बात कोई 10-11 साल पुरानी है। हमने उन्हें अपना दूसरा कविता संग्रह “उखड़े हुए पौधे का बयान” भेंट किया और उन्होंने मुझे अपनी मशहूर किताब “आज भी खरे हैं तालाब” भेट की। उस वक़्त यह मुझे औपचारिक घटना लगी थी, क्योकि दो लेखक जब मिलते हैं, तो किताबों का आदान-प्रदान तो होता ही रहता है, लेकिन अक्सर दोनों ही एक-दूसरे की किताबें ठंडे बस्ते में डाल दिया करते हैं। दरअसल हर लेखक यह तो चाहता है कि उसकी किताबें दूसरे लोग पढ़ें, लेकिन दूसरों की किताबें पढ़ने के लिए उसके पास वक्त कम पड़ जाता है।
लेकिन एक सप्ताह बाद जब उनका फोन आ गया और “उखड़े हुए पौधे का बयान” की कई कविताओं का ज़िक्र करते हुए उन्होंने उनकी तारीफ़ की, ख़ासकर पर्यावरण और वर्तमान समय के विद्रूप से जुड़ी “बच्चों मुझे माफ़ कर देना”, “पिता से अपील”, “उखड़े हुए पौधे का बयान”, “न गांव मिला न शहर” इत्यादि कविताओं की, तो मुझे जितनी ख़ुशी नहीं हुई, उससे ज़्यादा शर्मिंदगी महसूस हुई, क्योंकि तब तक मैंने उनकी किताब पढ़ी नहीं थी।
मैं मशहूर पर्यावरणविद और लेखक अनुपम मिश्र जी की बात कर रहा हूं। घनघोर प्रदूषण वाले इस दौर में भी उनका मन शीशे की तरह साफ़ और पारदर्शी था। सरल तो वे थे ही। साधारण पहनावा ओढ़ावा। खद्दर कुरता-पाजामा। दुबली-पतली काया। मितभाषी थे, मृदुभाषी थे। जब भी ऐसे लोगों से मुलाकात होती है, तो मन में श्रद्धा जाग उठती है। चमक-दमक वाले लोगों से मिलकर आंखें चौंधिया जाती हैं, लेकिन ऐसे सादे लोगों से मिलकर मन को सुकून मिलता है।
अनुपम मिश्र जी से पहले भी एक-दो मुलाकातें थीं। पहली मुलाकात करीब सत्रह-अट्ठारह साल पहले गांधी शांति प्रतिष्ठान में ही हुई थी। हम लोग जलपुरुष राजेंद्र सिंह के अलवर स्थित तरुण भारत संघ के आश्रम जा रहे थे। उस दौरे में अनुपम मिश्र हमारे साथ थे। तरुण भारत संघ के आश्रम में दो-तीन दिन साथ ही रहे थे। हम लोग साथ ही घूमे-टहले, खाए-पिए थे। हम लोगों के साथ एक बुज़ुर्ग स्वाधीनता सेनानी भी थे। इस घुमक्कड़ी के दौरान उनके डगमगाने पर उन्हें संभालने के लिए अनुपम मिश्र हम नौजवान लोगों से पहले ही और अधिक फुर्ती से अपना हाथ बढ़ा दिया करते थे।
एक तो इलेक्ट्रॉनिक मीडिया की आउटपुट डेस्क की नौकरी के चलते फील्ड में जाना कम होता था। अलावा इसके, बहुत सारी उलझनेें भी हमारी ज़िंदगी में हमेशा साथ-साथ चलती रही हैं। सारा समय इन्हीं उलझनों और नौकरी की मजबूरियों में जाता रहा। फिर पिछले पांच-छह सालों से दिल्ली में रहना भी कम हुआ। अलग-अलग क्षेत्रीय समाचार चैनलों की संपादकी के लिए अलग-अलग शहरों में जाकर रहना पड़ा। इसलिए हमारी मुलाकातें काफी कम हो गईं। लेकिन अनुपम मिश्र जी उन लोगों में से थे, जिनसे मिलने को मन हमेशा लालायित रहता था।
अनुपम जी से आख़िरी मुलाकात करीब ढाई साल पहले हुई थी। “बचपन की पचपन कविताएं” की रिलीज के वक्त। निश्चित तारीख पर गांधी शांति प्रतिष्ठान में हॉल उपलब्ध नहीं होने की वजह से इसे हिन्दी भवन में रिलीज़ करना पड़ा था, लेकिन इस किताब की एक प्रति उन्हें भी भेंट की थी। इस बार भी उन्होंने पर्यावरण से जुड़ी कई कविताओं को उद्धृत करके मेरा मनोबल बढ़ाया।
“आसमान में पंछी रोते, बाग़ों में तितली।
घर से बाहर निकलूं कैसे, आती है मितली।
पापा ये क्या हुआ मुझे?”
मुझे याद है, इन पंक्तियों को वे बार-बार बोलते और हर बार बीच में कहते “वाह!” फिर उन्होंने कहा- “बेहद मार्मिक कविता लिखी है आपने। पर्यावरण पर बच्चों की इतनी मार्मिक कविता मैंने कभी नहीं पढ़ी।” उनकी शाबासी देने की अदा इतनी सच्ची और निराली थी, जिसे मैं कभी नहीं भूल सकता। तात्पर्य यह नहीं कि मेरी कविताएं महान थीं। बल्कि यह कि अनुपम मिश्र जी अपने से छोटों का हौसला बढ़ाने में कभी कंजूसी नहीं करते थे।
अनुपम जी से जब भी मिला या जब भी उनसे बात हुई, हमेशा एक ताज़गी-सी भर गई मन में। लगा कि मन और वातावरण का प्रदूषण कुछ कम हो गया है। आज जब सुबह-सुबह संदेश आया कि वे नहीं रहे, तो मन भारी सा हो गया। लगा कि एक ऐसे स्मॉग में घिर गया हूं, जिससे निकलना आसान नहीं।
मुझे लगता है कि जल-जंगल-ज़मीन को लेकर, नदियों और तालाबों को लेकर, मुकम्मल अर्थों में पर्यावरण को लेकर अनुपम मिश्र जी के विचार हमेशा खरे हैं, खरे रहेंगे। जब भी दुनिया में पर्यावरण के प्रश्न को लेकर चिंता की लकीरें उभरेंगी, तो हमें अनुपम जी के किये हुए काम, लिखे हुए शब्द और दिए हुए संदेश हमेशा याद आएंगे।
अनुपम जी, हमारी दुनिया में अनुपम ही थे। उन्हें हमारी विनम्र श्रद्धांजलि।