NDTV न्यूज चैनल पर सरकार द्वारा एक दिन की पाबंदी लगाने के आदेश के बाद पूरी मीडिया में उबाल है। मीिडया का एक बड़ा तबका इसको मीडिया पर बैन से जोड़कर देख रहा है। हमारा स्पष्ट तौर पर मानना है कि यह मीडिया पर बैन नहीं है। यह उस संस्था पर एक दिन की पाबंदी है जिसे सरकार ने देश की गोपनीयता वाली सूचना लीक करने का जिम्मेदार माना है। यह कितना सच है कितना झूठ इसका फैसला जांच के बाद अदालत में होना चाहिए। एनडीटीवी को सरकार के खिलाफ अदालत का दरवाजा खटखटाना चाहिए। ना कि सोशल मीडिया पर यह माहौल बनाया जाए कि यह पूरी मीडिया पर बैन है।
मीिडया के एक बड़े धड़े ने जिसमें देश के कई नामचीन पत्रकार शामिल हैं ने जिस तरीके से इस बैन का विरोध किया है वो निहायत ही बचकाना है। एक न्यूज चैनल को सूचना प्रसारण मंत्रालय ने किसी खबर में मामले में गलत पाया है और उसका संज्ञान लिया है, उसपर कार्रवाई की है और अगर आपको लगता है कि आपपर कार्रवाई गलत है तो आपको अदालत का रुख अवश्य करना चाहिए। जो लोग एनडीटीवी पर पावंदी को मीिडया पर बैन मान रहे हैं उन सारे पत्रकारों से पूछा जाना चाहिए पूर्व में जब और टीवी चैनलों पर पाबंदी लगाने के आदेश हुए तो वो कहां सोए हुए थे।
इस पूरे मामले को समझने के लिए थोड़ा मीिडया का इतिहास और एनडीटीवी की इतिहास भी समझना होगा। एनडीटीवी पर एक पक्ष और पार्टी का समर्थन करने का आरोप लगता रहा है। लेकिन जब उस संस्था के सीनियर जर्नलिस्ट बरखा दत्त का नाम नीरा राडिया प्रकरण में सामने आया तो संस्था के लॉबीइंग वाले पेशे का पता चला। बरखा के साथ हिंदुस्तान टाइम्स के प्रधान संपादक वीर सांघवी का नाम भी आया था । हिंदुस्तान टाइम्स ने वीर से किनारा कर लिया लेकिन बरखा दत्त संस्थान में बनी रही।
एक किस्म से सत्ता की दलाली करने वाले इस संस्था के केंद्र में रहे और यह संस्था शुचिता का लबादा ओढ़े रही। निस्संदेह तौर पर हम मीडिया पर किसी तरह की पाबंदी के पक्ष में नहीं है लेकिन साथ ही ऐसे संस्थआों पर पूर्ण पाबंदी के पक्ष में है जिनका चरित्र सत्ता की दलाली तक केंद्रित हो जाए और वो बात साबित हो जाए। आखिर ऐसे क्या हालात रहे होंगे कि जब यूपीए की सरकार में नीरा राडिया का टेप सार्वजनिक हुआ तो इन पत्रकारों पर कोई ठोस कार्रवाई नहीं हुई जबकि इनकी बातचीत स्पष्ट थी और यह साफ हो रहा था कि अपने मुख्य पेशे से इतर यह महज सत्ता की दलाली के लिए पेश में टिके हुए हैं।
सवाल महज एनडीटीवी का नहीं है, ऐसे तमाम दूसरे न्यूज चैनल और मीडिया की संस्थाएँ जिनके पैसे के स्रोत का आकलन करना मुश्किल है और स्पष्ट तौर पर दिखता है कि पैसा किसी न किसी ऐसे तरीके से संस्थान में लाया जा रहा है जो अनुचित है । उन सब पर कार्रवाई क्यों नहीं की जाती। कार्रवाई किसी खबर को दिखाने के तरीके भर के आकलन पर क्यूं हो रही है। जो लोग एनडीटीवी पर इस पाबंदी का विरोध कर रहे हैं उन सभी पत्रकारों या मैं कहूंगा कि पक्षकारों से पूछा जाना चाहिए कि वो जिन संस्थाओँ में नौकरी करते रहे हैं, उन संस्थाओं के आय के क्या स्रोत थे। जिन संस्थाओं को चौकसी इन सभी बड़े पत्रकारों ने की है उनसे पूछा जाना चाहिए कि आपका नैतिकता का लबादा तब कहां चला गया था जब आप चिटफंड और दूसरे काले कारनामे से कमाए गए पैसे का लुत्फ उठा रहे थे। पाबंदी तो आप सब पर लगनी चाहिए क्योंकि जिस पत्रकारीय नैतिकता की दुहाई देते फिर रहे हैं उसे ताक पर रखकर आपने अपना घर-परिवार पाला है औऱ आज जब एक संस्था कठघरे में खड़ी है तो आप उसका साथ महज इसलिए दे रहे हैं क्योंकि ऐसे लोगों के साथ आपका संबंध बना रहे और भविष्य में मौका मिलने पर आप फिर मलाई काट सकें।
इसलिए मेरा स्पष्ट तौर पर मानना है कि एनडीटीवी पर बैन मीिडया पर बैन नहीं है बल्कि एक संस्था पर बैन है जिसे देश के सूचना-प्रसारण मंत्रालय ने किसी मामले में दोषी पाया है। संस्था को लगता है कि वो गलत नहीं है तो उसे अपना पक्ष रखने और सरकार के मंत्रालय के फैसले के िखलाफ अदालत जाना चाहिए । बस .