By Swati Arjun via FB
सच तो ये है कि जिस तरह से दल-बल के साथ टीवी के स्टूडियो जर्नलिस्ट मुज़फ़्फ़रपुर पहुंच गए हैं और वहां spectacle create करने में लगे हैं – उसका सिर्फ़ दो-तीन मक़सद समझ में आता है – पहला ये कि देश के सबसे बड़े राज्य और राजनीतिक हलचल से हमेशा ख़बरों में बने रहने वाले प्रदेश में इन सभी राष्ट्रीय चैनलों ने ढंग का ब्यूरो स्थापित नहीं किया है – तभी सभी को दिल्ली छोड़कर बिहार पहुंचना पड़ा है. ये इन चैनल्स के मैनेजमेंट पर करारा तमाचा ही है कि इन्हें अपने (काबिल) रिपोर्टर्स पर भरोसा नहीं रहा जो ख़ुद वहाँ पहुंच गए, पूरी क्रेडिट लेने.
दूसरा, ये कि चूंकि नीतिश कुमार और अमित शाह के बीच तना-तनी का माहौल बनता दिख रहा है तो, ऐसे में इन पत्रकारों को इस हादसे के दौरान नीतिश सरकार के ख़िलाफ़ खुलकर मोर्चा खोलने का मौक़ा मिल गया है – जो शायद 23 मई से पहले हासिल नहीं था.
तीसरी और अंतिम बात- इलाज की आपाधापी में अस्पताल के डॉक्टरों पर सवाल दागने, उन्हें परेशान करने से कुछ नहीं मिलेगा – सवाल सरकार से होना चाहिए कि पिछले चार-पांच सालों में ही कई सौ बच्चे मर गए, ऐसे में सरकार ने अब तक कोई ठोस कदम क्यों नहीं उठाए?
पर, बदले में जनता या मरीज़ इन मीडिया वालों से भी पूछ सकती है कि 2016 में जब नीतिश कुमार ने बड़ा अस्पताल और बेहतर सुविधा विकसित करने का वादा किया था, तो यही मीडिया जिसे लोकतंत्र का चौथा खंभा कहा जाता है और जिसका काम विपक्ष की भूमिका अदा करना था – उसने पिछले पांच सालों में गोरख़पुर से लेकर मुज़फ्ऱफ़रपुर तक समय-समय पर आने वाली इस महामारी की रोकथाम के लिए कोई काम हो रहा है या नहीं- उसपर कोई फॉलोअप स्टोरी क्यों नहीं की?
मीडिया सिर्फ़ दूसरों से accountability की डिमांड नहीं कर सकता है – कुछ मौकों पर उससे भी सवाल किया जाना चाहिए – ताकि आगे से इस तरह की महामारी और राष्ट्रीय शोक के वक्त़ ये मीडिया वाले एक अलग तमाशा खड़ा करके लोगों का ध्यान बांटने में कामयाब न हो.
जागो जनता जागो…जैसे किसी पर नहीं करते हो, वैसे ही मीडिया पर भी आँख मूंदकर भरोसा मत करो और टीवी पर रोज़ रात को प्राइम टाइम वाले एंकर्स पर तो बिल्कुल भी नहीं.