पद्मश्रियों का गांव- मधुबनी पेंटिंग की जमीन; गांव जितवारपुर,एक मिसाल
ताउम्र जी-जान से कोई लगा रहे और उसे कोई खास सम्मान मिल जाये तो जीने का मकसद पूरा मान लिया जाता है। खासकर जब किसी को उसके विशेष कार्य के लिए देश के स्तर का तमगा दिया जाये तो फिर कहना?हालांकि उपलब्धि किसी भी क्षेत्र के महारथी को मिले उस खास कला या काम में वो निपुण माना जाता है। और ऐसे लोग गिनती के होते हैं जिनकी पहचान इस तरह की होती है। पर आईये आज हम आपको एक ऐसे गांव में लिए चलते हैं जो अपने आप में इस देश का इकलौता गांव है। ये गांव है बिहार के सुदूर बाढ़-ग्रसित तिरहुत प्रमंडल क्षेत्र में,नाम है वाजितपुर। इससे पहले कि आपकी जिज्ञासा और ज्यादा बढ़ जाये पहले ही बता देना उचित होगा कि ये ऐसा गांव है जिसे अकेले तीन-तीन पद्मश्री पुरस्कार हासिल हो चुके हैं। बिहार के उपेक्षित-पीड़ित,पर कला के मामले में काफी धनी माना जानेवाला जिला है मधुबनी। इसी मधुबनी को ये गौरव हासिल है जिसकी चर्चा हम और आप कर रहे हैं।
सोचनेवाली बात है कि आखिर क्या कुछ खास है इस गांव में जो इस गांव को तीन-तीन राष्ट्रीय पुरस्कार दिए जा चुके हैं?
मधुबनी का मतलब मिथिला प्रदेश,यानि कि वो क्षेत्र जो तीन एम यानि कि माछ (मछली ) ,मखान और मिथिला कलाकारी के बिना जाना ही नहीं जाता। इन्ही तीन में से एक मधुबनी पेंटिंग की वजह से इस गांव को ये तीनो पद्मश्री पुरस्कार दिए गए हैं। जगदम्बा देवी और सीता देवी को पहले ही पद्मश्री से नवाजा जा चुका था,आधी दुनिया की एक और सख्शियत बौआ देवी को जब पद्मश्री देने की घोषणा हुयी तो ये यहाँ की तीसरी कलाकार में शुमार हो गयी और ख्याति हासिल कर ली। वाकई बेमिसाल है ये गांव जिसकी मिटटी में वो उर्वरा शक्ति है जो दूसरो से इसे अलहदा करती है।
यूँ तो पहले ही दो बार इस गांव को इस पुरस्कार हासिल करने का गौरव था पर 75 साला बौआ देवी का चयन एक बार फिर पद्मश्री के लिए हुआ तो अनायास ही लोगों की जुबान पर क्रिकेट की जगह मिथिला पेंटिंग का हैट्रिक शॉट का नाम आ गया। इसके पहले इसी गांव की जगदम्बा देवी और सीता देवी को भी पद्मश्री से नवाजा जा चुका है।एक नहीं,दो नहीं,बल्कि तीन तीन महान शिल्पी मधुबनी पेंटिंग के गढ़ जितवारपुर की सिरमौर हैं।
मधुबनी जिला मुख्यालय से दस किलोमीटर की दूरी पर रहिका प्रखंड है, इसी रहिका प्रखंड के नाजीरपुर पंचायत का एक गांव है जितवारपुर,जो अब किसी परिचय का मुहताज नहीं। लगभग 800परिवारों वाला ये गांव अब सिर्फ और सिर्फ मिथिला पेंटिंग के लिए ही जाना जाता है। कभी धुल धूसरित पगडंडियों वाले इस गांव में अब देशी मंहगी गाड़ियां की कौन पूछे अब तो प्रायः कई विदेशी गाड़ियों का यहाँ आना जाना लगा रहता है। और ऐसा हो भी क्यों नहीं? इसी कला ने तो एक नयी पहचान दी है इस गांव के लोगों को, इस क्षेत्र को आम से ख़ास बना दिया।
तीन हस्तियों में से एक सीता देवी 2005 में चल बसी लेकिन अपने जिन्दा रहने तक ही सीता देवी ने इस कला को मुकाम तक पहुंचा दिया था। इसके बाद इनकी विरासत को बौआ देवी ने बखूबी संभाला। पूरा जितवारपुर गांव ही मिथिला पेंटिंग और गोदना पेंटिंग विधा में माहिर है। लगभग सात सौ से अधिक लोग इस कला से जुड़कर देश-विदेशों में अपना नाम रोशन कर चुके हैं।
गांव के हर घर में यह कला रचती-बसती है।गांव के हर समुदाय के लोगों में कला कूट-कूट कर भरी हुई है। मिथिला स्कूल आफ आर्ट को संरक्षित करने में जो भाूमिका इस गांव की महिलाओं की रही है वो अतुल्यनीय है। कला को संरक्षित करने में जितवारपुर की महिलाओं ने अपना पूरा जीवन सौंप दिया,उस नजर से देंखें तो यह पुरस्कार इन्हें काफी देर से मिला है।
लगभग साठ वर्षों से बौआ देवी मिथिला पेंटिंग से जुड़ी हुई हैं। बौआ देवी को 1985-86 में नेशनल अवार्ड मिल चुका है। वह मिथिला म्यूजियम जापान 11 बार जा चुकी है। जापान के म्यूजियम में मिथिला पेंटिंग की जीवंत कलाकृतियां उकेरी गयी है।
बौआ के अनुसार वो छोटी उम्र से ही मिथिला पेंटिंग बना रही हैं। नेशनल अवार्ड मिलने के बाद से अब तक लगातार उनको हर मुकाम पर सफलता मिली। वह देश के कोने- कोने में मिथिला पेंटिंग को लेकर हर मंच से सम्मानित हो चुकी हैं।मधुबनी या मिथिला पेंटिंग पहले गांव में लोक पर्व,शादी-विवाह और उपनयन जैसे आयोजनों में प्रयोग होता था खासकर सजावट के रूप में। पर जब 1975 में देश के महामहिम राष्ट्रपति महोदय ने जगदम्बा देवी के नाम को पद्मश्री के लिए अनुमोदित किया तो अचानक मिथिला कला अपनी असली पहचान के रूप में अंतराष्ट्रीय कैनवास पर उभर कर आया।और इस कला की तरफ यहाँ के स्थानीय लोगों में रूचि ज्यादा बढ़ने लगी और अनगिनत लोग इस कला से जुड़ते चले गए। 92 साल उम्र हो चुकी थी सीता देवी की जब 2005 में आखिरी सांस ली। देश के पहले राष्ट्रपति डॉ राजेंद्र प्रसाद इनसे काफी प्रभावित थे। लाल बहादुर शास्त्री हो या इंदिरा या बाबू जगजीवन राम सबने सीता देवी को खूब सराहा। पहली महिला सीता देवी ही थी जिसने मिथिला पेंटिंग की पुरातन कला में भरनी शैली को सामने लाया। गांव के आंगन और दीवारों पर उकेरेजानेवाले चित्र शहरों के ड्राइंग रूम में दिखने लगे इसका श्रेय एकमात्र सीता देवी को जाता है। सीता देवी को जितवारपुर की माँ भी कहा जाता था।सीता देवी ने एक हजार से भी ज्यादा लोगों को इस कला से जोड़ा। जिस गांव में पगडण्डी भी नजर नहीं आती थी वही गांव सीता देवी की वजह से पक्की सडकों वाला आधुनिक गांव में तब्दील हो गया। सीता देवी जब कभी पेंटिंग प्रदर्शनी के लिए दिल्ली जाती तो वो प्रगति मैदान में ही रहती थी और जब कभी कोई नेता उनकी प्रदर्शनी देखने या उनसे मिलने आता तो वह जितवारपुर के विकास की कोई न कोई बात जरूर करती थी। मरते दम तक सीता देवी की एक ही चाहत रही कि इस कला की परंपरा को और आगे ले जाने वाला सदा आता रहे,और ऐसा ही हुआ भी। उनका पूरा परिवार इस विधा से जुड़ा है। वे अपने दो बेटे अमरेश कुमार झा,विमलेश कुमार झा व तीन बेटियां रामरीता देवी, सविता देवी और नविता झा को मिथिला पेंटिंग में सिद्धहस्त कर चुकी हैं।हलाकि सीता देवी की असली पहचान तब हुयी जब इन्हे 1981में पद्मश्री दिया गया।इससे पूर्व सीता देवी को राज्य स्तर पर 1969में और राष्ट्रीय स्तर पर 1975 में सम्मानित किया जा चुका था।1984में इन्हे बिहार-रत्न भी दिया गया।
सीता देवी से पहले जगदम्बा देवी ने मिथिला की इस कला में आधुनिकतम तकनीक और शैली का भी प्रयोग किया। मधुबनी पेंटिंग में मूल रूप से पांच शैलिया भरनी, कचनी ,तांत्रिक गोदना और कोहबर प्रायः शुरुआत से वर्तमान तक देखी जाती है। मुख्य रूप से ब्राह्मण और कायस्थ महिलाये इस कला का प्रयोग करती थी खासकर धार्मिक देवी देवता से जुड़े वाकये हुआ करते हैं।परन्तु अब मधुबनी पेंटिंग भूमंडलीकरण(ग्लोबलाइजेशन) से बहुत प्रभावित हो चुकी है।अब इस कला का किसी मजहब,जाति या व्यक्ति-विशेष के साथ बंधकर नहीं रहा अपितु अब इस कला को कई विदेशी कलाकार भी अपनी ऊँगली लगा चुके हैं।हलाकि ये कहना गलत नहीं होगा कि शुरुआती दौर में जितवारपुर का अधिपत्य लगता था किन्तु समय के साथ साथ मधुबनी पेंटिंग का आँचल फैलता गया और इसके साथ ही कई और बड़े महारथी कलाकार इस कला की वजह से राष्ट्रीय-अंतरार्ष्ट्रीय स्तर पर अपनी पहचान बनाने में कामयाब हुए। इसके बाद कई और महिला कलाकारों को राष्ट्रीय-अंतर्राष्ट्रीय सम्मान मिले। हलाकि 1969में जब राज्य स्तरीय सम्मान बिहार में सीता देवी को मिला तो पहली बार मिथिला पेंटिंग को सही पहचान मिल पायी और फिर इसके बाद तो पुरष्कारो-सम्मानों की झड़ी सी लग गयी। जिस खास मुहीम को जगदम्बा देवी,और बौआ देवी ने एक गांव जितवारपुर से शुरू किया था वो कई दूसरे लोगो के लिए प्रेरणा बनी। इस गांव से बाहर निकलकर भी पद्मश्री और दूसरे सम्मान झोली में आने लगे।1984 में गंगा देवी ,2011में महासुन्दरी देवी को पद्मश्री दिया गया। यमुना देवी,शांति देवी, चानो देवी,विन्देश्वरी देवी,चन्द्रकला देवी,शशिकला देवी,लीला देवी,गोदावरी,अम्बिका देवी,मनीषा झा और भारती जैसी कलाकारों को राष्ट्रिय-सम्मान दिया गया।
जिस यात्रा की शुरुआत जितवारपुर की तीन पद्मश्रियों ने की थी वो अबतक काफी लम्बा सफर तय कर कई सुनहरे मोड़ों से गुजरते हुए कई और मंजिलो को हासिल करने को तैयार है,पर ये कहना गैरवाजिब नहीं जितवारपुर तुम लाजबाब हो।