बुधवार को वे प्रधानमंत्री के तथाकथित ‘निजी भ्रष्टाचार’ के बारे में संगीन जानकारी होने का दावा कर रहे थे, कह रहे थे कि उनके मुंह खोलने से देश में भूकंप आ जाएगा, लेकिन शुक्रवार को उन्होंने कांग्रेस और विपक्षी दलों में ही भूकंप ला दिया। चले थे मोदी को घेरने, लेकिन अपने ही विघ्नसंतोषियों के बिछाए जाल में ऐसे घिरे कि अब विपक्षी दलों को मुंह दिखाते नहीं बन रहा।
हम बात कर रहे हैं कांग्रेस की तरफ़ से प्रधानमंत्री पद के स्थायी उम्मीदवार राहुल गांधी जी की, जो प्रधानमंत्री के निजी भ्रष्टाचार की पोल खोलकर भूकंप लाने की बजाय अपने पूरे कुनबे के साथ प्रधानमंत्री जी के दर्शन करने चले गए और जब दर्शन करके लौटे, तो गदगद भी दिखे। कहा- मोदी जी ने कहा है कि मिलते रहिए। लेकिन उनकी तीक्ष्ण बुद्धि का कमाल देखिए कि उन्हें समझ ही नहीं आया कि मोदी ने क्यों कहा उनसे कि मिलते रहिए।
शायद अब समझ में आ रहा हो, जब कुछ विपक्षी दलों ने नोटबंदी के विरोध में राष्ट्रपति से मिलने जा रहे प्रतिनिधिमंडल का यही कहकर बहिष्कार कर दिया कि एक तरफ आप अकेले-अकेले प्रधानमंत्री से मुलाकात करते हैं, दूसरी तरफ विपक्षी एकता की बात करते हैं। राष्ट्रीय जनता दल (राजद), समाजवादी पार्टी (सपा), बहुजन समाज पार्टी (बसपा), द्रविड़ मुनेत्र कड़गम (द्रमुक) और राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी (राकांपा) ने कांग्रेस के नेतृत्व में राष्ट्रपति भवन जाने से इनकार कर दिया।
इतना ही नहीं, प्रधानमंत्री से राहुल की मुलाकात पर अब कांग्रेस की हालत भी सांप-छूछंदर जैसी हो गई है। उसके नेताओं को समझ में ही नहीं आ रहा है कि ऐन इस वक्त जब नोटबंदी पर माहौल गरम है और सरकार को घेरने की कवायद चल रही है, इस मुलाकात की ज़रूरत क्या थी? अब इस फैसले का ठीकरा फोड़ने के लिए वे कोई सिर ढूंढना चाहते हैं, लेकिन वह सिर मिले कहां से? क्योंकि सारे प्रमुख सिर तो उस प्रतिनिधिमंडल में शामिल थे। मल्लिकार्जुन खड़गे थे, ज्योतिरादित्य थे, राज बब्बर थे, अमरिंदर थे, प्रमोद तिवारी थे, गुलाम नबी आज़ाद थे, आनंद शर्मा थे।
मज़ेदार बात यह है कि कांग्रेस ने दो हफ्ते पहले ही इस मुलाकात के लिए प्रधानमंत्री से समय मांगा था और प्रधानमंत्री ने भी सारा गुणा-गणित लगाकर संसद सत्र के आखिरी दिन यानी 16 दिसंबर का समय दे दिया था। लेकिन प्रधानमंत्री की पोल खोलकर भूकंप लाने का मंसूबा बांधे राहुल गांधी समझ ही नहीं सके कि इस दिन मुलाकात से ख़ुद उन्हीं की पार्टी और विपक्षी खेमे में भूकंप आ जाएगा। …तो अब आप ही बताइए कि आख़िर राहुल गांधी को क्यों न कहा जाए राजनीति का पप्पू?
मान लीजिए कि प्रधानमंत्री से मुलाकात की इस गलत टाइमिंग और ग़लत फैसले के लिए कांग्रेस के किसी नेता के सिर पर ठीकरा फोड़कर राहुल गांधी को बचा भी लिया जाए, लेकिन नेता वह नहीं होता है, जो अपनी ज़िम्मेदारी हमेशा दूसरों पर डालकर बच निकलने की कोशिश करे। नेता वह होता है जो हमेशा आगे बढ़कर अपनी ज़िम्मेदारी कबूल करे और अपने साथियों का हौसला बुलंद रखे। राहुल गांधी यहीं मार खा जाते हैं।
कहने को तो उनकी मां और उनकी पार्टी उन्हें देश की सबसे बड़ी ज़िम्मेदारी लेने के लिए प्रोजेक्ट कर रही है, लेकिन हक़ीक़त यह है कि वे एक छोटी-सी ज़िम्मेदारी भी नहीं ले सकते। इसीलिए, सोनिया गांधी की बीमारी के बावजूद आज तक उन्हें कांग्रेस का अध्यक्ष नहीं बनाया जा सका है। इसीलिए, रीता बहुगुणा जोशी से लेकर कांग्रेस के कई मामूली विधायक तक उनकी राजनीतिक समझ और क्षमता पर सवाल खड़े कर देते हैं। इसीलिए, मनमोहन सरकार में एक अदद विभाग का कैबिनेट मंत्री तक बनने की उनकी हिम्मत नहीं हुई, जबकि ख़ुद मनमोहन सिंह कई बार कह चुके थे कि राहुल गांधी के लिए रात के बारह बजे भी वे प्रधानमंत्री की कुर्सी खाली कर सकते हैं।
ऐसा नहीं कि भूकंप लाने का दावा करने के ठीक बाद प्रधानमंत्री से मुलाकात कर उन्होंने जो राजनीतिक फुलझड़ी छोड़ी है, वह उनके पप्पूपने की कोई पहली मिसाल है। पुरानी बातें छोड़ भी दें, तो सिर्फ़ साल 2016 में ही पप्पू छाप पॉलिटिक्स की कितनी मिसालें उन्होंने पेश की हैं, ज़रा इसपर भी ग़ौर करें-
- साल की शुरुआत में ही राहुल गांधी ने हैदराबाद यूनिवर्सिटी के छात्र रोहित वेमुला की आत्महत्या को लेकर मोदी सरकार को घेरने की कोशिश की और इसे दलित एंगल देने का भी प्रयास किया, जबकि देश के एक बड़े वर्ग में यह आम राय थी कि वेमुला का आत्महत्या करना भले दुखद था, लेकिन आतंकवादी याकूब मेमन को सपोर्ट कर उसने अच्छा काम नहीं किया था।
- हैदराबाद से लौटने के बाद राहुल गांधी उन छात्रों के समर्थन में जेएनयू पहुंच गए, जिनपर देश-विरोधी नारे लगाने का आरोप था। राहुल ने वहां जाकर कहा कि छात्रों की आवाज़ दबाना गलत है। उनके इस बयान की काफी आलोचना हुई, क्योंकि लोगों ने देखा था कि वहां छात्रों ने किस किस्म की आवाज़ बुलंद की थी।
- आरएसएस को गांधी का हत्यारा बताने से जुड़े बयान पर सुप्रीम कोर्ट ने भी राहुल गांधी को लपेट लिया। कहा या तो माफी मांगें या मुकदमा फेस करें। यह अलग बात है कि राहुल गांधी मुकदमा फेस कर रहे हैं। फिलहाल उन्होंने माफी नहीं मांगी है।
- सितंबर-अक्टूबर में उत्तर प्रदेश में उनकी खाट सभाओं का काफी मखौल उड़ा, क्योंकि प्रायः सभी सभाओँ के बाद खाटें लूट ली गईं।
- उधर राहुल गांधी खाट सभाएं कर रहे थे, इधर हमारे देश के वीर जवानों ने पीओके में घुसकर पाकिस्तानी आतंकवादियों की खटिया खड़ी कर दी। स्वाभाविक तौर पर इस कामयाबी का श्रेय मोदी सरकार को मिलते देख उसे लपेटने के चक्कर में उन्होंने प्रधानमंत्री मोदी पर जवानों के खून की दलाली का आरोप लगा डाला। इसपर बीजेपी तो बीजेपी, कई विपक्षी दलों ने भी उनकी पुरज़ोर निंदा की और यहां तक कि कांग्रेस के लिए भी सफाई देना मुश्किल हो गया था।
और, अब प्रधानमंत्री के तथाकथित निजी भ्रष्टाचार की पोल खोलकर भूकंप लाने की उनकी बात को लोगों ने गंभीरता से कम लिया। मखौल ज्यादा उड़ाया। और दो ही दिन बाद प्रधानमंत्री से मुलाकात कर उन्होंने उन लोगों को सही साबित कर दिया, जिन्होंने उनका मखौल उड़ाया था। बहरहाल, नेशनल हेरल्ड मामले में उनके और सोनिया जी के ख़िलाफ़ निजी भ्रष्टाचार का जो मामला चल रहा है, राहुल गांधी को ईश्वर से प्रार्थना करनी चाहिए कि उसमें वे बरी हो जाएं, वरना ख़ुद उनके ही निजी भ्रष्टाचार का मामला राजनीतिक भूकंप बन जाएगा।