके पास तर्कसंगत जवाब नहीं है । धर्मिरपेक्षता के सहारे अब भारत में कोई पार्टी सफल नहीं हो सकते । वैसे भी दर्जनों पार्टियां इसी के सहारे अपनी अपनी दुकाने चला रहे हैं । ऊपर से सोनिया गांधी का स्वास्थ्य उन्हें ज्यादा सक्रिय रखने नहीं देता । इसकी झलक हरियाणा और महाराष्ट्र के चुनाव में सबने देखा जहां वे बहुत कम रैलियों को सम्बोधत कर पाईं ।
लेकिन प्रियंका गांधी में कुछ अलग बात है । वह अच्छा भाषण दे सकती हैं । किसी भी मुद्दे पर सड़क पर उतरने में उन्हें ज्यादा समय नहीं लगता है। उसकी बॉडी लैंग्वेज सामने वाले पर भारी पड़ता है। इसलिए प्रियंका को अध्यक्ष बनाने की मांग लगातार तेज हो रही है । पार्टी कार्यकर्ताओं की इस मांग को ज्यादा दिनो तक नजरअंदाज करना पार्टी के लिए संभव नहीं है । इसलिए जल्द ही उनकी ताजपोशी हो सकती है और शायद इसीलिए राहुल ने उनका रास्ता साफ कर दिया है ।
सम्भव है दिल्ली विधानसभा चुनाव के बाद कांग्रेस में बड़ा फेरबदल हो ।