जिस दिन नीतीश और लालू का गठबंधन चुनाव जीता, उसी दिन मैंने कह दिया था कि दो साल के भीतर ही नीतीश फिर से बीजेपी की गोदी में बैठने को मजबूर हो जाएंगे। और जिस दिन नीतीश सचमुच बीजेपी की गोदी में दोबारा बैठ गए, उस दिन
हमने फिर से कहा कि नीतीश कुमार अब बुरी तरह फंस गए हैं। ये अटल-आडवाणी वाली बीजेपी नहीं, बल्कि मोदी-शाह वाली बीजेपी है। जो हाल महाराष्ट्र में शिवसेना का हुआ है, उससे अधिक बुरा हाल इनका बिहार में होने वाला है।
हमारी बात फिर से सच साबित होती दिखाई दे रही है। इसकी पहली झलक मोदी कैबिनेट के विस्तार और फेरबदल में देखने को मिली। अब आगे-आगे देखते जाइए, और क्या-क्या होता है! इस बार नीतीश बड़े भाई नहीं हैं, जो बीजेपी उनके हर नाज-नखरे सहती रहेगी। इस बार नीतीश एक बेबस शिकार हैं, जिन्हें योजनाबद्ध तरीके से जाल बिछाकर फंसाया गया है। लालू की गोदी से बीजेपी की गोदी में तो वे आ गए, लेकिन अब बीजेपी की गोदी से कहां जाएंगे?
ज़ाहिर है, अब नीतीश कुमार को बीजेपी की कठपुतली बनकर रहना होगा। बीजेपी का मूल मकसद इस बार बिहार की आधी सरकार शेयर करना नहीं, बल्कि नीतीश को लाचार और बेसहारा बनाकर छोड़ देना है, ताकि एक तो मोदी-शाह का बदला भी चुकता हो जाए, दूसरे लोकसभा चुनाव तक पहुंचते-पहुंचते सुशासन बाबू आधे से पौने और विधानसभा चुनाव तक पहुंचते-पहुंचते बिल्कुल बौने हो जाएं। नीतीश अगर अलग-थलग पड़ जाएं, तो बीजेपी के सामने आरजेडी और कांग्रेस का गठबंधन होगा, जो निश्चय ही महागठबंधन जितना ताकतवर नहीं हो सकता।
जहां तक नीतीश कुमार का सवाल है, तो चूंकि उनके पास अपना कोई जनाधार है नहीं, इसलिए वे स्वतंत्र रूप से बिहार के किसी भी चुनाव में कुछ भी नहीं कर सकते। इसलिए, अब अगर वे बीजेपी से छिटके, तो उनकी दशा जीतनराम मांझी जैसी भी हो जाए, तो मुझे हैरानी नहीं होगी। प्रधानमंत्री बनने का सपना देखने वाले चाणक्य दरअसल यह नहीं समझ पाए कि अवसरवादी होना भी हर अवसर पर काम नहीं आता है। सही अवसर पर अवसरवादी बने, तो फ़ायदा होगा और ग़लत अवसर पर अवसरवादी बन गए, तो लुटिया डूब जाएगी।
वैसे, नीतीश कुमार जिस तरह के नेता हैं, उसे देखते हुए हम फिलहाल इस संभावना से भी इनकार नहीं कर सकते कि अगर बीजेपी से उन्हें झटका मिला, तो एक बार फिर से वे लालू से पैचअप करने की कोशिश नहीं करेंगे। लेकिन वे जो भी करेंगे, बिहार में एक कहावत है- “डगरा पर का बैंगन होना”, बस उसी को चरितार्थ करेंगे। कोई क्रांति नहीं कर पाएंगे- यह तय है। नीतीश कुमार की राजनीति जून 2013 से ही निरंतर पराभव की ओर बढ़ती जा रही है।