राहुल गांधी संभव है 5 दिसंबर को कांग्रेस के अध्यक्ष बन जायें क्योंकि नाम वापसी की आख़िरी तारीख़ 4 दिसम्बर है. अगर गुजरात चुनावों के नतीजों में किसी आशंका के लिहाज से कोई ऐसी रणनीति बने कि वो चुनाव नतीजों के बाद ही अध्यक्ष बनें तो संभव है कोई डमी कैंडीडेट खड़ा कर दिया जाए. ऐसी स्थिति में वे कांग्रेस की कमान 19 दिसंबर को संभालेंगे. लेकिन ये दोनों तारीखें कांग्रेस के लिए ऐतिहासिक होंगी.
कांग्रेस का अध्यक्ष बनने के बाद राहुल गांधी 1885 से चल रही पार्टी में वोमेश चंद्र बैनर्जी, गोपालकृष्ण गोखले, पं मदनमोहन मालवीय, मोतीलाल नेहरु, डाक्टर राजेंद्र प्रसाद, नेताजी, अबुल कलाम आजाद, पं नेहरु, इंदिरा गांधी, औऱ अपने माता पिता जैसे नेताओंवाली जमात में खड़ा हो जाएंगे. बड़ा ओहदा, बड़ी जिम्मेदारी. सक्रिय राजनीति में पिछले 13 साल में उन्होंने यकीनन बहुत कुछ सीखा है. हां ये भी सही है कि इन वर्षों में कांग्रेस ने अपना आधार बहुत खोया है औऱ आज की तारीख में पांडिचेरी भी को शामिल कर लें तब वो 6 राज्यों में सत्ता में है. पंजाब औऱ कर्नाटक जैसे सिर्फ दो बड़े राज्य ही कांग्रेस के पास हैं. राहुल गांधी के सामने चुनौती ये है कि उन्हें पार्टी की बागडोर तब थमाई जा रही है,जब कांग्रेस अपने अबतक के इतिहास में सबसे कमजोर है.
ऐसे में गुजरात कांग्रेस की वापसी के लिये संजीवनी साबित हो सकता है. वैसे आप कह सकते हैं कि मैं दूर की कौड़ी फेंक रहा हूं, लेकिन राहुल गांधी और देश में विपक्ष की राजनीति के लिये इससे मजबूत कोई और जमीन हो भी नहीं सकती.
प्रधानमंत्री मोदी की पूरी टीम सारे दल-बल के साथ गुजरात में डेरा डाले हुए है, अमित शाह पीएम के लिये तीन दर्जन रैलियों के इंतजाम में लगे हैं, और राहुल अकेले मैदान में हैं. मेरे कहने का मतलब ये नहीं कि राहुल गांधी में कोई अचानक करिश्माई बदलाव आ गया है लेकिन गुजरात में बीजेपी की आबोहवा ठीक नहीं है औऱ राहुल गांधी खुद बहुत संभलकर चल-बोल रहे हैं.
जिस राज्य में पिछळे 22 साल से बीजेपी का परचम लहरा रहा हो औऱ मोदी जैसा तुरुप का इक्का उसके पास हो वहां कांग्रेस की जीत मुश्किल तो है लेकिन नामुमकिन भी नहीं. देश के इतिहास में कई दफा जनता चौंकानेवाले नतीजे देकर बड़े-बड़ों के हौसले पस्त कर चुकी है. मैं अभी किसी नकारात्मक बात को उकेरना-उधेड़ना नहीं चाहता औऱ यह भी नहीं चाहता कि राहुल गांधी को सिरे से खारिज कर दिया जाए. वे संभावनाओं के नेता हैं, खुद को सुधारते रहे हैं और अपनी पीढी के नेताओं से समझदारी बढाकर उनसे रिश्ते बेहतर रखने की कोशिश करते हैं. वक्त को अगर थोड़ा आगे बढाकर देखा जाए तो शायद मेरी इस बात से कम ही सही लेकिन रजामंदी हो सकती है कि जनता असंतोष औऱ उम्मीदों के बीच अपना वोट देती है औऱ समय आ सकता है जब राहुल गांधी में भी उसे उम्मीद नजर आए.