नरेंद्र मोदी राजनीति में अब एक ऐसी धुरी बन गए हैं, जिनके चारों ओर विपक्ष के कई नेता नाच रहे हैं। इन सबका एक ही मकसद है कि वे मोदी के विरोध में आगे, सबसे आगे निकल जाएं, ताकि 2019 के आम चुनाव में मोदी-विरोधी जो भी मोर्चा बने, उसके नेता वही बनें। राहुल गांधी, ममता बनर्जी और अरविंद केजरीवाल- ख़ासकर ये तीन नेता जिस तरीके से एजेंडा बांधकर मोदी-विरोध कर रहे हैं, उससे स्पष्ट है कि इस वक्त यही तीनों ख़ुद को सबसे बड़ा मोदी-विरोधी साबित करना चाहते हैं।
मुलायम सिंह की विरासत अब अखिलेश यादव ने संभाल ली है और लालू यादव की विरासत तेजस्वी यादव ने संभाल ली है। मुलायम का सारा ध्यान अभी अखिलेश को दोबारा मुख्यमंत्री बनाने और उत्तर प्रदेश की सत्ता दोबारा हासिल करने पर टिका है। इधर, चुनाव लड़ने पर छह साल की पाबंदी झेल रहे लालू यादव के सामने इस वक्त एक ही सवाल है कि किस तरह से एक बार वे अपने बेटे तेजस्वी को मुख्यमंत्री बना दें। इसलिए समाजवादी पार्टी और राष्ट्रीय जनता दल मोदी-विरोधी हर मोर्चे में नज़र तो आना चाहते हैं, लेकिन राहुल, ममता और केजरीवाल की तरह एग्रेसिव नहीं हैं।
मायावती और नीतीश कुमार भी सियासत के ऐसे चक्रव्यूह में फंसे हुए हैं कि मोदी-विरोधी खेमे के सक्रिय सिपाही होते हुए भी इनका तेज़ कहीं बिला गया है। मायावती को लग रहा होगा कि किसी तरह अपना खोया हुआ राज्य ही वापस मिल जाए, तो बड़ी बात होगी, इसलिए अभी वह प्रधानमंत्री बनने का सपना नहीं देख सकतीं। यूं भी माना जा रहा है कि नोटबंदी से उन्हें और उनकी पार्टी को ज़बर्दस्त झटका लगा है और बेहिसाब संपत्ति के मामले में पहले से उनके पैर फंसे हुए हैं। इसलिए मोदी-विरोध करते हुए भी वे उनसे दुश्मनी मोल तो नहीं लेना चाहेंगी।
इसी तरह, नीतीश की राजनीति भी नई उधेड़बुन में फंस गयी है। उन्हें लग रहा है कि पहले वह बिहार के पूरे मुख्यमंत्री तो बन जाएं। इसलिए देश का प्रधानमंत्री बनने का सपना उन्होंने तात्कालिक तौर पर स्थगित कर दिया है। इसीलिए, कभी मोदी के विरोध में सारी हदें पार कर देने वाले नीतीश कुमार आजकल मोदी के साथ खड़े हैं, नोटबंदी के मुद्दे को बहाना बनाकर। ऐसा करने से उन्हें इतना लाभ ज़रूर मिला है कि उनके गठबंधन सहयोगी लालू यादव के तेवर कुछ ढीले पड़ गए हैं और उम्मीद की जा सकती है कि अब वे कुछ दिन तो उन्हें चैन से बिहार का मुख्यमंत्री बने रहने ज़रूर दे सकते हैं।
ऐसे में, मोदी के विरोध में मुख्य रूप से यही तीन नेता बच जाते हैं- राहुल गांधी, अरविंद केजरीवाल और ममता बनर्जी। इनमें भी सबसे बड़े विरोधी दल कांग्रेस का नेता होने के चलते राहुल गांधी के सामने सहज ही यह चुनौती आ खड़ी होती है कि वे किस तरह से मोदी से मुकाबला करेंगे। इसलिए उनके सलाहकारों ने उन्हें समझाया है कि मोदी जो कहे, उसका उल्टा कहना है और मोदी जो करे, उसका उल्टा करना है। इसीलिए राहुल गांधी आजकल न आव देखते हैं न ताव, हर बात को मोदी से जोड़कर उसके विरोध में खड़े हो जाते हैं। हैदराबाद से लेकर जेएनयू तक और जीएसटी से लेकर नोटबंदी तक- उन्होंने यही काम किया है।
मोदी विरोधी खेमे के दूसरे नेता हैं अरविंद केजरीवाल। अरविंद केजरीवाल को लगता है कि इस देश में चमत्कार हो रहा है। भगवान उनके ऊपर मेहरबान है। जिस तरह से वे धरना देते-देते अचानक दिल्ली के मुख्यमंत्री बन गए, उसी तरह मोदी के ख़िलाफ़ बोलते-बोलते वे भारत के प्रधानमंत्री भी बन जाएंगे। इसीलिए अरविंद केजरीवाल ने भी वही रणनीति अपनाई है, जो राहुल गांधी ने अपना रखी है। अगर मोदी रात को रात कह दें, तो केजरी भाई कहेंगे- “प्रधानमंत्री झूठा है, दिन को रात कह रहा है।“ वैसे भी अब बड़ी संख्या में लोग यह मानने लगे हैं कि बेईमानी, धूर्तता, मक्कारी और धोखाधड़ी जैसी प्रवृत्तियों को ही ईमानदारी का नाम देकर उन्होंने अपनी राजनीति चमका ली। उन्हें लगता है कि इसी रास्ते चलते रहो और मोदी का विरोध करते रहो, तो बाकी सब ख़ुद-ब-ख़ुद होता रहेगा। फंडिंग आती रहेगी और मोदी-विरोधियों का साथ मिलता रहेगा।
इन सबके बीच, ममता बनर्जी हैं, जिनकी राजनीति के लिए यह बेहद अनुकूल समय है। वे राहुल गांधी और अरविंद केजरीवाल की तरह किसी खोखले आधार पर या चमत्कार के भरोसे नहीं खड़ी हैं। पश्चिम बंगाल जैसे बड़े राज्य में अपने दम पर उनका एकछत्र राज है। चूंकि इसी साल मई में दोबारा सत्ता में आई हैं, इसलिए अगले साढ़े चार साल के लिए वे निश्चिंत भी हैं और इसलिए सीधे 2019 के लोकसभा चुनाव की तैयारी के लिए फ्री हैं। वामपंथियों की तीन दशक पुरानी सत्ता को उखाड़कर वे अगर लगातार दूसरी बार मुख्यमंत्री बनी हैं, तो ज़ाहिर है कि कम से कम एक राज्य में तो उनका तगड़ा जनाधार भी है।
इसीलिए, केंद्र की राजनीति में घुसपैठ के लिहाज से ममता के लिए यह ‘अभी नहीं तो कभी नहीं’ जैसा समय है। इसलिए मोदी के विरोध में वे सबसे ज्यादा एग्रेसिव हैं। यहां तक कह गईं कि “या तो मैं मर जाऊंगी या मोदी को राजनीति से बाहर कर दूंगी।“ नोटबंदी के बाद से दिल्ली में एक बार राष्ट्रपति भवन तक मार्च कर चुकी हैं। एक बार जंतर-मंतर पर धरना दे चुकी हैं। लखनऊ और पटना में भी धरना और जनसभाएं की हैं। कोलकाता लौटने के रास्ते में उनके विमान को हवा में कुछ देर अधिक क्या रहना पड़ा, उन्होंने अपनी हत्या की साज़िश का आरोप लगा डाला। इतना ही नहीं, सेना जिसे अपनी रेगुलर एक्सरसाइज़ बता रही है, उसे वह अपना तख्ता पलटने की साज़िश कह रही हैं, जबकि भारत में आज तक ऐसा नहीं हुआ है कि केंद्र ने सेना लगाकर किसी राज्य की चुनी हुई सरकार को हटा दिया हो। भारत में केंद्रीय सरकार को ऐसा करने की ज़रूरत भी नहीं है, लेकिन मोदी-विरोध में ममता शायद अपने राज्य पश्चिम बंगाल को पश्चिम पाकिस्तान समझने लगी हैं।
बहरहाल, ममता का मकसद स्पष्ट है। मोदी के विरोध में उन्हें उस हद तक जाना है, जहां कोई नहीं पहुंच सके। प्रधानमंत्री की कुर्सी तक पहुंच पाएंगी कि नहीं- यह तो किस्मत से तय होगा, लेकिन उसके लिए सोचना और मेहनत करना तो ज़रूरी है न। इसलिए ममता की रणनीति यह है कि
- लोकसभा चुनाव से पहले मोदी के विरोध में एक मज़बूत मोर्चा बनाया जाए और उनके फायर को देखकर अन्य सभी दल और नेता उनका नेतृत्व कबूल कर लें।
- कांग्रेस पार्टी के साथ उनके मोर्चे का गठबंधन बन जाए और अगर उनके मोर्चे की सीटें कांग्रेस पार्टी से ज्यादा हुईं, तो कांग्रेस भी उनका नेतृत्व कबूल कर ले।
- ख़ुद को राहुल गांधी से अधिक जुझारू, तेज़-तर्रार और लोकप्रिय नेता के रूप में स्थापित करना, ताकि कांग्रेस अगर उन्हें अपना नेता मानने को तैयार हो जाए, तो वह अपनी पार्टी तृणमूल कांग्रेस का कांग्रेस में विलय करा लें और यूनाइटेड कांग्रेस का नेतृत्व संभाल लें।
- देश भर में मोदी-विरोधी मतों और मतदाताओं का अपने पक्ष में ध्रुवीकरण करना, ताकि ज़रूरी होने पर उन्हें उनका समर्थन या वोट मिल सके।
हालांकि दूर की राजनीति के चक्कर में ममता बनर्जी पास की चीज़ शायद नहीं देख पा रहीं। तमाम परेशानियों के बावजूद देश की आम जनता अभी नोटबंदी के फैसले के साथ है। और इसलिए जनता उन नेताओं को संदेह की निगाह से देख रही है, जो इसका विरोध कर रहे हैं। एक ईमानदार और सादगी-पसंद नेता के रूप में ममता बनर्जी की छवि को शारदा चिटफंड घोटाले से पहले ही काफी नुकसान पहुंच चुका है, नोटबंदी के विरोध से इसपर और भी बुरा असर हो रहा है।
ऐसा नहीं है कि ममता इस बात को समझती नहीं होंगी, लेकिन शायद वह उन लोगों में से हैं जो मन ही मन प्रार्थना कर रही हैं कि नोटबंदी फ्लॉप हो जाए और इसके बाद मोदी सरकार के लिए लोगों में जो असंतोष पैदा होगा, उसे वह इनकैश कर सकें। यानी ममता ने एक रिस्क लिया है। केंद्र की राजनीति में अगर उन्हें आना है, तो एक बार तो रिस्क लेना ही होगा। आजकल पॉजीटिव पॉलीटिक्स करके तो कोई आगे बढ़ नहीं सकता, इसलिए निगेटिव पॉलीटिक्स की ममता बनर्जी झंडावरदार बन जाना चाहती हैं!