एक समय की बात है, जब देवताओं और राक्षसों के समुद्र मंथन से भगवान धन्वंतरि निकले – हाथों में अमृत कलश थामे हुए। बाद में भगवान धन्वंतरि ने संसार को सेहतमंद बनाने के लिए आयुर्वेद नामक मेडिकल साइंस को जन्म दिया। कृतज्ञ लोगों ने उनके जन्मदिन को धनतेरस के रूप में मनाना शुरू किया।
यह वो दौर था, जब भारतवर्ष में धन-धान्य की कमी नहीं थी। कविगण अगर इसे चांदी की चिड़िया कहते, तो अनुप्रास अलंकार के चमत्कार की वजह से यह सुनने में ज्यादा अच्छा लगता, लेकिन चूंकि यहां इतनी संपत्ति थी कि इसे चांदी की चिड़िया कहना तौहीन होती, इसलिए इसे सोने की चिड़िया कहा गया।
लेकिन समय ने अपना रंग बदला। भारतवर्ष में धनी और निर्धन के बीच की खाई चौड़ी होती चली गई। पूरी व्यवस्था धनी लोगों के पक्ष में और निर्धन लोगों के ख़िलाफ़ थी। राज-सत्ता के शीर्ष पर बैठे लोगों और लुटेरो में कोई फ़र्क़ नहीं रह गया था। निर्धन लोगों को लूट-लूटकर धनियों को और धनी बनाया जा रहा था। काले धन को छुपाने का अर्थशास्त्र पढ़े लोग प्रधानमंत्री और अपराधियों के सहारे सत्ता चलाने का अनर्थशास्त्र पढ़े लोग मुख्यमंत्री बनने लगे। नीचे के मंत्रियों और अफसरों की तो बात ही क्या!
ऐसे माहौल में धनतेरस सिर्फ़ धनी लोगों का त्योहार बनकर रह गया। धनी लोग इस दिन परंपरा के मुताबिक महंगे बरतन-बासन ख़रीदते थे और निर्धन लोग इस दिन भी अपनी रसोइयों में बैठकर खाली बरतनें बजाया करते थे। धनी लोग इस दिन अपने कभी इस्तेमाल न होने वाले खजाने में जमा कर देने के लिए सोने-चांदी के सिक्के और ईंटें वगैरह खरीदा करते थे, लेकिन निर्धन लोग सत्यमेव जयते लिखे पुराने सिक्कों को गिन-गिनकर यही गणित लगाते रहते थे कि इतने से बच्चे का दूध आ सकेगा कि नहीं। धनी लोग इस दिन महंगी-महंगी गाड़ियां खरीदा करते थे और निर्धन लोग उनकी गाड़ियों के सरपट दौड़ने के लिए जगहें छोड़कर फुटपाथों पर भूखे पेट सो जाया करते थे।
विधि के विधान के मुताबिक मरते हालांकि धनी लोग भी थे, लेकिन उनके मरने की स्थितियां और बीमारियां अमूमन अलग हुआ करती थीं। जैसे शेयर बाज़ार के चढ़ने-उतरने मात्र से उन्हें हार्ट अटैक आ सकता था। राजसत्ता प्रतिकूल हो और इनकम टैक्स के छापे पड़ जाएं, तो भी उन्हें दिल का दौरा पड़ सकता था। बच्चे मां-बाप का प्यार नहीं मिल पाने की वजह से और मां-बाप बच्चों के आवारा हो जाने की वजह से अक्सर डिप्रेशन में आकर सुसाइड भी कर लिया करते थे। सुसाइड निर्धन लोग भी किया करते थे, लेकिन फसल ख़राब हो जाने या महाजनों और बैंकों का कर्ज़ बेइंतहां बढ़ जाने की वजह से। वैसे भूख, कुपोषण और गंदगी से होने वाली बीमारियों और उन बीमारियों का इलाज नहीं मिल पाने से निर्धनों की समय से पहले मौत पक्की हुआ करती थी।
ऐसे दौर में जब धनी और निर्धनों के बीच समाज का स्पष्ट बंटवारा हो चुका था, एक फितूरी लेखक का मानना था कि जैसे धनी लोगों के लिए धनतेरस है, वैसे ही निर्धन के लिए “निर्धनतेरस” होना चाहिए। धनतेरस के दिन धनी लोग अपनी संपत्ति का भोंडा प्रदर्शन किया करेंगे, सारे बाज़ारों की सड़कें जाम कर दिया करेंगे और निर्धनतेरस के दिन निर्धन लोग दिल्ली के रामलीला मैदान से लेकर पटना के गांधी मैदान तक इकट्ठा होकर छाती पीटेंगे, माथा धुनेंगे और आंसू बहाएंगे और राजसत्ता के शीर्ष पर बैठे लोग इसका सीधा प्रसारण देख-देखकर तालियां बजाया करेंगे।
लेकिन जब तक निर्धनतेरस का त्योहार नहीं बन जाता, तब तक के लिए धनी लोगों को धनतेरस की हार्दिक शुभकामनाएं और निर्धन लोगों को धनतेरस की हृदयविदारक और अश्रुपूर्ण सहानुभूतियां!