हाल के दिनों में ढाका ने मुझे दूसरी बार दहलाया है। पिछली बार तब दहल गया था, जब एक रेस्टूरेंट में कुछ आतंकवादियों ने लोगों से कुरान की आयतें सुनाने के लिए कहा था और जो लोग नहीं सुना पाए, उन्हें चुन-चुनकर गोली मार दी। इस बार इसलिए दहला हूं, क्योंकि बकरीद के त्योहार को वहां के लोगों ने कुछ इस तरह से मनाया कि सड़कों पर ख़ून की नदियां बह निकलीं।
बकरीद के दिन ढाका में इतनी बारिश हुई कि कई तस्वीरों में सड़कों पर गाड़ियों के पहिये आधे डूबे हुए दिखाई दे रहे हैं। इतने पानी में थोड़ा-बहुत ख़ून अगर मिल भी जाए, तो पता नहीं चलेगा। लेकिन सोचिए कि वहां कितनी बड़ी संख्या में बेगुनाह जीवों की हत्या हुई होगी और उनका कितना सारा ख़ून बहाया गया होगा कि बारिश का रंग भी लाल हो गया और हर गली, हर सड़क पर जैसे ख़ून की नदियां बह निकलीं।
आख़िर जीवों के प्रति दया ममता का धर्म में कोई स्थान है कि नहीं? ढिंढोरा तो ऐसे पीटा जाता है, जैसे दुनिया में जीवों के कल्याण के लिए धर्म का पालन ही प्रथम और अंतिम उपाय है? लेकिन ये कैसे धर्म होते हैं, जिसमें इतना सारा ख़ून देखकर भी लोगों का ख़ून नहीं खौलता? हम अपनी जीभ के स्वाद के लिए या शान-ओ-शौकत के लिए या मौज-मस्ती के लिए दूसरे जीवों पर इस तरह बेइंतहां ज़ुल्म कैसे कर सकते हैं?
उधर आइसिस के आतंकवादियों ने बकरीद पर आदमियों को काटा। इधर पूरी दुनिया में धर्मात्मा लोगों ने जानवरों को काटा। दोनों के मूल चरित्र में अंतर क्या रहा? ख़ून तो दोनों ने बहाया। जीव-हत्या तो दोनों ने की। क्या आदमी ताकतवर है, दुनिया का राजा है, इसलिए उसका ख़ून ख़ून है और जानवर बेबस, लाचार और कमज़ोर हैं, इसलिए उनका ख़ून बारिश का पानी है? अगर यही सिद्धांत बना लेंगे, तो हर ताकतवर अपने से कमज़ोरों का ख़ून बहाकर अट्टहास करेगा। आइसिस ने उसी का नमूना पेश किया है।
अपने बदन पर ज़रा-सी खरोंच भी आ जाए, तो हम बिलबिला उठते हैं, लेकिन मासूम जीवों का गला रेतने और उनकी बोटियां नोंचने में आनंद का अनुभव करते हैं? यह तो इंसानी नहीं, राक्षसी चरित्र है। अगर हममें ज़रा भी इंसानियत बाकी है और ख़ुद को सभ्य समझते हैं, तो दूसरे जीवों के जीने की आज़ादी के बारे में भी सोचना पड़ेगा। अपने खाने-पीने की आज़ादी के लिए अन्य जीवों के जीने की आज़ादी कैसे छीन सकते हैं हम?
कई लोग कहते हैं कि अगर जानवरों को मारा नहीं जाएगा, तो उनकी आबादी बेतहाशा बढ़ जाएगी, लेकिन आदमियों की आबादी भी तो दुनिया में बेतहाशा बढ़ी है, फिर उनकी आबादी को नियंत्रित करने के लिए क्या हिंसा को एक स्वीकार्य तरीका माना जा सकता है? प्रकृति ने हर जीव की आयु तय की है। सब अपनी-अपनी आयु जीकर दुनिया से विदा हो जाते हैं। प्रकृति अपना संतुलन हमेशा बनाए रखती है। ये इंसान हैं, जो उसका संतुलन बिगाड़ने में जुटे हुए हैं।
मेरी राय में बकरीद का त्योहार हिंसा, अंधविश्वास, कट्टरता और धर्मांधता का त्योहार बन गया है और आज की तारीख में यह इंसानियत के पैमाने पर खरा नहीं उतरता। इसमें दुनिया के धर्मात्मा लोग अल्लाह को ख़ुश करने के नाम पर मासूम जीवों की हत्या का तांडव खेलते हैं, जबकि उन्हें पता है कि जिस ईश्वर या अल्लाह ने उन्हें बनाया है, उसी ने उन मासूम पशु-पक्षियों को भी बनाया है। उनकी हत्या करके वे पुण्य के नहीं, पाप के भागी बनते हैं। जन्नत के नहीं, जहन्नुम के भागी बनते हैं। हूरों के नहीं, कोड़ों के भागी बनते हैं।
मैं हिन्दुओं में भी नवरात्र और कुछ अन्य पर्व-त्योहारों पर मासूम जानवरों की बलि का विरोध करता रहा हूं। इस लिहाज से मुझे अपने जैन भाई-बहन बहुत अच्छे लगते हैं और उन्हें मैं सार्वजनिक रूप से सलाम भेजता हूं। जहां कहीं भी, जिस भी धर्म में, जिस भी पर्व-त्योहार में, बेगुनाहों और मासूमों को मारा जाए, हर दयालु, संवेदनशील और इंसानियत-पसंद व्यक्ति को धार्मिक भावनाओं से ऊपर उठकर उसका विरोध करना चाहिए। चूंकि जीव-हत्या ही बकरीद का मूल चरित्र बन गया है, इसलिए इसके फॉर्मैट पर चिंतन अब ज़रूरी है।
मैं तो बकरीद के पीछे बताई जाने वाली कहानी को भी आज तक हजम नहीं कर पाया। बताया जाता है कि हजरत इब्राहिम से अल्लाह ने अपनी सबसे प्यारी चीज़ की कुर्बानी मांगी। इसपर उन्होंने अपने बेटे की बलि देने का फैसला कर लिया। जब वे बलि देने के लिए जा रहे थे, तब रास्ते में जिस व्यक्ति ने उन्हें ऐसा करने से रोका, धर्म ने उसे “शैतान” कहा और दुनिया के धर्मात्मा लोग आज तक उसे पत्थरों से मार रहे हैं।
जब भी मैं यह कहानी सुनता हूं, मेरी पूरी संवेदना ही हिल जाती है। जो अल्लाह को के नाम पर मासूम बच्चे की बलि देने का इरादा कर ले, वह महान? और जो मासूम बच्चों की बलि के ख़िलाफ़ आवाज़ बुलंद करे, वह शैतान? यह पूरी कहानी ही इंसानियत-विरोधी है। आज की तारीख़ में अगर कोई व्यक्ति हजरत इब्राहिम की तरह अपने बच्चे की बलि देने की तैयारी करे, तो उसे जेल मिलेगी, सज़ा मिलेगी, अपराधी माना जाएगा। इसी तरह, धर्म ने जिसे “शैतान” घोषित कर दिया, वह तो वास्तव में इंसानियत का देवता था, दयालु था, मानवतावादी था, बच्चों के अधिकारों के लिए लड़ने वाला योद्धा था।
इसलिए, धर्म हमारे जीवन में उतना ही स्वीकार्य हो, जब तक हमें वह सही रास्ता दिखाए। जब वह हमें भटकाने लगे, तो उसमें सुधार की ज़रूरत हो जाती है। एक अधर्म-आधारित कहानी को धर्म का मूल बनाकर मासूम जीवों पर ज़ुल्म ढाना और उन्मादी व्यवहार करना किसी भी लिहाज से तर्कसम्मत नहीं। इसलिए, मेरी कामना है कि बकरीद का त्योहार बुरी भावनाओं, बुरे विचारों, नफ़रत और हिंसा की कुर्बानी देने का त्योहार बने, न कि मासूम जीवों की हत्या की पिशाच-लीला बनकर रह जाए।