नरेन्द्र मोदी भाग्यशाली नेता हैं कि उन्हे इतने पक्के समर्थक मिले हैँ जो बड़े नोट बन्द करने की अचानक हुई घोषणा से हो रही सारी परेशानियाँ भूलकर इसे अर्थव्यवस्था और समाज के लिए अच्छा कदम मानकर उन्हे शाबाशी दे रहे हैं। मीडिया और मोदी समर्थकोँ को छोड़ दें तो भी यह देखकर मोदी प्रसन्न होंगे कि उनके ज्यादातर धुर विरोधी भी इस कदम को साहसिक बता रहे हैँ। और विरोध करने वालों में मायावती जैसे कुछेक लोग ही होंगे जिन्हें आम आदमी काले धन से जुड़ा मानता है वरना ऐसे लोगों की पूरी फौज भी मोदी के फैसले के पीछे खड़ी दिखती है जिन पर पनामा लीक्स समेत काले धन के कितने ही मामले चले हैं या चल रहे हैँ।
हमारी पूरी फिल्म इंडस्ट्री वाह-वाह करने में लगी है, पूरा वकील समाज वाह-वाह कर रहा है। रियल स्टेट कारोबारी इसे सही करार दे रहे हैँ जबकि इन समूहों का काले धन से क्या रिश्ता है, सब जानते हैँ। और जो मोदी भक्त वाह-वाह कर रहे हैँ उनमें से कौन गान्धीवादी या आर्यसमाजी मूल्य वाला है यह देखने की जरूरत भी नहीं है जो अवसर होने पर भी एक भी पैसे की गड़बड़ न करे। पर इस कदम से कोई कालाधन निकलेगा, कोई दाउद का खजाना लुट जाएगा, आतंकवाद को मिलने वाला पैसा रुक जाएगा या चुनाव सुधार हो जाएगा इस जैसे नतीजे निकालना एकदम भोलापन है। यह कदम हमें इसलिए अच्छा लग रहा है कि हम सिर्फ इसकी चर्चा किताबों में सुनते थे। असल में यह मामला किताबी ही है व्यवहार में कहीं उपयोगी साबित नहीं हुआ है।
भ्रष्टाचार और कालधन की बीमारी हमारे मन और दिमाग की बीमारी है उसका करेंसी से कोई लेना-देना नहीं है, और नरेन्द्र मोदी तथा उनकी टोली ने लोक सभा चुनाव से अभी तक किसी भी चुनाव और पार्टी के संचालन से लेकर हर काम में एक भी चीज ऐसे नहीं दिखाई है जो काले धन से परहेज या उसमें कमी की मंशा दिखाती हो। उल्टे भाजपा से पैसे की होड़ में अब कोई खड़ा होने तक को तैयार नहीं हो रहा है-नीतीश कुमार और लालू यादव तो बिहार चुनाव के समय विज्ञापन और खर्च के मामले मेँ भाजपा के पासंग बराबर भी नहीं थे। उल्टे भाजपा को अब ज्यादा खर्च और दिखावा भारी पड़ने लगा है. अपने लिए चन्दा और नेताओं की अमीरी में सबसे आगे बैठी इस पार्टी को या इसकी सरकार को काला धन के स्रोत और ठिकानों का पता न होगा यह मानना मुश्किल है। पार्टी ने इसे चुनाव में बडा मुद्दा बनाया था-कालाधन निकालना तो बाएँ हाथ का खेल बताया था हर व्यक्ति के खाते में 14-15 लाख देने का वायदा सा था। उसकी जगह हर आदमी को कम से कम 14-15 दिन तक उसके अपनी कमाई के पैसों को धुलवाने/सफेद कराने पर मजबूर करना और हर तरह की परेशानी में डालकर सरकार उससे कोई बदला ही ले रही है।
कालाधन हजार पांच सौ के नोट में रहेगा और दो हजार में गायब हो जाएगा यह तर्क समझना मुश्किल है, और खुद सरकार द्वारा उठाए दो कदमों का जो हाल हुआ है वह भी बताता है कि सरकार अपने हिस्से का काम नहीं करना चाहती लोगों को ही पीसना चाहती है। पनामा लीक्स और स्विस बैंक, लिखेस्टाइन बैंक के खातेधारकोँ पर कार्रवाई की कौन कहे सरकार तो बैंकों के साढे सात लाख करोड़ लेकर चम्पत होने वाले कथित उद्यमियों के नाम सार्वजनिक करने का फैसला भी नहीं कर पा रही है।
जिस पिछली मुहिम की सफलता का मोदी जी और उनके वित्त मंत्री ढिंढोरा पीट रहे हैँ उसमेँ मात्र 65 हजार करोड़ रुपए आए और सम्भव है कुछ लोग ऐसे होंगे जो बड़े नोट रद्द होने की तैयारी की भनक पाकर उस योजना में अपना धन घोषित करने गए होंगे। जब आपका अनुमान तीस लाख करोड़ का है और आप योजना चलाकर मात्र दो-ढाई फीसदी कालाधन ही निकाल पाते हैँ तो फिर इस नाटक की क्या जरूरत थी। और यह योजना तब और सन्दिग्ध बन जाती है जब आप इस तथ्य पर गौर करते हैँ कि नए नोट लाने की सारी परेशानी के साथ ही इस पर पच्चीस से तीस हजार करोड़ रुपए के खर्च का अनुमान है। अगर इतनी भी रकम नहीं निकली तब जनता के धन की बर्बादी और हर किसी की परेशानी का कौन जिम्मेवार होगा। नया नोट छपना एक धन्धा है और नोट की जगह बिना करेंसी के लेन-देन का धन्धा कैसा चल रहा है यह बताने की जरूरत नहीं है। नोट छपने के धन्धे और फैसले पर तो परदा है पर बिना करेंसी के धन्धे वाले तो अखबारों को पन्ना दर पन्ने का विज्ञापन देकर अपने व्यवसाय बढ़ाने की घोषणा कर ही रहे है। इलेक्ट्रानिक पैसे का चलन बढ़ना अच्छा है पर इस तरह दो घंटे के नोटिस पर लगभग सतासी फीसदी करेंसी को रद्दी घोषित करके नहीं। करीब पन्द्रह लाख करोड़ की मुद्रा एक झटके में रद्दी बना देना छप्पन इंच के सीने से भी ज्यादा संकल्प और समझ की कमी को ही दिखाता है। यह एक बार पाकिस्तान को डांटने और दोबारा बिना न्यौता शरीफ की अम्मा को साड़ी भेंट करने पहुंचने जैसा चौंकाऊ तो हो सकता है पर असर के मामले में उतना ही सन्दिग्ध रहेगा।
अगर यह कोई सर्जिकल स्ट्राइक है तो अपने ही लोगों के खिलाफ है, इससे जितना काला धन बाहर आएगा उससे ज्यादा सफेद धन का नुकसान होगा। नकली नोट की समस्या सबसे ज्यादा अमेरिका झेलता है क्योंकि डॉलर आज व्यवहार में विश्व मुद्रा बन चुका है और एक देश से नोट छपकर और संचालित करके पूरी दुनिया में डॉलर को इस मर्ज से मुक्त रखना बहुत मुश्किल काम है. पर हमने कभी डॉलर को इस तरह धुलाई में जाते नहीं देखा-सुना है। अर्थव्यवस्था के संचालन के पुराने फार्मुले आज बासी हो चुके हैं, पुराने तौर-तरीक काम नहीं आ रहे हैँ और गिरावट शुरु होती है तो दुनिया भर के सट्टॆबाज सक्रिय होकर और अभियान चलाकर अर्थव्यवस्थाओं को बैठा देते हैँ। हमने कथित एशियायी टाइगर्स की दुर्गति देखी है, सो खुद से सिर्फ नया करने और झूठी वाहवाही के लिए ऐसे कदम उठाने मेँ अर्थव्यवस्था को इस जोखिम मेँ डालने से बेहतर है कि सामान्य ढंग से काम हो, ईमानदारी से कायदे कानून का पालन किया जाए-कराया जाए और पहले जहाँ सबसे जरूरी है वहीँ आपरेशन हो सारी जनता और अर्थव्यवस्था को बेहोश करने की जरूरत नहीँ है.