बिहार के सीवान जिले में आतंक का पर्याय रहे पूर्व सांसद की रिहाई ने कुछ मौलिक सवाल खड़े किए हैं। सवाल यह कि सांप्रदायिकता विरोध के नाम पर सेक्युलरवाद की गोलबंदी क्या इस हद तक होनी चाहिए कि आतंक के आका तक को सांप्रदायिकता विरोध का चेहरा बनाया जा सके। बिहार की मौजूदा राजनीति के बहाने यह भी सवाल उठ रहा है कि अपराधीकरण का महिमा मंडन भी क्या सेक्युलर राजनीति की जरूरत है। 11 साल बाद जेल से रिहा होने के बाद घोषित अपराधी शहाबुद्दीन का जिस तरह स्वागत हुआ, भागलपुर से सीवान तक के रास्ते में 1300 गाड़ियों का काफिला बिना किसी रोकटोक के दौड़ा। हालात यह रहे कि पुलिस ने इलाके में पड़ने वाले सभी टोल बूथों को इस काफिले से कोई भी फीस ना लेने का आदेश दिया। वैसे पुलिस ऐसा आदेश देती भी नहीं तो किसी भी टोल टैक्स ठेकेदार की हिम्मत नहीं थी कि इस काफिले से टोल फीस ले लेता।
बिहार के सुशासन बाबू के नाम से विख्यात नीतीश कुमार ने सिर्फ एक फोटो के चलते मौजूदा प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी से किनारा करना शुरू कर दिया था। वह फोटो 2004 के आम चुनावों के वक्त पंजाब की एक रैली में लिया गया था। जिसमें मोदी और नीतीश ने हाथ मिला रखे थे। लेकिन उसी नीतीश कुमार के फोटो के साथ शहाबुद्दीन का स्वागत किया गया और सुशासन बाबू चुप रहे। अब यह भी सवाल उठ रहा है कि जो नीतीश कुमार देश की राजनीति में लगातार तेजी से उभर रहे नरेंद्र मोदी की ताकत को समझने के बावजूद चुनौती दे सकते थे, वे नीतीश ही अब क्यों चुप हैं। क्या वे अब इतने मजबूर हो गए हैं कि अपने सहयोगी लालू यादव की पार्टी के सामने उन्हें घुटने टेकने पड़ रहे हैं। इन सवालों का जवाब बिहार तो मांग ही रहा है, वक्त आने पर इन सवालों के जवाबों की जब खोज होगी तो अतीत के सबक तो यही बताते हैं कि कम से कम नीतीश के लिए नतीजे सही नहीं होंगे। वैसे तो उनके सुशासन बाबू की छवि में पहली दरार तो शहाबुद्दीन की रिहाई ने डाल ही दी है।
शहाबुद्दीन की रिहाई को बेशक नीतीश कुमार अदालती फैसला बता सकते हैं, लेकिन उनके लिए बिहार की राजनीति और शांतिप्रेमी जनता को यह समझाना आसान नहीं होगा। जब उनका ही प्रशासन मोकामा के बाहुबली विधायक अनंत सिंह की बाहें लगातार मरोड़ रहा हो और उसी दौर में शहाबुद्दीन रिहा हो जाएं तो सवाल उठेंगे। अब बिहार के विपक्ष को यह प्रचारित करने का मौका मिल जाएगा कि चूंकि विधानसभा चुनावों में बिहार के भूमिहारों ने जदयू-आरजेडी गठबंधन को वोट नहीं दिया, लिहाजा उनकी जमात के अनंत कुमार की बाहें मरोड़ी जा रही हैं। लालू यादव 1996 से लगातार नीतीश के निशाने पर रहे। 2005 में तो नीतीश ने लालू की सत्ता को उखाड़ फेंका। माना जा रहा है कि लालू ने परिस्थिति वश भले ही नीतीश का साथ मंजूर कर लिया, लेकिन वे अंदर से नीतीश के हमले को भुला नहीं पाए। उन्होंने अपनी सियासी चाल से ऐसा माहौल बनाया कि नीतीश को झुकना पड़ा और शहाबुद्दीन को जेल से बाहर निकालने में कामयाब रहे। बाहर निकले शहाबुद्दीन का जिस तरह आरजेडी ने स्वागत कराया है, उसके संकेत साफ हैं कि शहाबुद्दीन के बहाने लालू एक बार फिर मुस्लिम वोट बैंक को अपने साथ थोक के भाव गोलबंद करना चाहते हैं। अतीत में मुस्लिम-यादव यानी माई गठबंधन के सहारे बिहार की गद्दी पर वे कायम रहे हैं। एक बार फिर वे उसी समीकरण को साधने में जुटे हैं। लेकिन ऐसा करते वक्त वे भूल रहे हैं कि अब नौजवानों की एक ऐसी पीढ़ी तैयार हो चुकी है, जिसे अपराधीकरण से सख्त नफरत है। सोशल मीडिया पर शहाबुद्दीन की रिहाई के बाद जिस तरह सवाल उठे हैं, उससे लालू को नुकसान ही होना है। बहरहाल ये तो लंबे वक्त की बातें है, लेकिन एक बात तय है कि बिहार में इसी बहाने सुशासन की गति अगर धीमी हो जाए, क्योंकि प्रशासन का भी मनोबल कमजोर होगा तो हैरत नहीं होनी चाहिए।
बिहार के सुशासन बाबू के नाम से विख्यात नीतीश कुमार ने सिर्फ एक फोटो के चलते मौजूदा प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी से किनारा करना शुरू कर दिया था। वह फोटो 2004 के आम चुनावों के वक्त पंजाब की एक रैली में लिया गया था। जिसमें मोदी और नीतीश ने हाथ मिला रखे थे। लेकिन उसी नीतीश कुमार के फोटो के साथ शहाबुद्दीन का स्वागत किया गया और सुशासन बाबू चुप रहे। अब यह भी सवाल उठ रहा है कि जो नीतीश कुमार देश की राजनीति में लगातार तेजी से उभर रहे नरेंद्र मोदी की ताकत को समझने के बावजूद चुनौती दे सकते थे, वे नीतीश ही अब क्यों चुप हैं। क्या वे अब इतने मजबूर हो गए हैं कि अपने सहयोगी लालू यादव की पार्टी के सामने उन्हें घुटने टेकने पड़ रहे हैं। इन सवालों का जवाब बिहार तो मांग ही रहा है, वक्त आने पर इन सवालों के जवाबों की जब खोज होगी तो अतीत के सबक तो यही बताते हैं कि कम से कम नीतीश के लिए नतीजे सही नहीं होंगे। वैसे तो उनके सुशासन बाबू की छवि में पहली दरार तो शहाबुद्दीन की रिहाई ने डाल ही दी है।
शहाबुद्दीन की रिहाई को बेशक नीतीश कुमार अदालती फैसला बता सकते हैं, लेकिन उनके लिए बिहार की राजनीति और शांतिप्रेमी जनता को यह समझाना आसान नहीं होगा। जब उनका ही प्रशासन मोकामा के बाहुबली विधायक अनंत सिंह की बाहें लगातार मरोड़ रहा हो और उसी दौर में शहाबुद्दीन रिहा हो जाएं तो सवाल उठेंगे। अब बिहार के विपक्ष को यह प्रचारित करने का मौका मिल जाएगा कि चूंकि विधानसभा चुनावों में बिहार के भूमिहारों ने जदयू-आरजेडी गठबंधन को वोट नहीं दिया, लिहाजा उनकी जमात के अनंत कुमार की बाहें मरोड़ी जा रही हैं। लालू यादव 1996 से लगातार नीतीश के निशाने पर रहे। 2005 में तो नीतीश ने लालू की सत्ता को उखाड़ फेंका। माना जा रहा है कि लालू ने परिस्थिति वश भले ही नीतीश का साथ मंजूर कर लिया, लेकिन वे अंदर से नीतीश के हमले को भुला नहीं पाए। उन्होंने अपनी सियासी चाल से ऐसा माहौल बनाया कि नीतीश को झुकना पड़ा और शहाबुद्दीन को जेल से बाहर निकालने में कामयाब रहे। बाहर निकले शहाबुद्दीन का जिस तरह आरजेडी ने स्वागत कराया है, उसके संकेत साफ हैं कि शहाबुद्दीन के बहाने लालू एक बार फिर मुस्लिम वोट बैंक को अपने साथ थोक के भाव गोलबंद करना चाहते हैं। अतीत में मुस्लिम-यादव यानी माई गठबंधन के सहारे बिहार की गद्दी पर वे कायम रहे हैं। एक बार फिर वे उसी समीकरण को साधने में जुटे हैं। लेकिन ऐसा करते वक्त वे भूल रहे हैं कि अब नौजवानों की एक ऐसी पीढ़ी तैयार हो चुकी है, जिसे अपराधीकरण से सख्त नफरत है। सोशल मीडिया पर शहाबुद्दीन की रिहाई के बाद जिस तरह सवाल उठे हैं, उससे लालू को नुकसान ही होना है। बहरहाल ये तो लंबे वक्त की बातें है, लेकिन एक बात तय है कि बिहार में इसी बहाने सुशासन की गति अगर धीमी हो जाए, क्योंकि प्रशासन का भी मनोबल कमजोर होगा तो हैरत नहीं होनी चाहिए।