दिल्ली के चिल्ला गांव के करीब 50 बच्चों को रोज स्कूल जाने के लिए नाव का सफर तय करना पड़ता है।
हम कभी पढ़ते या सुनते हैं कि देश के ग्रामीण क्षेत्रों में छात्रों को पढ़ने के लिए नदी पार करके स्कूल जाना पड़ता था, लेकिन क्या आप ये सोच सकते हैं कि ये दृश्य आपको आज के आधुनिक युग में राष्ट्रीय राजधानी दिल्ली में देखने को मिलेगा । दिल्ली जैसे मेट्रो शहर में, जहां मेट्रो, डीटीसी बसें लाखों-करोड़ों गाड़िया हैं, वहां बच्चों को स्कूल जाने के लिए आज भी नाव का सहारा लेना पड़ रहा है। दिल्ली, जिसे विकास का मॉडल कहा जाता है, वहां आज भी बच्चे नाव से स्कूल जा रहे हैं, इसे विडंवना नहीं तो और क्या कहेंगे? दिल्ली में एक ओर डीएनडी फ्लाईओवर पर कारें दौडती नजर आती हैं वहीं दूसरी तरफ बच्चों की नाव डगमग-डगमग चलती है। 21वीं सदी में देश की राजधानी में बच्चे नाव से स्कूल जाने को मजबूर हैं।
दिल्ली के चिल्ला गांव के करीब 50 बच्चों को रोज स्कूल जाने के लिए नाव का सफर तय करना पड़ता है। बच्चों को सुबह 5 बजे उठना पड़ता है, करीब 6 बजे इनकी नाव की सवारी शुरू होती है।नाव का सफर खत्म होने के बाद एक घंटे की दूरी पैदल तय करनी पड़ती है। तब तक कर उनके जीवन में शिक्षा की ज्योत जल पाती है। दिल्ली में यमुना के किनारे रहने वाले किसानों के बच्चों को रोजाना नाव से नदी पार करके स्कूल जाना पड़ता है। ये एक या दो दिन की बात नहीं बल्कि रोज का काम है।
हर दिन नाव में अपने दोस्तों के साथ स्कूल की सवारी करने वाली पूजा कहती है कि स्कूल जाने के लिए उसे रोज सुबह 5 बजे तैयार होना पड़ता है,फिर 6 बजे से नाव की सवारी करने के बाद फिर एक घंटा पैदल चलने के बाद वो मयूर विहार के अपने स्कूल तक पहुंच पाती है। हर दिन अपनी जान को जोखिम में डाल कर ये बच्चे स्कूल पहुंचते हैं। ये कैसा विरोधाभास है जो देश की राजधानी दिल्ली में जहां एक तरफ सरकार हर समय विकास के दावे करती है तो वहीं दूसरी ओर बच्चे नाव का सफर कर शिक्षा लेने की जंग लड़ रहे हैं। विकास के नाम पर राजनीतिक पार्टियां अपने दावे पेश करती है। लेकिन इस हकीकत को कोई नहीं देखना चाहता है।