जलीकट्टू पर अदालत की पाबंदी समझ से परे है। बजाय इसके कि इस पारंपरिक प्रथा में आई कुरीतियों को दूर किया जाए उस प्रथा को ही खत्म कर देने की कवायद किसी मैकाले की कवायद से कम नहीं है। यह ठीक वैसा ही है किसी दिव्यांग बच्चे का इलाज करने की बजाय उसे मार देना। इस परंपरा में समय के साथ आई खामियों को खत्म करने की बजाय इसका विरोध करने वाला तबका वही है जिसे हिंदुस्तान के किसानों, हिंदुस्तान की संस्कृति और हिंदुस्तान की भावनाओं से कोई सरोकार नहीं है। हां जलीकट्टू के समर्थन में चेन्नई के समंदर किनारे जिस तरीके तमिल युवाओं ने शांतिपूर्ण प्रदर्शन किया उससे परंपरा के वाहकों के प्रति कुछ उम्मीद तो बंधती है। लेकिन साथ ही इस परंपरा में काफी खामियां समय के साथ बाजार के प्रभाव में समाहित कर दी गईँ।
जिस तरीके से जलीकट्टू को पशुओं पर अत्याचार कहकर प्रचारित किया गया है दरअसल वो अर्धसत्य है। जलीकट्टू पर कोई भी राय बनाने से पहले इसे समझना जरा जरूरी है। प्राचीन और सांस्कृतिक तौर पर समृद्ध भारत की परंपराओँ में से एक परंपरा है जलीकट्टू। जहां एक तरफ हिंदुस्तान के ज्यादातर हिस्सों में गाय की पूजा होती है वहीं दक्षिण भारत के इस हिस्से में बैल का महत्व ज्यादा है।
बैल की ताकत को किसानों की खुशहाली से जोड़कर देखा जाता है और इसीलिए संक्रांत यानी पोंगल के अवसर पर तमिल-हिंदु संस्कृति में नए साल का जश्न मनाया जाता है तो इसमें बैलों के साथ खेल खेला जाता है। बैलों के सींग में सिक्के बांधे जाते हैं और उसपर काबू करने की कोशिश जाती है। जिस बैल पर काबू कर लिया गया जाहिर है उसे कमजोर और जिसपर काबू पाना कठिन हो किसानों की समृद्धि का द्योत्तक माना गया। मौजूदा स्वरुप में जलीकट्टू पिछले 2500 सालों से मनाया जा रहा है। प्राचीन भारत के कुछ शिलापट्ट और पेंटिग्स इस ओर इशारा करते हैं। समय के साथ इसका स्वरूप बिगड़ा है, बैलों को तेज भगाने के लिए उसके साथ छेड़खानी शुरु की गई, उसे कीलें चुभाने जाने लगीं औऱ कई जगहों पर उसे शराब पिलाने की घटनाएं भी सामने आईँ। हमें इनका विरोध जरुर करना चाहिए।
लेकिन हमारा सवाल उन लोगों से है जो बैलों पर अत्याचार का ढोल पीट रहे हैं। इसे सिर्फ एक नजर से देखने वाले जरा ये बताएं कि आज भी हमारे देश के पचास फीसदी किसान खेतों में बैल ही जोतते हैं। सामान ढोने के लिए औऱ यातायात के लिए आज भी भारत के गांवों में बैलगाड़ी का इस्तेमाल ही होता है। तो क्या वहां भी उनपर अत्याचार ही होता है। दरअसल इनको मालूम नहीं कि बैल का नाम आते ही हमारे जेहन में आज भी हीरा-मोती ही उभरता है, बिना दृश्यों के जिस खूबसूरती से मुंशी प्रेमचंद ने हीरा-मोती की कहानी पिरोयी कि वो सालों तक हमारे जीवन के अंग हो गए। गांव में हर ताकतवर बैलों की जोड़ी हीरा-मोती ही नजर आती। पूरे परिवार का बोझ ढोनेवाले हीरा-मोती अगर आज के दौर में होते तो उसके मालिक पर भी पशु-क्रूरता का मुकदमा चला दिया जाता।
दरअसल समस्या न तो बैल से है और न ही जलीकट्टू से, समस्या है उसकी अहमियत जाने बिना उसको ऐसे रंग में रंगनेवालों से जिसे परंपरा का हमारी समृद्धि का ज्ञान नहीं और जिसने शहरों की चकाचौंध को हिंदुस्तान की हकीकत, गूगल को ज्ञान का सागर और परंपरा को कुरीतियों का वाहक मान लिया है।
दक्षिण भारत में हिंदुस्तान के बाकी हिस्सों से कुछ तो अलग है, लाख उकसावे के बावजूद जिस शांतपूर्ण तरीके से अपनी परंपरा के लिए प्रदर्शन किया है निश्चित तौर पर सरकार के कान खड़े हुए हैं और अदालत ने इसी वजह से इस मामले के निदान के लिए वक्त भी दिया है। लेकिन उनका क्या जो अपनी राजनैति रोटियां सेकने के लिए सांप्रदायिक बयानबाजी कर रहे हैँ। जो इस प्रदर्शन औऱ सुप्रीम अदालत के फैसले को हिंदुत्वादी ताकतों के लिए सबक मान रहा है। हमें जलीकट्टू में आई खामियों के साथ समाज में पनप रहे ऐसे खतरनाक विषबांकुरों से भी निदान पाना होगा। माफ कीजिएगा बिना सांप्रदायिक रंग दिए हम कहना चाहेंगे उनसे जिनको यह पशुओँ पर क्रूरता नजर आती है वो जरा एक बार बकरीद पर गौर फरमाएँगे।
जलीकट्टू को उसके पारंपरिक स्वरूप में जरुर मनाना चाहिए जिससे किसानों की खुशहाली नजर आए लेकिन साथ ही उसमें आई खामियों को खत्म करना भी हमारी जिम्मेदारी बनती है। अदालत औऱ सरकार को इसपर ध्यान देना चाहिए।