भारत सहित विश्व के अनेक देशों में हिंसा की गतिविधियाॅं दिखाई पड़ती है। किसी भी काल में, किसी भी स्थान में और किसी भी परिस्थिति में जो कुछ भी सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक अव्यवस्था होगी, दोष होगा, उसकी पड़ताल करने पर उनके मूल में तीन ही प्रमुख कारण – अज्ञानता, अभाव और अन्याय ही होंगे। इन्हीं तीनों कारणों से ही विषमताएं पनपती हैं। ये आपस में इतने चिपके हुए होते हैं कि इन्हें अलग-अलग करके देख पाना दुष्कर कार्य होता है। समाज मनुष्य की अधिकता से नहीं चलते बल्कि विचारों की गुणवत्ता, व्यपकता और बौद्धिक सम्पन्नता पर चलते है। विषमता को क्षीण करने में सम्पर्क और संवाद की महती भूमिका रहती है। समाज में उच्चकोटि के विचारों और सद्भावनाओं के प्रचार-प्रसार और उसकी प्रतिस्थापना नहीं होने से ही विषमताओं को जाने-अनजाने में फलने-फूलने का अनुकूल वातावरण मिल जाता है।
प्रत्येक मनुष्य एक सामाजिक प्राणी है। कोई भी मनुष्य इस आधार पर सामाजिक नहीं है कि वह समाज में रहता है, बल्कि इस आधार पर वह सामाजिक है क्योंकि जन्म, विकास और मृत्यु तक की उसकी प्रत्येक आवश्यकता समाज की व्यवस्थाओं पर ही निर्भर रहती है। हमारे पास जो कुछ भी है वह सब सार्वजनिक और साझा है। समाज और राष्ट्र की जो कुछ भी सम्पदा है – भौतिक एवं अभौतिक दोनों ही तरह की सम्पदा – सब कुछ सामूहिक और साझा तौर पर ही तैयार की गई है। कोई भी भौतिक एवं अभौतिक सम्पदा कितनी पुरानी है और कितनी नई है, इसको जानना-समझना अत्यंत ही दुष्कर कार्य है।
हिंसा करने वाले एक दिन धराशायी हो जाते हैं
बहुत स्थानों में हिंसा हुई हैं और हिंसा के दौर भी खत्म हो गए। हिंसा ज्यादा दिन तक नहीं टिकती। हिंसा करने वाले एक दिन धराशायी हो ही जाते हैं। हिंसा इसलिए ज्यादा दिन तक इसलिए भी ठहर नहीं पाती क्योंकि उसे योजनाबद्ध तरीके से नष्ट किया गया होता है। हिंसा ज्यादा दिनों तक इसलिए भी नहीं टिकती क्योंकि हिंसा की आयु बहुत छोटी होती है। उसका दायरा बहुत सीमित होता है। हिंसा कहां पैदा होती है? हिंसा और उपद्रव सबसे पहले मानव मस्तिष्क में पैदा होते हैं। हिंसा एक मानवीय कमजोरी है, विकार है, निम्नकोटि की अभिव्यक्ति है। सभी तरह की हिंसा विचारों के कुपोषण का परिणाम ही है। सभी तरह की सशस्त्र हिंसा के मूलतत्व में विचारों का ही अभाव देखा गया है। जिनके भी मन में हिंसा के अस्त्र-शस्त्र हैं, वे दया और सहानुभूति के पात्र हैं, क्योंकि वे मानसिक रोगी हैं। जो जितना अधिक मानसिक रूप से बीमार होगा, मंदबुद्धि होगा, अज्ञानी होगा, वह उतने ही ज्यादा हिंसक और षडयंत्रकारी होगा। हिंसा एक दुर्बल मनःस्थिति है। हिंसा एक कुंठा है। हिंसा हताश-निराश लोगों का क्रुद्धरुदन है। हिंसा निजी गतिविधि है। हिंसा में कुछ भी सामाजिक नहीं है। स्वार्थों से प्रेरित हिंसा कुछ ही लोगों तक सीमित होती है। हिंसा मूढ़ों का प्रिय विषय है। हिंसा में लिप्त लोग जिंदा शव के समान होते हैं। वे बेचारे पहले ही मृत्यु को प्राप्त कर चुके होते हैं। वे आत्महंता हैं। मूढ़ पहले खुद को आघात पहुंचाते हैं, फिर अन्यों के जीवन पर अनावश्यक हस्तक्षेप करते हैं। मूढ़ खुद को सजा देने के लिए हिंसा के मार्ग पर चलने लगता है। हिंसा और द्वेष फैलाना मूढ़ लोगों के प्रिय कार्य होते हैं।
मन में मानव हत्या के दुर्विचार आने पर उसे कृत्य द्वारा प्रमाणित कर देना मानसिक रूप से मृत होने का ही प्रमाण है। शिक्षा और ज्ञान के अभाव में संवेदना के जल सुख जाने पर ही मन में हिंसा जन्म लेती है। समकालीन समाज में हिंसा के मूलकारणों में अभाव और अन्य भी प्रमुख कारण हैं। बौद्धिक सम्पदा और विचारों में उदात्तता के अभाव से समाज में कलह, विषमता और हिंसा पैदा होती है।
संगठित हिंसा और पेशेवर हिंसक लोगों का श्रेष्ठ स्थान विद्यालय है, पुस्तकालय है, उन्हें गहन शिक्षा की आवश्यकता है। उन्हें ज्ञानियों और संतों का सानिध्य चाहिए। हिंसक लोग इसलिए हिंसा में लिप्त हैं, क्योंकि वे पढ़-लिख नहीं पाए। उनके समक्ष पढ़ने-लिखने के महत्व को उजागर नहीं किया गया। वे ही सबसे पहले शिक्षा पाने के, शिक्षित होने के और जागरूक होने के अधिकारी हैं। शिक्षा और ज्ञान के प्रसार से ही हिंसा दूर होगी।
हिंसाः अपनी ही डाली को काटना
हिंसक व्यक्तियों का सबसे सॉफ्ट टारगेट होता है, उनके स्वयं के अपने लोग जैसे – सगे-संबंधी, परिजन, निकटतम परिजन और जाति-विरादरी के लोग आदि। मूढ़ लोग सबसे पहले अपने ही लोगों पर हिंसा करते हैं। मूढ़ लोग सबसे पहले उस डाली को ही काटते हैं, जिस डाली पर वे बैठे होते हैं। हिंसक लोग सबसे पहले उन लोगों के लिए मृत्युकारक बनते हैं – जिनके योगदानों और सहयोग से उसका जीवन चलता है। कोई भी हिंसक व्यक्ति 100 किलोमीटर दूर किसी अन्य स्थान पर जाकर हिंसा नहीं कर सकता। उसकी सीमाएं बहुत ही छोटी हैं। इनके कृत्य सीमित होने पर भी वह स्वीकारने योग्य नहीं है। कोई भी हिंसक द्वारा अपने से ज्यादा बलशाली लोगों पर हिंसा करना संभव नहीं होता। हिंसा निकृष्ट निजी स्वार्थों द्वारा पोषित होती है।
जिनके हाथों में तलवारें अथवा बंदूकें होती हैं वे अत्यंत ही डरपोक किस्म के होते हैं। हिंसक लोग डरे-सहमे हुए होते हैं। वे नारकीय जीवन जीते हैं। उनके मन में डर-भय का दैत्य बठा रहता है, इसलिए उनके कृत्य अनिष्टकारी होते हैं। हिंसक रहना, हिंसापूर्ण वातावरण में रहना और हिंसा को किसी रूप में भी मदद नहीं पहुंचाना चाहिए।
हिंसा, साहस नहीं बल्कि दुर्बलता का प्रतीक है। हिंसा किसी भी रूप में प्रतिकार अथवा किसी भी रूप में क्रांति का स्वरूप नहीं है। हिंसा को बढ़ाने में योगदान देना, हिंसा को उचित ठहराने के लिए कुतर्क प्रस्तुत करना और हिंसक लोगों का महिमामण्डन करना, हिंसक लोगों के मनोबल को ऊंचा उठाने में मदद करने जैसा है। दूसरों के हित पर अतिक्रमण करने अथवा सार्वजनिक हित का नाश करने से कोई भी समाज अच्छा नहीं बन सकता। समकालीन समाज को इसके बारे में चिन्तन करना चाहिए।
शिक्षा से ही हिंसा दूर होगी
मनुष्य के मन में ही सभी तरह के गुण और दुर्गुण उत्पन्न होते हैं। मनुष्य के मन की सेवा ही सबसे बड़ी सेवा है। मानवमन की सेवा शिक्षा द्वारा ही होती है। मानवमन को शिक्षित-प्रशिक्षित करना और उसे विचारों से सुसंपन्न बनाना ही शिक्षा का उद्देश्य है और इसी में राष्ट्र की उन्नति है। यह हमारा परम नैतिक उत्तरदायित्व है कि जिस भी माध्यम और कोशिशों से हो सके, शिक्षा के उपायों और अवसरों को बढ़ाया जाये। शिक्षा और पढ़ने-लिखने, बौद्धिक सम्पन्न व्यक्तियों की अधिकता से ही समाज से शांति और सद्भाव स्थापित होंगे। शांति का आशय चुप्पी, गूंगापन, अकर्मण्यता, सन्नाटा, शब्दहीनता से नहीं है और न हीं ये शांति के समानार्थी शब्द हैं। शांति का सम्बन्ध मानवीय संबंधों में मधुरता से है, समरसता से है। शांति का सम्बन्ध मानवीय व्यवहार में गुणवत्ता और अच्छाई से है। कल्याणकारीे विचारों के आदान-प्रदान से ही समस्याओं का समाधन निकलता है। हिंसा सदैव ही शिक्षा और ज्ञान से भय खाती है। शिक्षा की शक्ति के समक्ष हिंसा की कुछ भी हैसियत नहीं। शिक्षा और ज्ञान से ज्यादा समाज में हिंसा को स्थापित करने से हिंसा में लिप्त लोगों की कुबुद्धि को बल मिलता है।
सम्पर्क एवं संवाद से सुलझे समस्या
समाज में उच्च कोटि के विचारों और परोपकारी भावनाओं को स्थापित करने में योगदान देना ही महानतम योगदान है। हमें सदैव स्मरण रखना चाहिए कि स्वार्थ जितना संकुचित होता है उतना ही मलिन और हानिकारक और विध्वंशक होता है। जिन लोगों में कल्याणकारी भावनाएं रहती हैं, वही सही अर्थों में साहसी होते हैं। व्यक्ति का सामाजिक स्वार्थ जितना सशक्त होगा उसकी सामाजिक उपयोगिता उतनी ही अधिक होगी। सम्पर्क एवं संवाद में किसी भी सामाजिक समस्या को सुलझा लेने का सामर्थ्य है। हिंसा घाव है। इसकी उचित औषधि है व्यवस्थित शिक्षा की उपलब्धता। हिंसा को केवल और केवल शिक्षा, सदसाहित्य, ज्ञान, सम्पर्क, संवाद आदि के द्वारा ही दूर किया जाना चाहिए। दूसरे अन्य मार्गों की अनुमति हमारा संविधान नहीं देता। शिक्षा और ज्ञान से मिलने वाला परिवर्तन स्थायी है।
(लेखक युवा उद्यमी, चिंतक एवं लेखक हैं।)