“खादी वस्त्र नहीं, विचार है”, इस सूत्रवाक्य के रचयिता महात्मा गांधी की जगह, दस लाख का सूट पहनने वाले नरेंद्र मोदी का कैलेंडर पर आना खादी के कुछ कर्मचारियों को स्वाभाविक रूप से अखरा. कुछ कर्मचारियों ने काली पट्टी लगाकर इसका मौन विरोध किया तो उनकी गांधी भक्ति, खादी भक्ति से भी ज्यादा उनके नैतिक बल की तारीफ़ करनी चाहिए.
शायद यह काम नरेंद्र मोदी ने न किया होगा, न कराया होगा, लेकिन हर सरकारी विज्ञापन, कलेंडर और डायरी का उपयोग जब उनकी छवि चमकाने के लिए हो रहा हो तब खादी आयोग क्यों पीछे रहता? सूचना-प्रसारण मंत्रालय के कैलेंडर में तो बारहों पन्नों की शोभा ‘परिधान मंत्री’ बढ़ा रहे हैं. गांधी की जगह मोदी की तस्वीर छापने की उनकी यह ‘दिलेरी’ तब और बड़ी लगती है जब हम पाते हैं कि पिछले साल भी ऐसी कोशिश हुई थी और तब भी विरोध हुआ था, बेशक पिछली बार मोदी जी एकदम मुख्य भूमिका में न दिखकर कहीं हल्का दर्शन भर दे रहे थे.
खादी और चरखा हमारी आजादी की लड़ाई का कितना प्रमुख हिस्सा रहे हैं यह दोहराने की जरूरत नहीं है. हमारी दो-तीन बुनियादी जरूरतों में एक, वस्त्र की इस लड़ाई को गांधी ने टिकाऊ और विकेंद्रित विकास के साथ जोड़ा था. हम जानते हैं कि अगर बंदे में हो दम तो वह इतिहास की गति को भी मोड़ लेता है. गांधी ने पुराने चरखे से मैनचेस्टर की सबसे आधुनिक मिलों को पीट दिया था.
और गांधी ने खुद तो खादी पहना ही, लगभग पूरे देश को खादी पहना दिया, खादी पहनने को शान की चीज़ बना दिया. पर खादी महज कपड़े भर का नाम नहीं है. गांधी ने इसे जीने के तरीक़े और सादगी से जोड़ा. और यह बात स्थापित हो गई कि खादी पहनकर दुराचार करना या शराब पीना पाप माना जाने लगा और शायद तभी कहा भी गया कि खादी वस्त्र नहीं विचार है. ये और बात है कि खादी पहनने वालों ने आज़ादी के बाद खादी पहनकर हर तरह के कुकर्म किए.
खादी ग्रामोद्योग आयोग के कलेंडर पर वे एक आधुनिक किस्म के चरखे के सामने डिज़ाइनर खादी की पूरी पोशाक में गांधी बाबा की मुद्रा में बैठे चरखा चलाते दिखते हैं जो किसी हीरो-हीरोइन के कटआऊट के सामने खड़े होकर फोटो खिंचाने जैसा ही है.ऐसा फोटो खिंचाना एक शौक़ हो सकता है, किसी मौके की ज़रूरत हो सकती है. अब खादी आयोग ने इसे अपने कलेंडर पर छापने लायक फोटो माना, और वह भी गांधी जी को हटाकर, तो इसे सिर्फ़ किसी एक अधिकारी की कलाकारी, चापलूसी या कैरियर चमकाने की जुगत नहीं माना जा सकता. असल में, आज़ादी के बाद से खादी का उपयोग हमारा प्रभुवर्ग करता रहा है. दिखाने के लिए खादी और इस्तेमाल के लिए ब्रांडेड और महँगा विदेशी सामान. नाम खादी का लेना और लाभ मुनाफ़ाख़ोरों को पहुँचाना.
खादी सिर्फ़ दिखावे और ज़बानी जमा-खर्च की चीज़ तो आज़ादी के बाद से ही बनने लगी थी, ख़ास तौर पर हमारे नेताओं और शासकों के लिए. जब राजीव गांधी ने नाइकी-प्युमा-एडिडास और ब्रैंडेड चश्मे के साथ खादी पहनना शुरु किया तो यह नए युग की निशानी थी.फिर डिजाइनर खादी, पोलीवस्त्र, विदेशी कंसल्टेंट और न जाने क्या-क्या बदलाव हुए. इन सबका कहीं विरोध भी हुआ तो बहुत सुनाई नहीं दिया. और साथ ही खादी के पारंपरिक केंद्र नष्ट होते गए, पावरलूम पर तैयार माल खादी के नाम पर बिकने लगा.
खादी आयोग की अध्यक्षता खादी का काम करने वालों की जगह चापलूसों को या हारे हुए नेताओं को मिलने लगी. खादी को फ़ैब इंडिया और अनोखी जैसे व्यावसायिक ब्रांडों ने नए तरीक़े से बाज़ार में उतारा जबकि सरकारी खादी हाशिए की ओर खिसकती रही.आज मॉडलों की तरह हर अवसर पर कपड़े बदलने का चलन है, और ऐसा करने वालों में प्रधानमंत्री अकेले नहीं हैं बल्कि पूरे दिन एक कपड़ा पहने रहने वाले बड़े लोग कम ही रह गए हैं और एक ही कपड़े को हर दूसरे-तीसरे दिन पहनना तो हमारे-आपके लिए भी ग़रीबी का प्रतीक बन गया है.ऐसे में अगर खादी बोर्ड मोदी जी के आने के बाद से खादी की बढ़ी बिक्री का आंकड़ा देकर उनकी तस्वीर को केंद्रीय बनाने का तर्क देता है तो उसकी सोच साफ़ दिखाई देती है. लेकिन वो सोच खादी के काम में जीवन लगाने वाले कर्मचारियों, देश के गांधी प्रेमियों, खुद गांधी और खादी के तर्क से उलट है.
बाक़ी देश में न सही, कम-से-कम गांधीवादी संस्थाओं में तो गांधी का तर्क ही चलना चाहिए. मोदी जी के लिए वस्त्र और विचार में फर्क हो सकता है, खादी के लिए वस्त्र और विचार में अंतर नहीं है.
Source : BBC