सुनो-सुनो हम आज एक खबर लाए हैं …खबर भी खास …खास ही नहीं खबर बड़ी भी है . खबर जो आपकी नींद भी उड़ा दे ..जी सच सुना आपने .. खबर ऐसी जिससे रूबरू आप कई बार हुए तो हैं लेकिन इस बार इसके तेवर और कलेवर बदल दिए गए है. आपने बहुत सारे अखबार और टी वी चैनलों पर बहूत सारे तिलस्मी या भूत पिशाच के किस्से तो सुने और देखे होंगे लेकिन इस बार हम लाये हैं उससे अलग हटकर एकदम अलहदा दर्जे की वो कहानी जिसमे दर्द है , आंसू है ,क्रंदन है और बहुत बड़ा ड्रामा भी है। सच में अगर ये कहानी कहानी होती तो ऑस्कर की दावेदार होती लेकिन ये कहानी नहीं, हकीकत है, इसलिए ये कहानी आपके दिल को तो पसीज सकती है लेकिन इसके सूत्रधार की आँखों में आंसू तो दूर चेहरे से पसीना तक नहीं छलक रहा। हो भी कैसे ये नाटक जो कर रहे हैं। उम्मीद है ये कहानी अच्छी लगेगी आपको।
हमें ये ठीक ठीक याद नहीं इसका जन्म कब हुआ ,ये भी नहीं याद कि जिस समय ये अस्तित्व में आया उस समय के लोगों ने इसके साथ क्या व्यवहार किया , पर छोड़िये इस लम्बी कहानी के पीछे कहाँ भटका जाये। हम तो बात करते है अपनी ही याददास्त की। ठीक नौ साल पहले भी यही रूप था इसका उस समय भी कोई नाम नहीं था ,आज भी ये बेनाम ही है। क्या त्रासदी है साहब इसकी कि कोई एक अदद नाम भी पाए लोग। अपनी बोली और समझ के अनुसार इसका नाम रख दिया। आम आदमी तो क्या सरकारें भी आती जाती रही पर लगातार तुफानो और कुत्तों के बदलते नाम के सिवा और किसी तरह का नामकरण का ध्यान किसी का भी इस और नहीं गया। पर अजीव विडम्बना है जनाब बिना नाम के आज तक ये अस्तित्व की लड़ाई लड़ ही रही है। केवल लड़ाई जीत ही नहीं रही बल्कि हर बार ये खुद को प्रमोट भी करती जा रही है। पहली बार ,याददास्त के अनुसार शायद दर्जन पर जाकर ये सिलसिला थम सा गया था , बीच का दौर आया तो प्रोन्नति हुयी आंकड़ा खूब बढ़ा। सरकार चौंक गयी ,जनता डर गयी और हम पत्रकार कुछ अलर्ट हो गए ,जी हाँ पहले से ज्यादा संजीदा हो गए।
लीची के मौसम में अच्छी लीची खाने और उसपर फिल्म बनाने की चाहत में चले आये बिहार के कश्मीर मुजफ्फरपुर में। और भरपेट लीची खाया और एक फिल्म बनाया सोचा अपना तो काम हो गया। पर लौटते वक्त विदाई में तोहफे के रूप में एक घटना की खबर मिल गयी। और अगले दिन अख़बार के किसी पन्ने या चेनेल के सुपरफास्ट खबर में एक छोटी सी खबर चल गयी।
समय बदला पिछले दस सालों में इसने खूब तरक्की कर ली है , इस बार तो शतक भी लगा लिया। और ज्यों ही शतक लगाया नजारा ही बदल गया। मुफस्सिल और स्टेट हेड क़्वार्टर खबरनवीस अचानक गायब से हो गए। लगता है दिल्लीवालों की समझ में ये बात आ गयी कि जैसे मोदी के बिना राज्य के मसले को राज्यवाले सॉल्व नहीं कर सकते उसी तरह उनके ये लोकल शूरवीर मैदान में जाकर इस दुश्मन से लड़ नहीं सकते और अगर सेना दिल्ली से मुजफ्फरपुर नहीं पहुंची तो फिर सर्वनाश ही हो जायेगा।
चल पड़ी दिल्ली से सेना दशकों पूर्व जिन सैनिकों ने हथियार मयान में डाल दिए थे आज फिर कूद पड़े जंग के मैदान में। इस बार यहाँ लड़ाई डॉक्टर नहीं यही लड़ेंगे। और कहते हैं ना युद्ध और प्यार में शाम ,दाम,दंड और भेद सबको आजमा लेना जायज होता है। यही कुछ किया हमारे क्रांतिवीर पत्रकारों ने। ICU को अपना न्यूज़ रूम बना डाला। नैतिकता गयी तेल लेने ,नियम कानून गया घास चरने।
साहेब सैकड़ो बच्चे काल के गाल समा गए ,गलती हमारी या उनकी तय करना बाकि है। पर ये तो तय है न साहेब हमारे बड़े पत्रकार जिसतरह से मरते तड़पते बच्चों के बीच टीम के साथ रिपोर्टिंग टूरिस्म पर जाकर अपना चेहरा चमका रहे थे ऐसा भी हमने पहले कभी नहीं देखा था। अब देखना है कि इन तमाम द्रोणाचार्य सरीखे गुरु पत्रकारों की कोशिशों के बाद चमकी या मष्तिष्क ज्वर को कोई बढ़िया नाम मिल पाता है या नहीं और अगले साल फिर अपने द्वारा रोपित वृक्ष की फिर सिंचाई कर पाते हैं या नहीं ? फिलहाल हमें इंतज़ार है।