विश्लेषण संजीव कुमार ,दिल्ली
बात तो करो
बधाई हो जैसी हिट फिल्म के बाद एक बार फिर उसी तरह के मुद्दे पर आयी फिल्म खानदानी शफाखाना सोनाक्षी के अच्छे अभिनय और फर्स्ट टाईम निर्देशन करनेवाली शिल्पी की अच्छी कोशिश के बावजूद बॉक्स ऑफिस पर कोई करामात नहीं दिखा पायी.शिल्पी दास गुप्ता के निर्देशन में बनी फिल्म खानदानी शफाखाना समाज के उस टैबू को तोड़ने की कोशिश करती है जो सेक्स और सेक्सुअल बीमारियों पर खुल कर बात करने को जेहनी अपराध मानता है. हिचक वाले विषय पर कॉमेडी फिल्म बनाने की जो कोशिश की गयी उसमें स्लो स्पीड ने ही फिल्म को मार डाला .
फिल्म की कहानी अधूरे सेक्स को मुकम्मल करने करने कोशिशों पर आधारित है.इस विषय पर अभी भी छोटे कस्बों-गांवों में लोग बात करने से कतराते या हिचकते हैं.
पंजाब की कहानी है. फिल्म बार बार ये संदेश देती नजर आती है कि सेक्स वर्ड बोलना या उसका वाजिब जिक्र करना उतना ही स्वाभाविक है जितना अस्वाभाविक उसके बारे में बात ना करना है. उसके बारे में बात नहीं कर हमने इसे अलग ही रूप में परिभाषित कर लिया है. और यही वजह है कि इस शब्द का जिक्र अश्लीलता माना जाता है.
चूंकि समाज में ऐसा ही होता है, जब फिल्म की कहानी में सोनाक्षी सिन्हा लोगों की सेक्स संबंधी बीमारियों का इलाज करने की ठानती हैं तो उन्हें घर, मोहल्ले और अपनों का तिरस्कार झेलना पड़ा. मगर उनका जज्बा कभी कम नहीं हुआ. फिल्म के जरिए यौन संबंधी समस्याओं को लेकर लोगों को जानकारी और जागरुक करने की कोशिश की गई है. सोनाक्षी सिंहा(बॉबी बेदी) के मामा (कुलभूषण खरबंदा) हकीमी से गुप्त रोगों का खात्मा करते हैं.एक दिन उनकी हत्या हो जाती है और वो अपने वसीयत में भांजी को अपना इकलौता क्लिनिक दे देते हैं.भांजी अपनी मां और भाई के साथ जिस घर में रहती है उसपर चाचा की लालची नजर है.पेशे से एम आर सोनाक्षी का परिवार फांके में जीता है. वसीयत के शर्त के अनुसार 6 महीने तक सोनाक्षी को क्लिनिक चलाना है उसके बाद ही उस प्रोपर्टी को बेचा जा सकता है.परेशान बॉबी को पास का ही तेमन जूसवाला काफी मदद और मोटिवेट करता है बॉबी को संघर्ष में वकील (अन्नू कपूर) का साथ मिलता है.
कहीनी अच्छी है,स्क्रिप्ट काफी ज्यादा ड्रैग करता दिखता है जिसमें कॉमेडी के पंचेज का अभाव दिखता है.फिल्म हंसाने से ज्यादा रोगियों का इलाज करता दिखता है, हांलाकि बादशाह के छोटे से एपियरेंस से कुछ इफैक्ट पड़ता दिखता है पर वो भी तब जब फिल्म आधी खत्म हो जाती है. काफी दिनो बाद नादिरा देखने को मिली और अच्छा किरदार भी निभाया. प्रेयांश जोरा ने काफी अच्छा किया क्योंकि कहानी के अनुसार इसमें और ज्यादा रोमांस या गाना वगैरह डाला नहीं जा सकता था . संगीत अच्छा है और गाने भी प्लॉट के अनुसार ही लगे . मिलाजुलाकर एक खास संदेश देनेवाली फिल्म देखने लायक तो है . कम से कम सोनाक्षी की एकल कोशिश .