आज भी अपने लालों को याद कर परिजनों के आंखों में आ जाते हैं आंसू
जरा याद करो कुर्बानी,क्या महज याद कर लेने से शहीदों को मिलेगा न्याय?
आज कारगिल दिवस है। आज ही के दिन हमने कारगिल की चोटी पर कई कुर्बानियों के एवज में एक बड़ी विजय पाकिस्तान के खिलाफ पायी थी। हर्ष का दिन जरूर है,पर विषाद भी उससे कम नहीं। क्या आप नायक अहमद अली, नायक आजाद सिंह, सिपाही विजेंद्र सिंह से ज्ञात हैं?शायद आप कहेंगे नहीं। ये तीनों भारत मां के वो वीर सपूत है, जिन्होंने जंग-ए-कारगिल में पाक सैनिको के खिलाफ विजय अभियान में अपनी जान गवां दी थी। जब हिन्दुस्तान में पाकिस्तान को परास्तकर कारगिल विजयका नगाड़ा बजाया जा रहा था,जीत का जश्न मनाया जा रहा था,लोग मिठाईयां बाँट खुशियां मना रहे थे,तो शहीदों के घरों में अँधेरा छाया था। आंखों में आंसू थे,परिजन का रो-रो कर बुरा हाल था परन्तु अंदर से दिल इस बात के लिए तसल्ली भी दे रहा था कि उनके घर का बेटा देश के लिए वीरगति को प्राप्त हुआ। सारा देश उनकी जय-जयकार में लगा था,चारो तरफ से फूलों की श्रद्धांजलियां दी जा रही थी। अभी तक उन्होंने आगे की नहीं सोची थी।
भारत मां के सपूत ने तो मिट्टी का हक अदा कर दिया। आज भी अपने सपूतों को याद कर उनके घर वाले गमगीन हो जाते हैं, लेकिन फक्र से कहते हैं कारगिल में शहीद हुआ मेरा लाल अमर हो गया। देश पर कुर्बान होने को हर किसी को नसीब नहीं होता है। तिरंगे का हर कोई कफन नहीं पहनता है।
पटौदी के नायक आजाद सिंह हो या विजेंद्र दोनों ने पाकिस्तानियों का लोहा लिया। चोटी नंबर 5685 इनका लक्ष था जिसे पाक सेना से आजाद करना था,जोरदार हमला भी किया पर तभी घात लगाए पाक सैनिक की गोली विजेंद्र के कलेजे से जा लगी। देशभक्ति को अपना पहला कर्तव्य निभाते हुए विजेंद्र अपनी बहन की शादी में भी नहीं गया था। आपरेशन मेघदूत में सफल अभियान चलनेवाले विजेंद्र कारगिल में खुद को बचा नहीं सका। आज इसके परिवार वाले को गर्व है। इसी कारगिल युद्ध में नायक आजाद ने नायाब मिसाल कायम किया और मुश्कोह घाटी 4730 पर तैनात आजाद ने 21 घुसपैठियों का खात्मा किया लेकिन दुश्मनों की कई गोलियों ने इनकी जान ले ली। जुलाई नौ तारीख को आजाद शहीद हो गए।
इन्ही शहीदों में एक नाम आता है विजयंत का जो देश के लिए शहीद हो गए,उनके नाम पर सैनिकों ने एक मंदिर तक बना दिया जहाँ विजयंत भगवान् की तरह पूजे जाते हैं।
हलाकि उस समय सरकार द्वारा शहीदों के परिवारों को कई तरह के मुआवजे और दूसरे संसाधन देने की घोषणा की गयी जिनमे कुछ को मुआवजा और पेट्रोल-पम्प दिए गए,लेकिन अभी भी कई शहीदों के परिजनों से किये कई वादे लंबित हैं।
देश की एकता और अखंडता कायम रखने और देश की रक्षा के लिए अपनी जान न्यौछावर करने वालों के परिवार बदहाली में अपना जीवन जीने को मजबूर हैं। शहीदों के परिजनों को इस बात का मलाल है कि शहादत के समय केंद्र व राज्य सरकारों ने जो वादे किए थे उन्हें आज भी पूरा नहीं किया गया। उन्हीं में से एक परिवार नवीन कुमार मेहता का भी है। ऐसी ही हैं डॉली नवीन की विधवा, जिन्हे अभी भी इंतज़ार है एक इनायत भरी खबर का। नवीन कुमार मेहता में शुरू से ही देश की सेवा का जज्बा था और इसी के चलते वह सेना में भर्ती हुए थे। वह तेईस राजपूताना बटालियन में तैनात थे और एक उग्रवादी हमले में शहीद हुए थे। उस समय वह नौशेरा कारगिल में तैनात थे। आज से 14 साल पहले जब उनके परिजनों को नवीन के शहीद होने की सूचना मिली तो परिवार में शोक की लहर छा गई। उस समय नवीन का बेटा कुल ढाई साल का था। शहीद नवीन की पत्नी डॉली मेहता पर तो मुसीबतों का पहाड़ टूट पड़ा था। उस समय केंद्र व राज्य की सरकारों ने जहां शहीदों के परिवारों के सदस्यों को नौकरी,पेट्रोल पंप,गैस एजेंसी दिए जाने का ऐलान किया था। निश्चित तौर पर शहीदों के परिजनों का गम कुछ कम करने के लिए यह घोषणाएं की गई थीं,लेकिन जैसे जैसे समय बीतता गया यह घोषाणाएं मात्र घोषणाएं ही साबित हुईं। डॉली मेहता का कहना है कि उन्हें न तो कोई गैस एजेंसी और पेट्रोल पंप दिया गया और न ही उन्हें कोई अन्य सहायता दी गई। उन्होंने बताया कि गैस एजेंसी के लिए उन्होंने कई प्रयास किए,कई दफ्तरों के चक्कर लगाए लेकिन नतीजा शून्य रहा।
शहीद नवीन की पत्नी डॉली मेहता का कहना है कि अब सिर्फ उन्हें 15 अगस्त और 26 जनवरी को ही आमंत्रित किया जाता है। उन्होंने कहा कि पिछले 14 सालों में कोई मंत्री एवं मुख्यमंत्री उनके परिवार का हालचाल नहीं जानने आया। यमुनानगर के तेजली गांव के रहने वाले शहीद परमींद्र सिंह के परिवार का हाल भी अच्छा नहीं है। शहीद परमींद्र के पिता सही राम का कहना है कि उन्हें उस समय प्रदेश के मुख्यमंत्री चौटाला की तरफ से तो मदद दी गई थी लेकिन केन्द्र सरकार से आज तक कोई मदद नहीं मिली। उस समय वायदे तो पेट्रौल पंप व गैस एजेंसी के किए गए थे लेकिन मिला कुछ नहीं। सहीराम का कहना है कि उनका बेटा कारगिल में शहीद हुआ था।
फेहरिस्त लम्बी है,सबकी उम्मीदे हमसे,देश से,सरकार और सरकारी तंत्र से है। अब देखना ये है कि शहीदों की तस्वीरें महज फूलों के हार और अख़बारों के पन्नों तक छपने के लिए है या फिर नौनिहालों के लिए वो प्रेरणा भी बन पाएंगे जिससे वो यह समझ पाएं कि वतन पर कुर्बान होने के बाद उनके लोगों को वो सबकुछ मिल जायेगा जिसे वो जिन्दा रहकर दो वक्त की रोटी लेकर देने के काबिल हो सकता था। अगर ये गारंटी हम अपने सैनिको और युवाओं को नहीं दे पाते तो निश्चित ही शहीदों के प्रति वेवफाई और वादाखिलाफी होगा।