मोहनदास करमचंद गांधी ने दक्षिण अफ्रीका से भारत लौटने के बाद अपनी पुस्तक ‘हिंद स्वराज’ गोपालकृष्ण गोखले को भेंट की थी। गोखले ने पढ़ने के बाद इस किताब को निराशाजनक बताया। उन्होंने उम्मीद जताई कि आगे चलकर इसमें व्यक्त अपने अनेक विचारों को गांधीजी बदल लेंगे। गोखले का जोर समाज सुधार पर अधिक था। वे आधुनिकतावादी माने जाते थे। जबकि ‘हिंद स्वराज’ में गांधीजी ने आधुनिक औद्योगिक सभ्यता की हर निशानी की आलोचना की है। इस गहरे अंतर्विरोध के बावजूद गांधीजी ने गोखले को अपना राजनीतिक गुरु माना।
जवाहर लाल नेहरू आरंभ से आधुनिक सभ्यता के प्रति आकर्षित थे। 1927 में तत्कालीन सोवियत संघ की यात्रा के बाद उनका दृढ़ विश्वास बना कि भारत को भी आधुनिक विज्ञान और तकनीक के जरिए नियोजित विकास के रास्ते पर चलना चाहिए। यह बात वे बेहिचक कहते थे। इस मुद्दे पर गांधीजी से उनका खुला मतभेद था। यह असहमति दोनों के बीच 1930 के दशक में हुए पत्राचार में खुलकर जाहिर हुई। ये पत्र अब सार्वजनिक दायरे में हैं। निष्कर्ष यह कि भारत विकास के किस रास्ते पर जाए- वह कृषि प्रधान, कुटीर एवं लघु उद्योग आधारित ग्राम स्वराज की राह को अपनाए अथवा बड़े उद्योग, प्राकृतिक संसाधनों के दोहन, शहर केंद्रित आधुनिक राष्ट्र-राज्य बनने की तरफ बढ़े- इस बहस के बीच गांधी और नेहरू दो अलग धुरियों पर थे। इसके बावजूद गांधीजी ने जवाहर लाल नेहरू को अपना राजनीतिक उत्तराधिकारी घोषित किया।
परंपरावादी- गर्व से खुद को हिंदू कहने वाले गांधी का दो आधुनिकतावादियों से यह लगाव रहस्यमय लगता है। लेकिन गांधी के लंबे राजनीतिक जीवन में ऐसे रहस्यों- अथवा अंतर्विरोधों की कोई कमी नहीं है। भारत के इतिहास में गांधी के स्थान अथवा योगदान को ऐसे रहस्यों में बिना सिर खपाए कभी नहीं ठीक से नहीं समझा जा सकता। गांधी को सिर्फ उनकी कथनी से समझने की कोशिश भी अक्सर हमें सही जगह पर नहीं ले जाती। मसलन, उनके कुछ चुने हुए वक्तव्यों के आधार पर उन्हें जातिवादी, पोंगापंथी, अंध-विश्वास फैलाने वाला सिद्ध किया जा सकता है। अंबेडकरवादी बुद्धिजीवी या कार्यकर्ता जब ऐसा करने का प्रयास करते हैं, तो वे वास्तविक उद्धरणों के आधार पर ही ऐसा करते हैँ। कम्युनिस्ट लंबे समय तक गांधीजी को पूंजीवाद का दलाल बताते रहे। उनके ऐसा मानने या कहने का आधार भी गांधीजी की कथनी या करनी में ढूंढा जा सकता था। अगर नारीवादी चाहें तो गांधीजी की कथनी में ऐसी बातें ढूंढ सकते हैं, जिनसे उन्हें स्त्रियों की स्वतंत्रता का विरोधी साबित किया जा सके।
लेकिन गांधी की यही हकीकत है। सफेद-स्याह (black and white) के नजरिए से देखा जाए, या दृष्टिकोण किसी खास विचारधारा की अपनी रूढ़ियों से ग्रस्त हो, तो गांधी का वह रूप नजर आ सकता है, जो न्याय, समता एवं स्वतंत्रता के आधुनिक मूल्यों के खिलाफ खड़ा मालूम पड़ेगा। वहीं सफेद-स्याह नजरिए के बिल्कुल दूसरे कोण देखने वालों को गांधी इन मूल्यों के अद्भुत और अद्वितीय योद्धा के रूप में दिखते हैँ। आज के भारत में गांधी को नायक और खलनायक मानने वाली दोनों तरह की शक्तियां हैं, तो शायद उसका कारण दृष्टिकोणों का यही फर्क है। उन दोनों में समान पहलू यह है कि वे गांधी की बारीकियों (nuances) की उपेक्षा करते हैँ। जबकि जिस अंतर्विरोध की चर्चा से इस लेख की शुरुआत हुई, बारीकी में गए बिना उनके तमाम वैसे अंतर्विरोधों को समझना मुश्किल बना रहता है।
अनेक विद्वानों ने इस ओर ध्यान खींचा है कि गांधीवाद कोई किताबी विचारधारा नहीं है। यानी कार्ल मार्क्स की तरह गांधी ने ऐसे ग्रंथ नहीं रचे, जिसमें इतिहास की उनकी समग्र समझ तथा समाज को बदलने के तरीके लिपिबद्ध हों। इसके विपरीत उनके विचार समय और चुनौतियों के मद्देनजर बने और विकसित हुए। ये विचार चाहे जैसे भी थे, उसके अनुरूप जीने की उन्होंने कोशिश की। यही संदर्भ है, जिसमें उन्होंने कहा था कि ‘मेरा जीवन मेरा संदेश है।’यानी जैसा जीवन उन्होंने जिया, उससे अलग करके उनके विचारों को नहीं समझा जा सकता।
जिस व्यक्ति का तकरीबन पांच दशकों का सार्वजनिक जीवन रहा हो, जिसकी समझ सामने आने वाली चुनौतियों के मुताबिक विकसित हुई हो और जिसने संघर्ष की रणनीतियां स्थिति-विशेष के मुताबिक चुनी हों, उसके विचारों में तारतम्यता और एकरूपता की तलाश करना निरर्थक ही है। ऐसा करते हुए कभी सही निष्कर्षों तक नहीं पहुंचा जा सकता। यहां एक उदाहरण प्रासंगिक होगा। यह निर्विवाद है कि गांधीजी ने वर्ण व्यवस्था में आस्था व्यक्त की थी। मगर यह भी तथ्य है कि उन्होंने छुआछूत प्रथा के खिलाफ जोरदार और कई मौकों पर जोखिम भरा अभियान चलाया। क्या वर्ण व्यवस्था की कोई ऐसी कल्पना संभव है, जो जन्म आधारित ऊंच-नीच, पवित्रता (शुद्धता) और छुआछूत से परे हो? व्यवहार में ऐसा कभी प्रचलन में रहा हो, इसके कोई ऐतिहासिक प्रमाण नहीं हैं। बहरहाल, 1940 तक आते-आते ‘वर्ण व्यवस्था’ के समर्थक गांधी ने एलान कर दिया कि वे सिर्फ उन्हीं विवाहों में शामिल होंगे, जो अंतर-जातीय हों और जोड़ी में कोई एक दलित (उनके शब्दों में हरिजन) हो। वर्ण व्यवस्था के बारे में गांधीजी के रुख की चर्चा करते समय इस अंतर्विरोध पर जरूर रोशनी डाली जानी चाहिए। इसी सिलसिले में उस घटना का जिक्र भी मौजूं है, जब 1934 में बिहार में आए भीषण भूकंप को गांधीजी ने ‘छुआछूत के हमारे पाप का परिणाम’ कह दिया था। गुरुदेव रवींद्र नाथ टैगोर से लेकर प्रेमचंद तक ने इस पर गहरा एतराज जताया था। कहा गया था कि गांधीजी अंधविश्वास को बढ़ावा दे रहे हैँ। किसी विवेकशील व्यक्ति के लिए ऐसे वक्तव्य को स्वीकार करना संभव नहीं है। मगर एक सामाजिक कुरीति के खिलाफ एक अंधविश्वास भरी बात कहने में गांधी को कोई दिक्कत नहीं हुई। ऐसी रणनीति सही है या गलत- यह दीगर सवाल है। मगर इससे गांधी के अंतर्विरोधों में एक कड़ी और जुड़ी। तलाश की जाए, तो ऐसी कड़ियों की कोई कमी नहीं है।
प्रमुख सवाल है कि क्या ये कड़ियां गांधी की असली सूरत हैं? अथवा जाति-मजहब, क्षेत्रीयता, वर्ग और अन्य दूसरे अनगिनत विभिन्नताओं में जीने वाले एक देश में उपनिवेशवाद विरोधी राष्ट्रीय आंदोलन का नेतृत्व कर रहे नेता की मजबूरी की झलक हैँ? खासकर उस नेता की, जिसने राष्ट्रीय स्वतंत्रता आंदोलन को अधिकतम जन-भागीदारी के साथ लड़ने का तरीका चुना था? साफगोई बड़ा गुण है। लेकिन अपने विकास क्रम में मानव समाज अभी उस मुकाम पर नहीं पहुंचा है, जब राजनीति एवं कूटनीति में भी बेलाग जुबानी से अपेक्षित परिणामों की आशा की जा सके। जब हिंदू समाज की ऐतिहासिक विषमता एवं उसमें निहित शोषण के खिलाफ संघर्ष को उपनिवेशवाद विरोधी लड़ाई से जोड़ने की चुनौती हो, तो उसमें किस हद तक साफगोई अपेक्षित है या थी- इस सवाल का तब से लेकर आज तक कोई स्पष्ट उत्तर नहीं दिया गया है। ज्योतिबा फुले से लेकर बाबा साहेब अंबेडकर ने हिंदू समाज में मौजूद बहुजन के दमन के खिलाफ संघर्ष को आगे बढ़ाया। मगर इस क्रम में ब्रिटिश उपनिवेशवाद को उन्होंने अपना सहायक माना। उन घटनाक्रमों के दशकों बाद अब यह विचारणीय प्रश्न है कि ब्रिटिश राज से भारत की आजादी जरूरी थी या नहीं? क्या उसके बिना भारतीय जन की आर्थिक हालत सुधारी जा सकती थी? क्या यहां विकास की कोई ऐसी रणनीति अपनाना तब संभव था, जिसका लक्ष्य आम भारतीय की स्वतंत्रता में विस्तार करना होता? इसके अतिरिक्त यह प्रश्न भी प्रासंगिक है कि क्या उपनिवेशवाद और उभरते पूंजीवाद से लड़ाई एक साथ लड़ी जा सकती थी?
अनेक कम्युनिस्ट बुद्धिजीवियों ने गांधीजी को पूंजीवाद का हितैषी बताते हुए माओ जे दुंग के ‘जनता के बीच के अंतर्विरोधों को हल करने के सिद्धांत’ की पूर्ण उपेक्षा की है। उन्होंने इस पर खूब जोर डाला कि गांधीजी पूंजीपतियों या जमींदारों के खिलाफ मजदूरों और किसानों की लड़ाई को एक सीमा से आगे नहीं जाने देते थे। लेकिन इस प्रश्न का उत्तर देने की कोशिश कभी नहीं की गई कि किसी संघर्ष में अधिकतम जन-भागीदारी बनाना उस स्थिति में संभव है, जब उन वर्गों को भी अपने विरोधी खेमे में धकेल दिया जाए जिनके उस संघर्ष में कुछ दूर तक साथ चलने की संभावना हो? अगर इस रणनीति को समझा जाए तो फिर मजदूर और किसानों के संघर्ष में गांधी की भूमिका को कहीं बेहतर ढंग से समझा जा सकता है। इस भूमिका की शुरुआत चंपारण सत्याग्रह से हुई थी।
चंपारण सत्याग्रह का शताब्दी वर्ष आरंभ हो चुका है। महात्मा गांधी 1917 के अप्रैल महीने में चंपारण पहुंचे थे। इसके बाद वहां उन्होंने सत्याग्रह किया, जो अब भारतीय इतिहास के एक महत्त्वपूर्ण अध्याय के रूप में दर्ज है। अनेक इतिहासकारों ने कहा है कि इसी अभियान से किसानों का मुद्दा भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन का अभिन्न अंग बना। यहीं से शुरू हुई प्रक्रिया जमींदारी उन्मूलन तक गई। चंपारण सत्याग्रह के दौरान ही गांधीजी ने आम भारतीय किसान की तरह का लिबास अपनाया और वंचित तबकों से खुद को जोड़ने की कोशिश शुरू की। इससे आम भारतीय के मन में उनके लिए जगह बनी। इससे भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस का भी चरित्र बदला। इसके बाद किसान-मजदूर-महिलाओं की स्वतंत्रता आंदोलन में सक्रिय भागीदारी बनी, जिससे आंदोलन का फ़लक व्यापक हुआ। कई इतिहासकार मानते हैं कि इसी परिघटना ने भारत में लोकतंत्र का जनाधार तैयार किया। उसी के दबाव के कारण स्वतंत्रता के बाद लोकतांत्रिक व्यवस्था में अस्तित्व में आई।
आज जबकि इतिहास पर नए सिरे से निगाह डाली जा रही है, ऐतिहासिक शख्सियतों का पुनर्मूल्यांकन हो रहा है,चंपारण सत्याग्रह की विरासत और उसी संदर्भ में महात्मा गांधी की भूमिका पर गौर करने की भी आवश्यकता है।
चंपारण के संघर्ष से गांधीजी ने यह सबक लिया था कि भारत की आजादी की लड़ाई में किसानों और श्रमिक वर्ग को शामिल करना जरूरी है। तो उनका अगला मुकाम अहमदाबाद बना। वहां कपड़ा मिल मालिकों और मजदूरों में विवाद चल रहा था। 35 फीसदी वेतन बढ़ाने की मांग मजदूर कर रहे थे। गांधीजी वहां पहुंच कर आंदोलन में शामिल हुए। उन्होंने मजदूरों को हड़ताल पर जाने की सलाह दी। खुद आमरण अनशन पर बैठे। 21 दिन की हड़ताल के बाद मालिकों और मजदूरों में समझौता हुआ। मालिक 35 फीसदी तनख्वाह बढ़ाने पर राजी हुए। 1918 के इस संघर्ष को भारत में ट्रेड यूनियन आंदोलन की शुरुआत माना जाता है।
अहमदाबाद के बाद गांधीजी का अगला मुकाम खेड़ा (गुजरात) बना। सूखे के कारण किसान मुसीबत में थे। मालगुजारी माफ करने की उनकी मांग सरकार ने ठुकरा दी थी। वहां जाकर गांधीजी ने सत्याग्रह किया। किसानों से कहा कि वे मालगुजारी ना दें। अंततः सरकार ने आदेश जारी किया कि मालगुजारी सिर्फ उन किसानों से ही वसूली जाए, जो ऐसा करने की स्थिति में हैं। तो 1917 और 1918 के इन सत्याग्रहों ने किसान और मजदूर आंदोलनों को भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन का अभिन्न अंग बनाया। इस बात को आगे बढ़ाते हुए इस पर भी ध्यान देना जरूरी है कि भारतीय राजनीति और सार्वजनिक जीवन में स्त्रियों के लिए जगह बनाने में गांधीजी ने बेहद अहम भूमिका निभाई। अहिंसक संघर्षों के जरिए इसके लिए उन्होंने अनुकूल स्थितियां बनाईं। लेकिन अगर सिर्फ गांधीजी की कथनियों पर गौर करें तो नारीवाद की वह चेतना उसमें शायद ही कहीं नजर आए, जिस पर आज यह विचारधारा खड़ी है। मुमकिन है कि गांधी की कई टिप्पणियां इस चेतना के खिलाफ नजर आएं।
यह जानने का हमारे पास कोई आधिकारिक स्रोत नहीं है कि क्या गांधीजी ने जानबूझ अपनी कथनी और करनी में फर्क बनाए रखा अथवा ऐसा होता चला गया? क्या उन्होंने ऐसी सुविचारित रणनीति अपनाई थी, जिससे पूंजीपति, सवर्ण जातियां और पुरुषवादी सोच वाले लोग स्वतंत्रता आंदोलन से अलग ना हो जाएं? इन सारे सवालों के जवाब संभवतः विश्लेषण और समग्र आकलन से ही मिल सकते हैँ।
लेकिन ऐसा आकलन तभी हो सकता है, जब हम गांधी की कथनी और करनी को उस समय की स्थिति और तब मौजूद चुनौतियों के बरक्स रखकर देखेँ। उसे उपनिवेशवाद के खिलाफ राष्ट्रीय स्वतंत्रता संघर्ष के संदर्भ एवं उसके तकाजों के परिप्रेक्ष्य रखकर देख पाएं। धर्म और जीवन के बारे में गांधी की दार्शनिक समझ पर गौर कर सकेँ। जो व्यक्ति खुद को गर्व से हिंदू कहता था, यह उसी का कथन है कि दुनिया में जितने व्यक्ति हैं, उतने धर्म हैं। ईश्वर को सत्य मानने की सदियों पुरानी हिंदू परंपरा के बीच उस व्यक्ति ने सत्य को ईश्वर और अहिंसा को उसे पाने का साधन कहकर इस दर्शन को 180 डिग्री पलट दिया था। ये बातें कहने का यह कतई अर्थ नहीं है कि गांधी को उनके भक्त के नजरिए से देखा जाए। अथवा सिर्फ उनके सकारात्मक योगदान पर नजर डाली जाए। बेशक उनकी भूल और उनकी सोच में निहित समस्यामूलक तत्वों की खुलकर चर्चा होनी चाहिए। मगर ऐसा करते हुए यह जरूर ध्यान में रखना चाहिए कि गांधी का जीवन (कथनी और करनी के) अंतर्विरोधों से भरा है, जिनकी उपेक्षा कर हम हमेशा गलत निष्कर्ष पर पहुंचेंगे।