IIMC से पिछले 39 सालों में अलग अलग प्रवृत्ति, विचारधारा और सोच के छात्रों का एक बड़ा हुजूम निकला है। इन छात्रों में आपस में दोस्ती, बैर और खींचतान भी रही है लेकिन मैं मानता हूं इन सबमें जो एक चीज कॉमन रही है वो है रघुविंदर चावला सर का इन छात्रों के प्रति और छात्रों का चावला सर के प्रति प्रेम। 28 फरवरी को चावला सर IIMC से विदा हो जाएँगे। मैं 39 सालों की बात इसलिए कर रहा हूं कि क्यूंकि ये वो साल हैं जो चावला सर ने IIMC को दिए हैं। हर छात्र यहां स्कूल-कॉलेज होते हुए ही पहुंचता है और जब इस संस्थान में चावला सर जैसे एडमिनिस्ट्रेटर से मुलाकात होती है तो वो अपने कॉलेज के नॉन टीचिंग स्टॉफ के रवैये और तेवर को याद करने लगता है। उसे इस बात का भरोसा ही नहीं होता कि कोई प्रशासक ऐसा भी हो सकता है। इतना विनम्र, संवेदनशील, धैर्यवान बड़े भाई या पिता की तरह।
मैं आज एक बात आप सबसे साझा कर रहा हूं जिस राज को मैं, मेरा ईश्वर, चावला सर और मेरे चंद मित्र ही जानते हैं। साल 1998 मैं जनसत्ता में स्ट्रिंगर था और देश दुनिया की पत्र पत्रिकाओँ में धुआँधार लिख रहा था। एक अदद डिग्री की जरूरत महसूस हो रही थी लिहाजा हमने भी IIMC की परीक्षा दे दी। चयनित हो गया और नामांकन की निर्धारित तारीख भी पास आ गई। उस वक्त दिल्ली विश्वविद्यालय से मास्टर की पढ़ाई भी कर रहा था और हॉस्टल से निकलकर हकीकतनगर में मित्रों के साथ रहने लगा था। घर से पैसे लेना काफी पहले बंद कर चुका था और कुछ समय से पिताजी नाराज थे क्यूंकि मैंने बैंक अधिकारी का ऑफर ठुकराकर पत्रकारिता करने का फैसला किया था। उस वक्त IIMC में एडमिशन की पहली किस्त 7 हजार रुपए थी। लिखने-पढ़ने और पढाने से अपना खर्च चल जाता था और जरूरत पड़ने पर कुछ दोस्तों की मदद भी हो जाती थी लेकिन 7 हजार बड़ी रकम थी। लिहाजा मन मारकर गांव में चाचाजी को चिट्ठी लिखी थी और उन्होंने 5 हजार रुपए भेज भी दिए थे क्यूंकि मैं इतना ही मांग पाया था। बाकी दो हजार का इंतजाम मैं कर चुका था। लेकिन समस्या ये थी कि एडमिशन की आखिरी तारीख तक मनीऑर्डर हम तक नहीं पहुंच पाया था। सब दोस्तों की हालत वैसी ही थी, हकीकत जानता था इसलिए किसी को शर्मिंदा करना ठीक नहीं लगा। मैं IIMC पहुंच गया और ये सोच कर गया था कि अधिकारियों से बात कर 2-4 दिन की मोहलत मांगूंगा, तब तक पैसे आ ही जाएँगे। लेकिन वहां का माहौल देखकर कि सब छात्र अपने पैसे जमा कर नामांकन करा रहे हैं, हिम्मत नहीं हो रही थी कि अपनी बात रखूं। 10.30 बजे सुबह से मैं दफ्तर के अंदर आधा दर्जन बार जा चुका था और बार बार बाहर आकर बैठ जाता, कभी पार्क की तरफ, कभी बाबा की चाय की दुकान पर ( तब वहां बाबा की चाय की दुकान हुआ करती थी और उनके बेटे बैंक अधिकारी थे)। लंच ब्रेक के दौरान चावला सर ने मुझे पकड़ा, “बच्चे क्या समस्या है, एडमिशन क्यूं नहीं ले रहे” उनको ये अहसास हो चुका था कि मैं एमिशन के लिए ही आया हूं और मुझे कोई समस्या है। मैं थोड़ा हिचकिचाया और फिर अपनी बात बताई। बोले कि तुम चलो दफ्तर में, मैं आता हूं। मैं उनकी सीट पर जाकर इँतजार करने लगा। थोड़ी देर में आए, नामांकन की प्रक्रिया पूरी कराई और 7 हजार की रसीद हाथ में थमा दी, बोले जब पैसे आ जाएँ तो मुझे आकर दे देना। मैं खुश था लेकिन सन्न था। मुझे लगा कि मैं शायद हिन्दुस्तान के किसी संस्थान में नहीं बल्कि किसी दूसरे लोक के किसी शैक्षणिक संस्थान में हूं जहां शिक्षा और छात्र के समय और भविष्य का मोल है। चावला सर ने मुझे पैसे जमा करने के लिए संस्थान से मोहलत तो दिला दी लेकिन मुझे इस बात का अहसास हो रहा था कि उन्होंने शायद अपनी जेब से वो रकम भरी थी क्यूंकि मेरे हाथ में पूरी फीस की रसीद थी। जो भी हुआ हो ये बात पूछने की हिम्मत मैं कभी न कर सका। मैं आज जो कुछ भी हूं उसमें IIMC का काफी योगदान है और मेरे जीवन में IIMC है तो उसमें चावला सर का योगदान अप्रतिम है। चावला सर जिंदाबाद हैं। वरिष्ठ पत्रकार और IIMCian उमेश चतुर्वेदी सर के शब्दों में चावला सर अजातशत्रु हैं। बिना आपसे पूछे मैंने ये राज उगल दिया आज, इसके लिए माफी चावला सर। आप जीवन की दूसरी पारी में भी ऐसे ही जिंदाबाद रहें।