अयोध्या : 1990 – कार्तिक पूर्णिमा: हमारे सामने हुई थीं हत्याएं
जो बात उत्तर प्रदेश के पूर्व मुख्य मंत्री मुलायम सिंह यादव नें 26 बरस बाद कुबूल की उससे सारी दुनिया तभी से वाकिफ है जब नवंबर 1990 में कार्तिक पूर्णिमा के दिन निरीह कारसेवकों को, जो राम धुन गा रहे थे, विशेष रूप से तैनात किए गए अर्धसैनिक बल के जवानों ने गोलियों से भून कर रख दिया था. जी हां उस दौरान जो मुठ्ठी भर मीडिया मौजूद था, उसकी आंखों के सामने राम भक्तों का संहार किया गया था. बीबीसी के एक गोरे संवाददाता के साथ मैंने खुद 18 लाशें गिनी थीं.
मुलायम की यह स्वीकारोक्ति ऐसे समय आयी है जब चंद महीनों बाद उत्तर प्रदेश विधान सभा के चुनाव होने वाले हैं. तत्कालीन मुख्यमंत्री मुलायम सिंह जी का यह कहना कि यदि गोली नहीं चलवाता तो मुसलमानों का हम पर विश्वास टूट जाता, क्षुद्र वोट बैंक का एक शर्मनाक उदाहरण है. वह यह जताना चाह रहे हैं मुस्लिमों को कि हम ही है आपके असली खैरख्वाह. जबकि सच तो यह है कि नेताजी के इस कुकृत्य ने देश को दंगों की आग में झुलसा कर रख दिया था . सैकड़ों मासूम तब दंगों में मारे गए थे और जिसकी परिणति 1992 में विवादित ढांचे के ध्वंस से हुई थी. हजारों जाने गयी थीं इस दौरान और साम्प्रदायिक सौहार्द तब निम्नतम धरातल पर पहुंच चुका था.
मुझे आज भी वह दिन याद है जब जागरण के मालिक सम्पादक नरेंद्र मोहन जी ( अब स्वर्गीय ) का शाम को फोन आया था. ” पदम पत तुमने ‘आज’ अखबार का आगरा संस्करण देखा ? ऐसी खबरें लगी हैं कि अन्य किसी अखबार के बंडल तक नहीं खुले. अब आप आगे से लीड करो और अयोध्या जाओ. 31 अक्तूबर को कार सेवा है.” मोहन बाबू के आदेश का पालन करना ही था. मेरी टीम में मुख्य नगर संवाददाता आशीष बागची, छायाकार द्वय विजय सिंह और अरविंद सिंह ( कुछ महीने पहले अरविंद का निधन हो गया ) शामिल थे. कार से पहुंचे लखनऊ. वहां पास बना और फिर कारवां चला अयोध्या की ओर. खास बात यह कि सरकारी आतंक का यह आलम था कि बनारस से लखनऊ और लखनऊ से अयोध्या के बीच पूरे रास्ते भर ट्रैफिक के नाम पर सिर्फ हमारी फियेट कार ही दौड़ रही थी. नेताजी मुलायम सिंह ने दावा कर रखा था कि परिंदा भी अयोध्या में पर नहीं मार सकता. सूनी सड़कें इसे साबित कर भी रही थीं. राम नगरी में भी मानो मार्शल ला लगा हो. हर गली मकान सब सील…कार सेवकों का नामों निशान तक नहीं.
खैर, 31 अक्तूबर की सुबह हमारी टीम पहुंची हनुमान गढ़ी के चौराहे पर. वहां लाइन से दर्जनों रोडवेज की बसें खड़ी कर दी गयी थीं ताकि कारसेवको कों गिरफ्तार कर फैजाबाद जेल लाया जा सके. लेकिन यही सरकारी चूक ही जान – ए – बवाल हो गयी जब बनारस का एक जत्था राजू और सहस्त्रबुद्धे की अगुवाई में हनुमान गढ़ी पहुंचा और पुलिस ने उनको हिरासत में ले लिया. दरअसल यह जत्था सुविचारित रणनीति के तहत आया था. उनमें कइयों की जेब में सुआ था. बसों के टायर पंचर कर दिए गए और मुलायम की रणनीति तार तार…पंचर बसें टस से मस नहीं हो सकती थी. उधर टिड्डियों की माफिक कोने कोने से निकलते कार सेवक खुद ही गिरफ्तारी देकर बस में बैठते और फिर राम जन्मभूमि के रास्ते बढ जाते. देखते ही देखते हजारों की संख्या में कारसेवक जा पहुंचे राम जन्म भूमि और टूट गए ताले. प्रदेश के पूर्व डीजीपी विश्व हिंदू परिषद के उपाध्यक्ष श्रीश चंद्र द्विवेदी के नेतृत्व में कारसेवक प्रवेश कर गये मंदिर में और वहां हमारी आंखों के सामने प्रतीकात्मक कार सेवा हुई.
इस घटना ने मुलायम सरकार के होश उड़ा दिए. अगले दिन तूफान आने के पहले की शांति थी. रात्रि में सरयू पुल के पास हम थे कि खबर लगी अगले दिन के कत्लेआम की. पता चला था कि सुबह कार सेवा को रोकने के लिए जाति और समुदाय विशेष के अधिकारियों की तैनाती की गयी है जो निहत्थों पर गोली चलाएंगे. हम लोगों ने अर्धरात्रि जागरण को यह खबर फैक्स कर दी. दुर्भाग्यवश हमारी आशंका सच निकली.
सुबह होटल से निकल कर हम सीधे महंत रामचंद्र दास के अखाड़े पहुंचे. वहां शहीद कोठारी बंधुओं ने हमारी टीम को घुघरी जलेबी का नाश्ता कराया. हमने उनको आज के बारे में आगाह जब किया तब दोनों एक साथ बोले, ” सर, हम राम काज के लिए आएं हैं. जान भी चली जाए तो परवाह नहीं. एक घंटे बाद वही तो हुआ.
हम छावनी से निकल कर हनुमान गढ़ी के चौराहे पर स्थित एक मंजिला मकान की छत पर चढ़ गए. कुछ देरी बाद शायद दस बजे का समय रहा होगा. उमा भारती जी की अगुवाई में सैकड़ों की तादाद में एक जत्था आया और जिसे चौराहे पर ही सशस्त्र बलों में रोक दिया. कार सेवक वहीं बैठ कर राम घुन गाने लगे. तभी पीछे से एक ढेला आया जो साजिशन फेंका गया था. बस फिर क्या था जवाब में घड़ाधड़ आंसू गैस के गोले छोड़े जाने लगे. हमारी आंखें बंद हो जा रही थीं. तभी हमें तड़ातड़ गोलियों की आवाज सुनायी दी और चंद मिनटों बाद जब हम देखने लायक हुए लगभग दस मीटर की दूरी पर कोठारी बंधुओं सहित 17 लाशें पड़ी मिलीं. एक कोई सेना के रिटायर मेजर साहब थे जोधपुर के. उनको दर्जनों गोलियां लगी थीं. वे तब जीवित थे. कमर से पिस्टल निकाल कर हमें दी कि यह जमा करा दी जाए और फिर दम तोड़ दिया. ढोल बजाते मस्ती में चलने वाले कोठारी बंधु बेजान पड़े थे.
अयोध्या नगरी शायद ही पहले कभी इतनी शोक संतप्त हुई होगी. सैकड़ों मंदिरों के कपाट तक नहीं खुले. भगवान को भोग लगने का सवाल ही नहीं था.जिस कार्तिक पूर्णिमा के दिन सरयू में लाखों श्रद्धालु गोता लगाते थे, उस मनहूस दिन सरयू ने ही मानो रक्त स्नान किया हो. हम सभी व्यथित थे. जिसने भी दूरदर्शन पर यह खबर देखी होगी, उसने पाया होगा कि सशस्त्र बल के उस अधिकारी के साथ मैं किस कदर जूझता रहा था गली में प्रवेश के लिए और उसकी राइफल हटा कर हम कैसे गली में लाशों के बीच पहुंचे थे.
उस काली शाम जब हम अंधरापुल स्थित जागरण आफिस पहुंचे तब पाया हमने वहां एक बैरीकेड. पुलिस ने अखबार सील कर दिया था. प्रकाशन रद हो चुका था. हम पर मुकदमा कायम कर दिया गया था. सरकार का इरादा समाचार आम लोगों तक पहुंचने से रोकने का था. लेकिन पन्ने बाहर गए. सायक्लोस्टायल हुए और जनता सारा हाल जान गयी. दूसरे दिन हम कोतवाली पहुंचे जहां तत्कालीन डीएम सौरभ चंद्रा की जम कर लात मलामत की और मुख्य मंत्री के आदेश से हम सभी पर से मुकदमा उठा लिया गया. अंत में यह कहना चाहूंगा कि उस दिन जो हुआ, वह सरकार के इशारे पर और इसको नेताजी ने अंततः कुबूल कर ही लिया. हालांकि उनका बाल भी बांका नहीं होना, यह भी जानता हूं.
लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं और यह लेख उऩके फेसबुक वॉल से साभार लिया गया है