नॉर्वे में लगभग नौ हजार भारतीय हैं, और नब्बे हजार पाकिस्तानी। पाकिस्तानी ७० की दशक में ‘सीजनल वर्कर’ की तरह आये, और धीरे-धीरे सरकार ने इनको नागरिकता दे दी। इनका कुनबा बढ़ता गया। इनकी पहली खेप मजदूरों की थी, जिनमें कुछ नशा गैंगस्टर भी बने। नॉरवेजियन फिल्मों में इनका मजाक कुछ ऐसे ही उड़ता है जैसे कभी हिंदी फिल्मों में बिहारियों का।
पर इनके बच्चे डॉक्टर, वकील, नेता सब बने। आज नॉर्वे के मेडिकल कॉलेजों के १०% विद्यार्थी पाकिस्तानी है। मिस पाकिस्तान यहीं की मोहतरमा हैं। मो. आसिफ जो कभी नामी फास्ट बॉलर थे, ओस्लो क्लब में खेलते हैं। पर यहाँ पाकियों से आप पूछो, कहाँ से हो? कुछ कहेंगें नॉर्वे, कुछ अफगानिस्तान, कुछ भारत भी ठोक देंगें। सबको ‘आइडेंटीटी क्राइसिस’ है जैसे कुछ बिहारी खुद को दिल्ली वाला, कलकत्तावाला कहते थे। पाकिस्तानी यहाँ गँवार माने जाते हैं, घेट्टो संस्कृति वाले।
जब यहाँ तेल के खजाने मिले तो इन्होनें भारत से बहुत इंजीनियर बुलाए। बंबई में बड़ी कंपनी स्थापित की। आई.टी. के लोग आये। रिसर्च वैज्ञानिक आये। डॉक्टरों में मैं गिने-चुने दस भारतीयों में हूँ। जो ढंग की अंग्रेजी बोले, दिमागी लगे पर हो भूरे रंग का वो भारतीय। ‘नॉर्वे आइडल’ संगीत शो के जज भी भारतीय हैं। दरअसल बड़े टैक्स भरने वाले कर्मचारी भारतीय हैं, इसलिये इज्जत है। पाकिस्तानी यहाँ के सिस्टम को लपेटना सीख गए हैं, और सरकार को खूब चूसते हैं, टैक्स में फूटी कौड़ी नहीं देते।
ये भी खूब मजे लेते हैं। पाकी-पाकी कहकर चिढ़ाते हैं। मलाला को नोबेल पुरस्कार देकर उनकी कट्टरपंथी का मजाक उड़ाते हैं। सच पूछिए तो कभी-कभी इन लोगों पर तरस आता है कि इनके बाप-दादा मजदूर बनकर आये या गँवार थे, इसमें इनकी क्या गलती? पर फिर सोचता हूँ, साले पाकी!
(लेखक, पेश से डॉक्टर हैं, बिहार के दरभंगा के रहने वाले हैं, फिलहाल नॉर्वे में रहते हैं। अच्छे ब्लॉगर और लेखक हैं। मीडिया सरकार ने यह पोस्ट उनकी अनुमति के बाद उनके फेसबुक वॉल से साभार लिया है। )