ई एम एस नम्बूदरीपाद, हरकिशन सिंह सुरजीत, ज्योति बसु, सोमनाथ चटर्जी, ए बी बर्धन आदि जैसे शक्तिस्तंभों वाली वामपंथी पार्टियों को अब अपना वजूद बचाए रखने के लिए कन्हैया कुमार का सहारा है।समय के अनुसार खुद को अपडेट नहीं करने वाली इन पार्टियों के लिए वजूद का संकट आ गया है ये बात कोई वामपंथी मानने को तैयार नहीं। इसकी सबसे बड़ी वजह ये है कि आज भी वामपंथ को मानने या सपोर्ट करने वालों की संख्यां कम नहीं है। और वे समाज के हर क्षेत्र में हैं। खेत में काम करने वालों में और साहित्य सिनेमा में। हर जगह हैं। अगर कहीं नहीं हैं तो वोट देने वालों की कतारों में नहीं हैं। वे संगठित मजदूर हैं, संगठित मीडियाकर्मी हैं, वे संगठित नौकरशाह भी हो सकते हैं पर संगठित मतदाता नहीं हैं। वे समय और परिस्थितियों के अनुसार वोट डालते हैं। लगता है वे भूल चुके हैं वामपंथ सिर्फ एक विचारधारा या आंदोलन का नाम नहीं बल्कि ये राजनीतिक पार्टी का भी नाम है। और हर राजनीतिक पार्टी को जिंदा रहने के लिए वोटों की जरुरत होती है।
ऐसा नहीं कि वामपंथी दलों में सैद्धांतिक बदलाव नहीं आया। लेकिन ये मामुली बदलाव आंदोलन के मूल सिद्धांतों के खिलाफ रहा। पूंजीवाद के विरोध और सामाजिक-आर्थिक समानता की बुनियाद पर खड़ी पार्टी की सरकार जब टाटा के समर्थन में बंगाल में किसानो पर डंडे बरसाने लगे तो साफ लगने लगा कि वामपंथियों ने अब सियासी तौर पर ‘प्रैक्टिकल’ होने का मन बना लिया है। वैसे भी पुरानी बातें करने वाले पुराने लोग रहे नहीं और नए लोग नई सोच के आधार पर पार्टी को आगे बढ़ाना चाहते हैं। पश्चिम बंगाल और त्रिपुरा से बाहर हो जाने के बाद इस ‘नई सोच’ पर ज्यादा जोर दिया जाने लगा। और पार्टी के बुजुर्ग नेताओं को जेएनयू के कन्हैया कुमार में उस नई सोच का भंडार दिखा। वरना, वामपंथी नीतियों के अनुसार कन्हैया की अब तक की उपलब्धि क्या है सिवाय मोदी विरोध के। सच कहा जाए तो कन्हैया की एकमात्र उपलब्धि मोदी और भाजपा को सीधी भाषा में गरियाना था। उस भाषा में जिस भाषा का असर जनता पर जल्दी पड़ता है। यही कन्हैया की यूएसपी है। और यही वजह है कि कन्हैया का इस्तेमाल वामपंथी दलों ने नहीं, दूसरे विपक्षी दलों ने ज्यादा किया।
तो क्या अब वामपंथ का मतलब सिर्फ मोदी–भाजपा रह गया है ? अगर हां तो वामपंथी विचारधारा या आंदोलन का अंत निकट है क्योंकि मोदी-भाजपा विरोध के एकमात्र सिद्धांत पर तो दर्जनों पार्टियां पहले से मौजूद हैं, संसाधनो से भरपूर। ऐसे में बेचारी गरीब भाकपा, माकपा, आरएसपी और फॉरवर्ड ब्लॉक कहां टिकने वाली। दरअसल, गैरविपक्षी दलों ने कन्हैया की मदद से अपनी दुकाने चमकाईं और जब बिहार के बेगुसराय में कन्हैया को कुछ देने की बारी आई तब सबने मुंह फेर लिए। गरीब और गुरबों का दंभ भरने वाले राष्ट्रीय जनता दल ने भी कन्हैया के खिलाफ अपना उम्मीदवार खड़ा कर दिया। अति महत्वाकांक्षी, सेमी-लिटरेट तेजस्वी यादव को लगा कि अगर कन्हैया नेता बन गया तो वह बिहार में तेजस्वी से बड़ा नेता बन जाएगा क्योंकि तेजस्वी की तरह कन्हैया को राजनीति विरासत में नहीं मिली है बल्कि वह ‘सेल्फमेड’ है।
बेगुसराय में कन्हैया जीतेगा या नहीं, ये कहना मुश्किल है। पर मैं इतना जरुर कह सकता हूं कि वह एक ‘ओवररेटेड’ उम्मीदवार है। जेएनयू में कन्हैया की लड़ाई बिल्कुल स्थानीय थी। समाज और राष्ट्र से इसका प्रत्यक्ष सम्बंध नहीं था। वह उन कथित पीड़ितों के लिए लड़ रहा था जिनमें से एक वह खुद था। यानि वह अपनी लड़ाई लड़ रहा था। विपक्ष, खासकर कांग्रेस को कन्हैया में वो तिनका दिखा जो उन्हें डूबने से बचा सके। तिनका तो तिनका होता है अलबत्ता कांग्रेस ने भी कन्हैया के लिए अपने पार्टनर आरजेडी से कोई पैरबी नहीं की। इस तरह बेगुसराय में विपक्षी एकता की अर्थी निकल गई और कन्हैया अलग थलग पड़ गए। ट्वीटर और फेसबुक से चुनाव नहीं जीता जा सकता है, कम से कम बिहार में तो कतई नहीं। जावेद अख्तर और स्वरा भाष्कर जैसी फिल्मी हस्तियां सोशल मीडिया पर कन्हैया की रेटिंग तो बढ़ा सकतीं हैं पर वोट दिला पाएंगी, इसमें संदेह है। पर वामपंथी इसे भी अपनी जीत मान इठला रहे हैं।