संकट पत्थलगड़ी का, आफत तंत्र और समाज पर
पिछले कुछ महीनो से झारखण्ड के खूँटी और कुछ दूसरे इलाके जहाँ आदिवासियों की तादाद है वहां इन दिनों संकट-प्रवंधन (क्राइसिस मैनेजमेंट ) की कमी की वजह से सभी सांसत में हैं,कुछ दिनों से पथलगड़ी समाज की कारस्तानी बढ़ती जा रही है और इसका असर अब आम लोगों की जिंदगी पर भी पड़ने लगा है। आखिर पत्थलगड़ी है क्या,इससे जुड़े लोग चाहते क्या हैं,टकराव किससे है?
दरअसल सामाजिक संस्थाओं के विशेषज्ञों और जानकारों ने जो व्याख्या की है,उसके अनुसार पथलगड़ी एक परंपरा और चलन है, जिसमे वहां के मूल निवासी अपनी मूल-भूत सुविधाओं और अधिकार को लेकर सरकारी तंत्र के खिलाफ बगावती तेवर में गतिविधियां किया करते हैं। एक जटिल सरकारी तंत्र के बजाय वो अपने ग्राम और ताल्लुका स्तर पर अपना राज चाहते हैं जहाँ अपनी सुख सुविधा के संसाधनों पर खुद का अधिकार रख उनका प्रयोग करना चाहते हैं।अपने इलाके या सीमा के पास एक शिलालेख को जमीन में गाड़ा जाता है जिसपर उनके नियम कायदा और फरमान खुदा होता है और इसी नियम के तहत पूरे समुदाय को चलाने की बात करते है,सरकारी नीतियों में खामी या अप्रभावी बताते हुए खुद से योजना को बनाने और पूरा करने की मांग करते हैं। आज भी ये पत्थलगड़ी समाज भारतीय संविधान में अंकित कुछ प्रावधानों की जगह आजादी से पहले की कुछ प्रावधानों के अनुसार जंगल,जमीन,जल सहित सभी संसाधनों पर अपना नियंत्रण चाहती है। पत्थलगड़ी कार्यक्रमों में ब्रिटिश काल के जीओआइ एक्ट 1935 (गवर्नमेंट ऑफ इंडिया एक्ट) की वकालत की जा रही है जिसे आजादी के बाद देश के संविधान में निरस्त किया गया है। अब इसी धारा की गलत व्याख्या कर भोलेभाले आदिवासियों को शामिल कर एक बड़ा आंदोलन खड़ा करना चाहते हैं जिसमे कहीं न कहीं सियासत की भी बू आती है।इनके समाज का समुचित विकास नहीं हो पाया है,इस तरह के आरोप के बाद धीरे-धीरे इसमें शामिल होनेवाले लोगो की तादाद बढ़ती जा रही है और इसके बढ़ते उग्र रूप से लोग भी आतंकित होने लगे हैं। सरकार की कार्यप्रणाली पर सवाल जरूर खड़े किए जाने चाहिए लेकिन बाहर के लोगों का गांव में प्रवेश वर्जित बताना,पुलिसवालों को जब-तब बंधक बनाना ठीक नहीं है। जबकि संविधान की धारा 19 (डी) देश के किसी भी हिस्से में किसी नागरिक को घूमने की स्वतंत्रता देता है।अनूसूचित क्षेत्रों में माझी-परगना,मानकी-मुंडा, डोकलो सोहोर, पड़हा जैसी रूढ़िवादी व्यवस्था तो अब भी कायम हैं।
लेकिन साथ ही ऐसा भी जान पड़ता है कि अगर पांचवी अनुसूची के तहत पेसा कानून (पंचायत राज एक्सटेंशन टू शिड्यूल एरिया एक्ट,1996) को लागू करने में सरकार की मंशा ठीक होती तो शायद ये परिस्थितियां नहीं बनती और नक्सली समस्याओं से भी नहीं जूझना पड़ता। इसतरह के कानून में ग्रामसभाओं को कई शक्तियां दी गई है, जिसकी अनदेखी की गई। इधर पत्थलगड़ी के साथ कई ग्रामप्रधान मुहर लगा पत्र सरकारी दफ्तरों में भेजकर यह सूचित कर रहे हैं कि जाति,आवासीय,जन्म-मृत्यु प्रमाण-पत्र अब उनके द्वारा जारी किए जा रहे हैं इनके अलावा ट्राइबल सब प्लान के फंड ग्रामसभा को देने तथा कथित जनविरोधी नीतियों को तत्काल खत्म करने पर जोर दिया जा रहा है। ग्राम सभाओं के द्वारा पत्र भेजे जाने से ग्रामीणों के बीच संशय की स्थिति पैदा होने लगी है। सरकारी कर्मचारी गांव जाने से भय खाने लगे हैं।क्योंकि कई ग्राम-सभा सरकारी योजना में शामिल नहीं होने तथा बच्चों को सरकारी स्कूल नहीं भेजे जाने का आह्वान करने लगी है। खूंटी के चामड़ी,बरबंदा,भंडरा,कुदाटोली, सिलादोन पंचायत के कई स्कूलों में इसका असर भी देखा जा सकता है।सरकारी स्कूल भवनों की जर्जर हालत, शिक्षकों की कमी पर गुस्सा है।लिहाजा ग्रामसभा के सदस्य बच्चों को खुद पढ़ाने में जुटे हैं।
अब ताज़ा घटना क्रम में एक गैर सरकारी संस्था की कुछ महिलाओं-बच्चियों के साथ जिस तरह का अमानवीय व्यव्हार किया गया वो चिंता जनक है,इसमें पथलगड़ी का हाथ और एक स्थानीय मिशन स्कूल और पादरी की भूमिका बताई जा रही है। पथलगड़ी एक्टिविस्टों के द्वारा एक सांसद के सुरक्षा कर्मियों को अगवा कर पुलिस और प्रशाशन को नाको चने चबवा दिया है।कोचांग गांव में मानव तस्करी को लेकर इसके खिलाफ जागरूकता फ़ैलाने गयी पांच लड़कियों के साथ बन्दूक की नोक पर सामूहिक दुष्कर्म किया गया और इनके पुरुष सहयोगियों को भी मारा पीटा गया। हलाकि पुलिस अभी तक तीन आरोपियों को गिरफ्तार करने का दावा कर रही है परन्तु ये संतोषप्रद करवाई नहीं कही जा सकती। अभी भी कोचांग और निकटवर्ती इलाकों में तनाव बरक़रार है और पुलिस के साथ स्थानीय लोगों का टकराव जारी है।
ऐसे में अहम् सवाल ये है कि इस समस्या का हल क्या है? नक्सल आंदोलन की राह पर पत्थलगड़ी भी चल पड़े हैं,समय रहते स्थानीय सरकार,केंद्र और समाज के लोगों के बीच सामंजस्य बैठा कर समाधान नहीं ढूँढा गया तो निकट भविष्य में ये नासूर का रूप ले सकता है।