इसी साल अप्रैल महीने में एक कैबिनेट आदेश पारित कर बिहार में सारे मयखाने की चौखट पर ताला लगा दिया गया। पुलिस और प्रशासन की चाभी कस दी गई। हजारो लोग सलाखों के पीछे भेज दिए गए। दर्ज़न भर पुलिस पदाधिकारी भी दंड के भागीदार बने। विरोध से ज्यादा स्वागत ही हुआ इस फैसले का, खासकर आधी दुनिया यानी महिलाओं के द्वारा। कहा गया कि इसका फायदा बिहार के हर परिवार को हुआ। मतलब साफ है कि नीतीश कुमार के अनुसार, यहाँ के हर परिवार में कोई न कोई पियक्कड़ है। तभी तो मोदी की तर्ज पर सुशाशन ने भी कह दिया कि बिहार की जनता को दस हजार करोड़ रुपये का फायदा हुआ है।
खैर ये तो सियासत की बात है। हम यहाँ बात करते हैं सौदे की, व्यापार की। शराबबंदी लागू करने के पीछे का तर्क एकसूत्री है। वो है जनकल्याण। पर यहाँ सवाल कई और उठते हैं। हालांकि मूल मकसद से इस रोक का विरोध कोई नहीं कर रहा, परंतु कहीं सियासत, कहीं रोजी-रोटी, तो कहीं शौक और लत की वजह से मुखालफत जारी है। परंतु सबसे ज्यादा विरोध की वजह इस कानून की वे अव्यावहारिकताएं हैं, सरकार जिन्हें कबूल करने को तैयार नहीं है। हकीकत यह है कि शराबबंदी के इस कानून की जद में कौन आएंगे, क्यों आएंगे, कैसे आएंगे- इसपर तर्क पीछे छूट गया है, नीतीश कुमार की सियासत आगे बढ़ गई है।
एक परिवार या घर में मय का कोई भी निशान मिल जाए तो यह माना जाएगा कि सभी पीने वाले हैं। ये तो खैर मनाइए पटना हाई कोर्ट का, वरना पहले के तुगलकी फरमान के हिसाब से तो गर्भ में पल रही संतान भी लपेटे में आ जानी थी। अब ये बदलाव लाया गया है कि बालिग सभी लोग दोषी होंगे। अब परिवार में कई भाई, कई सदस्य रहते हैं, अगर एक पीता है तो घर का मुखिया दोषी, गांव के कुछ लोग पीते हैं, तो पूरा गांव दोषी। ये कहां का कानून, कैसा कानून? तब तो बिहार में कहीं भी दारू के निशां मिल जाएं, तो सूबे के मुखिया यानी कि सीएम क्यों नहीं दोषी?
खैर विरोध का तरीका और कारण अलग-अलग भले हों, लेकिन जो उद्देश्य बताया जा रहा है समाज का कल्याण, तो यह बात भी हजम नहीं होती। एक समय जब नीतीश कुमार ने सूबे में स्कूल से ज्यादा शराबखाना खोलने का लाइसेंस दिया था, उस समय समाज कल्याण के बारे में नहीं सोचा था? बहरहाल, सभी राजनीतिक दल इस फैसले का समर्थन या विरोध करने से पहले वोटों का गणित लगाकर अपना नफ़ा-नुकसान तौल लेना चाहते हैं। चूंकि सीधे तौर पर शराबबंदी का विरोध करने वाले जनविरोधी, ख़ासकर महिला-विरोधी समझे जाएंगे, ऐसे में नीतीश के विरोधियों ने शराबबंदी पर दो तरह से हाय तौबा मचानी शुरू कर दी है।
पहला विरोध उन व्यापारियों और निवेशकों की तरफ से शुरू किया गया, जिन्होंने शराबबंदी से पहले इसी सरकार की पहल पर काफी तैयारी कर ली थी और निवेश भी काफी किया था। करोड़ों का माल स्टॉक कर लिया था, परंतु रातों-रात एक फरमान से उनके निवेश और अरमानों पर पानी फिर गया। लाचारी में ये लोग न्यायालय की शरण में गए, तो नीतीश कुमार को मुंह की खानी पड़ी और 5 अप्रैल से लागू शराबबंदी कानून को निरस्त कर दिया गया। दूसरा विरोध इस बुनियाद पर कि इस कानून की गाज निर्दोषों पर ज्यादा गिरेगी, बेबजह दुश्मनी साधी जाएगी। नीतीश सरकार ने सदन से एक नया शराबबंदी कानून भी पारित करवा कर राज्यपाल महोदय से पास करवा लिया था, जिसे तुरंत ही 2 अक्टूबर यानी महात्मा गाँधी की जयंती के दिन से लागू कर दिया गया। हालांकि सरकार ने इस नए कानून में कुछ संशोधन और फेरबदल तो किए हैं, लेकिन इसका विरोध जारी है।
यानी हालात कुछ अजीब हो गए हैं। सरकार कहती है कि वह इसे लागू करवाने के लिए प्रतिबद्ध है। विरोध करने वाले उतारू हैं लड़ाई आगे जारी रखने को। न्याय अपने अनुसार इस कानून के कुछ अंशों पर सवाल उठा कर निरस्त कर चुका है। हाई कोर्ट के इस फैसले के ख़िलाफ़ बिहार की सरकार सुप्रीम कोर्ट जा चुकी है। एक दूसरे मामले में सुप्रीम कोर्ट ने इस बात से भी इंकार कर दिया है कि पूरे देश में शराबबंदी हो। ऐसे में बेहतर होता कि नीतीश जी विरोधियों के साथ बैठकर आम सहमति बनाते और फिर एक सर्वसम्मत कानून लाते। इससे उनका भी कल्याण हो जाता और समाज का कल्याण भी हो जाता।