भारतीय राजनीति में जितना महत्व वोटों का है उससे ज्यादा महत्व नोटों का है। पिछले दो-तीन दशक में राजनीति सिर्फ पैसों के बल पर होने लगी है। हालांकि ऐसा नहीं है कि आपके पास बहुत पैसा है तो आप सफल राजनेता हो जाएंगे लेकिन अगर आपके पास पर्याप्त पैसा नहीं है तो आप राजनेता जरुर नहीं बन पाएंगे। समय समय पर चुनाव आयोग ने अपने तरीके से बंदिशें लगाने की कोशिश की है लेकिन राजनीतिक दलों ने इसकी काट खोज ली और पैसा चुनाव में पानी की तरह हमेशा बहा।
हमारा देश सालों भर चुनाव के मोड में रहता है। इन दिनों पंजाब और उत्तर प्रदेश में चुनाव को लेकर सरगर्मियां तेज हैँ। और इसी बीच सरकार ने मौजूदा 1000 और 500 के नोट रद्द करने का ऐलान कर दिया है। 8 नवंबर की देर शाम प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के इस ऐलान के बाद अगले चौबीस घंटे तक तो कई राजनेताओँ को जैसे सांप सूंघ गया। आवाज एकबारगी बंद सी हो गई हो जैसे। फिर धीरे-धीरे इस पूरे मामले से अपने मद में हुए नफा-नुकसान का जायजा लेने के बाद विभिन्न राजनैतिक पार्टियों ने अपने अपने सुर छेड़ने शुरु किए।
भारतीय राजनीति में कालाधन के इस्तेमाल को लेकर राजनैतिक पार्टियां खुद को चाहे कितना भी पाक साफ बताने की कोशिश करें लेकिन उनकी हकीकत देश को मालूम है। कमोबेश सबकी हालात एक जैसी है। लेकिन दक्षिण में जयललिता और उत्तर प्रदेश में मायावती ने जिस तरीके से राजनीति में पैसा का खुला खेल खेला वैसा इतिहास में शायद ही हुआ हो। हम सब जानते हैं कि चुनाव में लगभग सभी पार्टियां ठीक ठाक तादाद में पैसे लेकर उम्मीदवार बनाती है। यह पैसा कितना होता है इसका सहज अनुमान लगाना मुश्किल है क्यूंकि ऐसे मौके पर बोली लगते भी देखा गया है।
पैसे के इस खेल को मायावती ने एक अलग रंग और सिस्टम दिया। मायावती ने अपने जन्मदिन पर गिफ्ट के तौर पर खुलेआम पैसा लेना शुरु किया और एक किस्म से यहीं उम्मीदवारी की दावेदारी भी होने लगी । मायावती जब-जब सत्ता में आई सरकारी खजाने से खुद को, अपनी पार्टी को और अपने रहनुमाओं को अमर बनाने में सरकारी तिजोरी लुटाती रही और लाल-पीले नोट की शक्ल में कालाधन खुद के लिए जुटाती रहीं। एक वक्त ऐसा आया जब माना जाने लगा कि जीते हुए विधायक भी अपनी सीट अगली बार पक्की रखवाने के लिए चढ़ावा चढ़ाते रहे। नोटों की लंबी लंबी मालाओं से खुद को सुसज्जित कराने वाली मायावती बहुजन समाज की बात करते करते लोकतंत्र की राहजनी पर उतर आईँ। हालांकि उनकी विरोधी पार्टियों ने ऐसा नहीं किया हो ऐसी बात नहीं है लेकिन मायावती का खेल जरा खुल्लम खुल्ला होने लगा। अब फिर चुनाव सिर पर है और उनकी फिर से सत्ता पाने की ललक को चुनौती देने वाली एक प्रमुख पार्टी बीजेपी के प्रधानमंत्री ने उनके इस खेल पर पानी फेर दिया हो जैसे। तभी तो मायावती ने 500 और 1000 रुपए के नोट बंद किए जाने पर कहा, “बीजेपी ने अपना इंतजाम कर लिया तो देश में इकोनॉमिक इमरजेंसी लगा दी। अगर सही में कालेधन-भ्रष्टाचार पर अंकुश लगाना चाहते तो ढाई साल तक इंतजार न करते।” इस बयान में ही मायावती का दर्द और उनकी राजनीति समाहित है। उनके इस बयान से साफ होता है कि चुनाव में पैसों का खेल होता है जो अब नहीं होगा, या वो मन लायक नहीं कर पाएंगी। बीजेपी ने अपना इंतजाम कर लिया ऐसा बयान है जिससे साफ होता है कि राजनीति में यही हो रहा था सिर्फ पैसे का खेल। चुनाव के बाद ऐसा हो सकता है कि लोग मायावती के लिए यह कहते नजर आएं कि माया मिली न राम।
दूसरी तरफ उत्तर प्रदेश की सत्ताधारी समाजवादी पार्टी के मुखिया मुलायम सिंह भी इस नोट रद्द करने के फैसले को कुछ इसी तरह देखते हैँ। मुलायम सिंह का मानना है कि नरेंद्र मोदी ने बिना जेल भेजे सबको नजरबंद कर दिया है । यह बयान ही भारतीय राजनीति का स्वरुप दिखाने के लिए पर्याप्त है। हालांकि मुलायम ने अपने बड़े वोट बैंक महिलाओँ ( महिलाओं के लिए प्रदेश सरकार ने कई योजनाएं लागू की हैं) को रिझाने के लिए कहा कि जो पैसे महिलाएं घर में दबा-छुपा कर रखती है उसको खाते में जमा करने की सीमा बढ़ा कर कम से कम पांच लाख की जाऩी चाहिए। मुलायम चाहते हैं कि एक तो महिलाएं उनके समर्थन में खड़ी हों और दूसरी उसी रास्ते अपने चुनावी खर्च का निपटारा भी कर लिया जाए। साथ ही मुलायम ने जनता की परेशानी का हवाला देते हुए कहा कि थोड़े दिनोें के लिए सरकार को यह फैसला वापस लेना चाहिए।
साफ है समाजवाद और बहुजन हित की बात करने वाली पार्टियों का वोट भी नोट पर टिका है। ऐसे में अगर तृणमूल कांग्रेस प्रमुख और बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी ने केंद्र सरकार के इस फैसले की आलोचना की तो आश्चर्य में पड़ने की जरुरत नहीं। जाहिर है केंद्र सरकार के इस फैसले से आम लोगों की दिनचर्या प्रभावित हुई है, परेशानियों का सामना करना पड़ रहा है और वो इसलिए कि जिन दो नोटों को सरकार ने रद्द किया वो देश की अर्थव्यवस्था में छयासी फीसद हिस्सा रखते थे। ऐसे में अचानक 14 फीसद इकॉनोमी के साथ देश को चलने में कठिनाइयां हो रही है। होना यह चाहिए कि इन विपक्षी पार्टियों को आम इंसान को होने वाली समस्याओँ को ध्यान में रखकर केंद्र सरकार पर कुछ दबाव बनाना चाहिए कि उससे आम लोगों को कम से कम परेशानी हो लेकिन नोट के सहारे वोट की राजनीति करने वाली पार्टियां इस वक्त भी अपने वोट के लिए नोट इकट्ठा करने के जुगाड़ में लगी है। यह लोकतंत्र के लिए शुभ संकेत नहीं।