अर्णब गोस्वामी, बस नाम ही काफी है। यही कहा जा सकता है और यही कहा भी जाना चाहिए इस शख्स के बारे में। अंग्रेजी न्यूज चैनल को हिन्दी भाषी समाज के दिल में जगह दिला देना न तो कोई इत्तेफाक है और ना ही कोई हंसी ठट्ठा का खेल। किसी पत्रकार के लिए टाइम्स नाउ चैनल का पर्याय बन जाना भी आसान नहीं रहा होगा। जब अर्णब के इस्तीफे की खबर आई तो मैं जायजा लेने के लिए सोशल मीडिया पर गया । फेसबुक पर हर दूसरी पोस्ट अर्णब से जुड़ी हुई थी और रात को नौ बजे जब अर्णब का न्यूज आवर शुरु हुआ तो हैशटैग #ArnabGoswami ट्वीटर पर सबसे उपर ट्रेंड कर रहा था। जिस शो की लगभग हर बड़ी खबर ट्वीटर पर ट्रेंड करती हो उस शो के होस्ट का इस्तीफा नहीं ट्रेंड करता तो खबर हो सकती थी । फिर भी ज़िक्र करना इसलिए जरुरी है कि सोशल मीडिया पर जिस तरीके से प्रतिक्रयाएं आई इसपर इतना ही कहा जा सकता है कि Either you hate Aranb or Love Arnab, you cant ignore Arnab.
अर्णब की लोकप्रियता का आलम और संस्थान से बड़ा बन जाने का परिणाम है कि बीबीसी जैसी संस्था अर्णब पर एक रिपोर्ट लिखती है। हालांकि वो हंसी उड़ाते हुए रिपोर्ट लिखती है लेकिन जिन वक्तव्यों को आधार बना कर रिपोर्ट लिखी गई उसमें से कोई भी ऐसा वक्तव्य नहीं है जिसका ज़िक्र होना चाहिए। तमाम फर्जी ट्वीटर एकाउंट से ट्वीट किए गए बातों के आधार पर खबर लिखना निहायत ही बचकाना है। लगातार गिर रही अपनी साख पर इस खबर से बीबीसी ने बट्टा ही लगाया है। जो सिमी के आतंकवादियों को तथाकथित कार्यकर्ता कहता हो उस संस्था से हम यही उम्मीद कर सकते हैं।
जब साल 2006 में टाइम्स ग्रुप ने टाइम्स नाऊ की शुरुआत की और अर्णब एनडीटीवी छोड़ कर यहां आए तो लोगों में न तो इतना उत्साह था और न हीं ऐसी उम्मीद कि यह चैनल और यह पत्रकार देश का सबसे मशहूर और लोकप्रिय चेहरा बन जाएगा। इसके एक साल पहले 2005 में ही एनडीटीवी छोड़ कर राजदीप ने सीएनएन का दामन थामा था और मालिकाना हक के साथ वेंचर शुरु किया था। एनडीटीवी में रहते हुए राजदीप अर्णब से काफी आगे थे। समय के साथ राजदीप पीछे छूटते गए, वजह रही बेबाकी और निस्संदेह पत्रकारीय निष्ठा। इधर अर्णब को ग्रुप ने खुली छूट दी और वो कमाल करते गए उधर राजदीप पर राघव बहल और नीरा राडिया का शिकंजा बढ़ता गया और वो धीरे धीरे अपनी चमक खोते गए।
कई मौकों पर हम अर्णब से भी सहमत नहीं हो पाते हैं और इसकी छूट इस लोकतंत्र में होनी चाहिए लेकिन इसका कतई मतलब नहीं कि बिलालवजह शिकायत की जाए। अर्णब की बेबाकी ने ही उन्हें लोकप्रियता के शिखर पर पहुंचाया है। हमने अक्सर देखा कि जिस शो में किसी गेस्ट की लगभग बेइज्जती जैसी खिंचाई होती हो और वो मेहमान बनकर फिर दोबारा उस कार्यक्रम में आने को लालायित रहता हो तो जाहिर सी बात है कि उस शो की लोकप्रियता चरम पर है। जितने जोक्स अर्णब पर बने होंगे शायद उससे ज्यादा सिर्फ संता-बंता पर ही हों। डिजिटल माध्यम में अलग अलग तरह से जितनी खिंचाई अर्णब की हुई होगी शायद उतना किसी हिट मूवी का ट्रेलर नहीं देखा जाता हो। मतलब साफ है कि अर्णब मौजूदा टेलीविजन न्यूज के दौर में एक किवदंती बन गए।
हमने ऐसे ऐसे लोगों को अर्णब का शो देखते हुए देखा है जिसका अंग्रेजी का ज्ञान यस और नो तक ही सीमित होगा लेकिन पैनल में मौजूद लोगों की भाव-भंगिमाएं देखकर वो इतना अंदाजा लगा लेते थे कि अर्णब किसकी खिंचाई कर रहे हैं। इधर कुछ समय से अर्णब पर तरह तरह के आरोप लगाए जाने लगे। अपने दो दशक के अनुभव में हमने देखा है कि जो जीवन में कुछ नहीं कर पाते उनको अक्सर दूसरा व्यक्ति दलाल नजर आता है। खुद को मिला बार-बार का मौका गंवाने वाला समुदाय अर्णब के पीछे पड़ गया। एक वक्त था जब कई बड़े पत्रकारों की गाड़ियां सीधे 10 जनपथ बिना रोकटोक जाती थी । लेकिन जब अर्णब ने प्रधानमंत्री मोदी का पहला टीवी इंटरव्यू कर डाला तो कईयों के मुंह लाल हो गए। कईयों को लगा कि सालों से चापलूसी तो हम कर रहे थे, इंटरव्यू अर्णब को कैसे मिल गया। फिर नुक्ताचीनी शुरु हुई , ये सवाल नहीं पूछा वो सवाल नहीं पूछा वगैरह वगैरह। तब भी हमने लिखा था जो सवाल अर्णब से नहीं पूछा गया वो सवाल, सवाल खड़ा करने वालों को पूछ लेना चाहिए।
इधर कुछ समय से कुछ ऐसी घटनाएं घटी जो अर्णब के लिए चिंता का विषय थीं। कुछ तो वजह रही होगी कि चैनल का पर्याय बने चुके अर्णब को जाना पड़ा। निस्संदेह इस प्रतिभावान पत्रकार को चिंता नहीं होगी लेकिन इसका आकलन भी जरुरी है। क्या ऐसा हो सकता है कि सरकार की अच्छी नीतियों को तारीफ करने का भी खामियाजा अर्णब को भुगतना पड़ा? ऐसे ही आरोप तो उनपर इन दिनों लग रहे थे।उन्हें सत्ता का साथी कहा गया। पत्रकारिता में एक धड़ा ऐसा है जो हमेशा सत्ता के खिलाफ बोलना चाहता है और साथ ही उसकी चाशनी में डूबना भी चाहता है। मेरी नजर में अर्णब ने इससे परहेज किया, जब सही लगा साथ दिया और जब गलत लगा विरोध किया, और यही वजह रही कि अर्णब की लोकप्रियता बढ़ती गई, और ग्रुप को शायद उससे परेशानी होने लगी । दर्शक टाइम्स नाऊ को अर्णब का चैनल समझने लगे। पिछले दिनों की दो घटनाएं आपलोगों को याद दिलाता हूं, तीन तलाक के मामले पर एक गेस्ट को स्टूडियो से बाहर करना और एक दिन जेडीयू के प्रवक्ता पवन वर्मा का बार बार यह कहना कि यह टाइम्स का चैनल नहीं अर्णब का चैनल है। कुल मिलाकर अर्णब का कद इतना बड़ा हो जाना ग्रुप को नहीं पचा शायद।
आज सुबह जब हमारी फोन पर बात हुई तो बातचीत में बिल्कुल बिंदास थे अर्णब कहा कि सब अच्छा होगा जाहिर है कुछ न कुछ सोच रखा होगा। उनके दोस्तों के अनुसार अर्णब की चाहत है कि इस देश में मीडिया को मिले आजादी। कन्हैया वाली नहीं … देश की जरुरत वाली। अंत में दोस्त मनीष झा का ट्वीट शेयर करता हूं – Times Now will become Times Never, Without Arnab.