कांग्रेस का हलाल और भाजपा का झटका,क़त्ल तो होना ही है
लगातार अलग अलग मुद्दे पर देश में अतिवादी ,उग्रवादी और आतंकवादी तमाम संगठनो या समूहों को लेकर तरह तरह के वाद-विवाद हुआ करते रहे हैं। कई बार इन संगठनो के सफाये और इनसे मुक्ति के रास्ते भी अलग अलग सरकारों के द्वारा अख्तियार किये गए। इन रास्तों को अपनाने की जरूरतों पर उनका अपना तर्क भी रहा। ये भी सही है कि कई बार इन्ही सरकारों और पार्टियों के लिए भस्मासुर बन चुके अतिवादियों खासकर माओवादियों और तमाम नक्सलियों के ऊपर बड़े प्रहार भी किये गए जिसमे असली मुठभेड़ से लेकर फर्जी मुठभेड़ का भी रास्ता अपनाया गया। पर ये रास्ता भी अपनी सुविधा के अनुसार ही चुना गया। जहाँ ये नक्सली या माओवादी तत्व इन सरकारी दलों के रिमोट से चलने को तैयार नहीं मिले वहां इन्हे नेस्तनाबूत करने की तरकीब लगायी गयी। जिसमे कई बड़े नक्सल और इस तरह के सांघटनिक प्रमुखों और लड़ाकों को धोखे और छल के द्वारा मार डाला गया। नक्सलवाडी से शुरू प्रतिक्रिया आज पूरे देश में अगर फ़ैल गयी है तो इसमें कहीं से भी इन घटनाओ और आजतक विभिन्न वारदातों को अंजाम देने वाले विभिन्न समूहों की किसी मजबूती या रणनीति को श्रेय नहीं जाता। दरअसल अभी तक देश के अलग अलग हिस्सों में घटित इस तरह की घटनाओं को जिसे विश्लेषक एक आंदोलन का नाम देते हैं ,वो आंदोलन नहीं एक ऐसा विरोध और विद्रोह भर है जिसकी चिंगारी भी हमारे ही शाशकों या सियासी रणनीतिकारों के द्वारा दी गयी होती है.
सामंती शक्ति ,दबंगई और कमजोरों पर बलियों के अतिक्रमण की कहानी में कमजोरो के कंधे पर बंदूक भी यही सियासी लोग रखवाकर रंजिश और बदले की आग लगाते हैं और इसे अलग अलग तरीके से एक आंदोलन का नाम दे दिया जाता है। दरअसल नक्सलवाद कोई आंदोलन नहीं ,बिहार हो या बंगाल,उड़ीसा हो या आंध्रपदेश हर जगह जो भी समूह एकजुट हुआ वो वहां की स्थानीय प्रवृतियों के खिलाफ उठी थी जो उन्हें पसंद नहीं था ,और विरोध करनेवाली शक्तियां वहीँ इसे फरिया लेने के मूड में थी। लेकिन बिहार से लेकर दक्षिण तक इन आवाजों को कुछ खास सिद्धांतवादियों ने अपना मुखौटा बना लिया और इन समूहों के प्रणेता बन स्पॉट से दूर बैठ रिमोट के द्वारा मनमाफिक अंजाम देने में अपनी भूमिका निभाते रहे। अब इसमें यह कहने की कोई जरूरत नहीं कि ये कथित नेता-प्रणेता कौन थे ,कौन हैं ?इन लोगों की भूमिकाएं तो सदा से ही किसी ठेकेदार की भांति ही रही है जो महज काम देखता है ,काम के आचरण या स्वरुप को नहीं ,काम करनेवाले के चेहरे को भी एक ही रूप में देखता है ,वो है दाता का चेहरा। दाता किसी भी तरह का हो सकता है ,पावर देनेवाला ,पैसा देनेवाला या कोई पद देनेवाला। ऐसे में ये भी समझने की कोई जरूरत नहीं कि ऐसे लोगों का निशान क्या है और पहचान क्या है ? कमल हो या हाथ , हंसिया हो या हथौड़ी या फिर अपनी कोई खास आभा सबके लिए काम ये ईमानदारी से करते हैं।
ये अलग बात है कि मौके और अवसर के अनुसार इनसे दूरी या नजदीकी बनाने की भी दिशा और दशा तय की जाती है। याद कीजिये एक समय था जब वर्ष 2008 में छत्तीसगढ़ में हुए विधानसभा के चुनावों में बस्तर के इलाक़े की 12 सीटों पर कांग्रेस उम्मीदवारों को करारी हार का सामना करना पड़ा था . ये सभी सीटें भारतीय जनता पार्टी के उम्मीदवारों ने जीतीं. उसी तरह झारखंड के माओवाद प्रभावित इलाकों में भी भारतीय जनता पार्टी के उम्मीदवारों ने विधानसभा के चुनावों में अच्छा प्रदर्शन किया.आखिर क्या वजह थी इस धमाकेदार की जीत की या हार की ? माना जाता है कि कांग्रेस के ख़िलाफ़ आक्रोश की वजह से ही माओवादियों ने लोगों को कांग्रेसी उम्मीदवारों को वोट डालने को लेकर धमकियां देनी शुरू कर दीं। आखिर कांग्रेस से इन माओवादियों की दूरी क्यों हुयी। एक तो जिस कॉग्रेस पर नक्सलीयों और माओवादियों से सांठगाँठ का आरोप पहले लग रहा था वही कांग्रेस अब इन उग्र ताकतों पर चोट करने लगी थी। पहले जो लोग इनके सिपाही की तरह काम करते थे वही अब कांग्रेसी के लिए भस्मासुर बन गए थे जिसे तमाम करना चाह रही थी कांग्रेस और छतीसगढ़ में एक्शन में आ गयी , ऐसे में इन भस्मासुरों ने कांग्रेसियों की जब खिलाफत की तो स्वाभाविक है इसे भाजपा ने वैसे ही लपक लिया मानो अंधे के पैर के नीचे बटेर आ गया हो।
कांग्रेस के ख़िलाफ़ माओवादियों का सबसे बड़ा हमला छत्तीसगढ़ के बस्तर संभाग की जीरम घाटी में वर्ष 2013 की 25 मई को हुआ, जिसमें कांग्रेस के बड़े नेता और भारत के गृह मंत्री रह चुके विद्याचरण शुक्ल सहित 30 नेताओं की मौत हुई. मरने वालों में कांग्रेस के नेता महेंद्र कर्मा और प्रदेश कांग्रेस कमेटी के अध्यक्ष नंद कुमार पटेल भी शामिल थे.महेंद्र कर्मा वही नेता थे जिन्होंने एक समय में नक्सलीयों के खिलाफ सलवा जुडूम बनाकर लड़ाई की थी।
अब वामपंथी विचारकों और नक्सलियों के सहयोगियों की गिरफ्तारी के बाद से देश में राजनीति तेज हो गई है. गिरफ्तार नक्सल समर्थकों के समर्थन में वामपंथी बुद्धिजीवियों से लेकर कांग्रेस के नेताओं ने भी बयान देना शुरू कर दिया है. किसी ने इसे संविधान का तख्तापलट बताया तो किसी ने आरएसएस की वैचारिक गुंडागर्दी. नक्सलियों के प्रति प्रेम भावना रखने वाले वामपंथियों की हकीकत जगजाहिर है लेकिन इस पूरे मसले पर कांग्रेस पार्टी का खुलकर समर्थन में आना हैरान करता है. जिन लोगों की गिरफ्तारी हुई है उनमें 3 लोग पहले भी कांग्रेस शासन में नक्सलियों के साथ अपनी सांठ-गांठ को लेकर जेल की हवा खा चुके हैं. अब इनका इस तरह खुलकर समर्थन करना कांग्रेस की कौन सी मजबूरी है ?उसे अब क्या डर सत्ता रहा है ? कांग्रेस पार्टी के अध्यक्ष राहुल गांधी ने एक ट्वीट किया जिसमें उन्होंने तथाकथित मानवाधिकार कार्यकर्ताओं की गिरफ्तारी के लिए अपनी नाराजगी जाहिर की. इसी ट्वीट में उन्होंने आरएसएस के ऊपर भी निशाना साधा. कांग्रेस अध्यक्ष ऐसे भी आजकल संघफोबिया नाम की बीमारी से ग्रसित हैं. राहुल गांधी को ये बताना चाहिए कि कांग्रेस शासन में इन तथाकथित बुद्धिजीवियों की गिरफ्तारी के पीछे क्या कारण थे. देश में व्याप्त गरीबी का वैचारिक इस्तेमाल अपने एजेंडे के लिए करना इन तथाकथित बुद्धिजीवियों का पेशा रहा है.
कांग्रेस को सत्ता में पहुंचने की इतनी जल्दबाजी है कि अपने शासन के दौरान की गिरफ्तारियों को याद करना उसे रास नहीं आ रहा है. नक्सल समर्थक और नक्सलियों के बीच के फासले को परिभाषित करने का दुःसाहस करने से पहले कांग्रेस के नेताओं को अपने कार्यकाल के दौरान दंतेवाड़ा और सुकमा में हुए नक्सली हमलों की याद क्यों नहीं आई. छत्तीसगढ़ के सुकमा हमले में हुए अपने पार्टी के नेताओं की मौत को अगर भूल भी गए तो दंतेवाड़ा के शहीद जवानों को याद करने में क्या हर्ज था? यहाँ ये कहना गैरवाजिब नहीं होगा कि यदि नक्सलवाद और ऐसी शक्तियां भाजपा के लिए ध्रुवीकरण के रूप में सहायक बन गयी तो वहीँ कांग्रेस भी यारी से कुछ कम भी नहीं चाहती ,वैसे कांग्रेस में अभी भी पूर्व पी एम मनमोहन सिंह मौजूद हैं ,उनसे ही रूबरू हो ले तो आईने में सही सूरत भी दिख जाएगी।