नीतीश जी आजकल लालटेन का बहुत उपहास उड़ा रहे हैं. उनका कहना है कि गाँव-गाँव में अब बिजली आ गई है. बिहार में लालटेन की ज़रूरत अब नहीं है. लेकिन लालटेन को मात्र रौशनी का ज़रिया मान कर नीतीश जी ग़लती कर रहे हैं. लालटेन तो प्रतीक है. सामाजिक संघर्ष का प्रतीक. वंचित तबके के मान, शान और स्वाभिमान प्रतीक बन चुका है लालटेन.
लालटेन से नीतीश जी की परेशानी और चिंता जायज़ है. क्योंकि यह उनके सामने चुनौती है. नीतीश जी ने जिन साम्प्रदायिक ताक़तों को देश से उखाड़ फेंकने का संकल्प लिया था, पुनः उन्हीं के साथ जा कर मिल गए. अब इन्हीं के नेतृत्व में वही ताक़तें अपना पैर बिहार में फैलाती जा रही है. जिन नरेंद्र मोदी की राजनीति को वे साम्प्रदायिक घृणा और नफ़रत पर आधारित मानते थे, आज उन्हीं की आरती उतारने में मशगूल हैं.
लेकिन लालटेन तो उसी रास्ते पर है. उन्हीं ताक़तों को उखाड़ फेकने में लगा हुआ है. देश के लिए तथा पिछड़े, अति पिछड़े, दलित, आदिवासी और महिलाओं की मुक्ति के लिए इन्हीं ताक़तों को परास्त करना एक समय नीतीश जी ज़रूरी मानते थे. लेकिन इनके सामने डट नहीं पाए. कायरता दिखाई. देश को जिनसे मुक्त कराने का संकल्प लिया था, उन्हीं के सामने समर्पण कर दिया ! पर लालटेन तो अपनी जगह पर डटा हुआ है. हम उन्हीं ताक़तों के साथ संघर्ष में जुटे हुए हैं. इसलिए जबतक उन ताक़तों को परास्त नहीं कर दिया जाता तबतक लालटेन की ज़रूरत तो बनी ही रहेगी !