(यह पोस्ट खास तौर से उन पत्रकारों के लिए है जिनका लेना-देना प्रेस क्लब ऑफ इंडिया के चुनाव से है। ज्ञानवर्द्धन के लिए पढ़ कोई भी सकता है। )
प्रेस क्लब ऑफ इंडिया का चुनाव 25 को है। आज पिछली बातें याद आती हैं। पिछले साल विशुद्ध वामपंथ के नाम पर एक सत्तारोधी पैनल ताना गया। चुनाव आते-आते उसे लिबरल करार दिया गया। चुनाव से ठीक पहले प्रत्याशिेयों के वोट लाने की क्षमता के हिसाब से उस पैनल को संकर बना दिया गया। अपन आइडियोलॉजी के मारे फंस गए थे उसमें। आखिरी मौके पर परचा रद्द करवा दिए। बच गए। ईमान से भी, हार से भी। ऑक्सफर्ड डिक्शनरी ने जब 2016 के अंत में post-truth को वर्ष का शब्द करार दिया, तो विचार को वाम डिक्लेयर करने की ज़रूरत भी जाती रही। इस बार पूरा वैचारिक घालमेल कर के वही सत्तारोधी पैनल नई शक्ल में उतरा है।
जो लोग सत्ता में हैं दो साल से, उन्होंने कभी भी आम या वाम होने का खुला दावा नहीं किया, लेकिन उनका व्यावहारिक काम बोल रहा है। विशुद्ध दारूबाज़ी के अड्डे को पिछले एक साल में सामाजिक-राजनीतिक और पत्रकारीय प्रतिरोध का एक केंद्र बनाने की कुछ कोशिशें हुई हैं। एनडीटीवी प्रकरण से लेकर राजदेव रंजन, जगेंदर सिंह, गौरी लंकेश और तमाम मानवाधिकार रक्षकों व सहाफि़यों के मामले में इस सत्ताधारी पैनल ने लगातार कड़ा स्टैंड लिया है। ज़ाहिर है, इस मसले पर विपक्षी पैनल वाला भी कोई सदस्य असहमत नहीं होगा।
होना भी यही चाहिए। पत्रकारों के उत्पीड़न, दमन और अभिव्यक्ति की आज़ादी के मसले पर सबको एक पेज पर रहना होगा। चुनाव आते ही भले खेमों में लोग बंट जाएं, लेकिन अव्वल तो मनभेद नहीं होना चाहिए। दूसरा, वैचारिक पाखण्ड या घालमेल नहीं होना चाहिए। इस बार सत्ताधारी पैनल ने मुझे परचा भरवा दिया है। परचा रद्द करने के आखिरी वक्त तक उसे कैंसिल कराने का कोई ठोस कारण मुझे नहीं दिखा, जैसा पिछली बार हुआ था। नतीजा, खड़ा हूं। हारने या जीतने के लिए नहीं, प्रतिरोध की यथास्थिति को बचा ले जाने के लिए। अगर आपका मानना है कि मौजूदा कमेटी पत्रकारीय हित में काम कर रही है, तो केवल विरोध के लिए विरोध करने का कोई मतलब नहीं है। विपक्षी पैनल यहीं एजेंडाविहीन लगने लग जाता है।
बहरहाल, दिलचस्प ये है कि दूसरी तरफ़ भी अपने ही साथी हैं। खासकर मित्र यशवंत सिंह जिन्हें आज तक उन्हीं के पैनल के लोग हेय दृष्टि से देखते आए थे लेकिन उनकी लोकप्रियता से आक्रांत होकर इस बार उन्हें अपने भीतर लेने को मजबूर हो गए हैं। मैरेज ऑफ कनवीनिएंस मने सुविधा की शादी है। शिव की बारात है। झमाझम post-truth है लेकिन दावा वामपंथ का है। प्रगतिशीलता के पाखंड से बेहतर है यथास्थिति का दंड। कौन हारेगा और कौन जीतेगा, सवाल यह नहीं है। सवाल मोरलिटी का है और ज़माना डुअलिटी का है।
अब पांच दिन बचे हैं। मैं तो वैसे भी 25 को आधे दिन गायब रहूंगा। कोर्ट की तारीख़ है। प्रत्याशी अहम नहीं है। पैनल अहम है। संघर्ष अहम है। ज़रूरी यह है कि जो लोग प्रेस क्लब की राजनीति से वाकिफ़ नहीं, उन्हें चीज़ें समझ में आवें। उनके लिए बुनियादी तीन बातें- प्रेस क्लब की सत्ता, राजनीतिक अर्थ में सत्ता नहीं है बल्कि एक कंपनी के शेयरधारकों की प्रबंधन टीम मात्र है। दूसरे, प्रबंधन टीम की कुशलता रसगुल्ले या पैग का दाम तय करने में नहीं, अभिव्यक्ति की आज़ादी को असर्ट करने में है। तीसरे, अगर इस टीम का पिछला रिकॉर्ड इस मामले में दुरुस्त है, तो इतने संकटग्रस्त दौर में बेवजह अस्थिरता पैदा करने का कोई मतलब नहीं बनता। इस परिप्रेक्ष्य में विपक्षी पैनल के मित्रों से वही प्राचीन सवाल बनता है- पार्टनर, बताओ तुम्हारी पॉलिटिक्स क्या है? विकास मत कह देना, जनता समझदार हो रही है!