जब आप चुनावी जोड़तोड़ और सियासत के खेल में उतरते हैं तो फिर आपके सिद्धांत और नैतिकता के दावे धरे के धरे रह जाते हैं. आम आदमी पार्टी इसकी सबसे बड़ी मिसाल है. पंजाब में अगर पार्टी के नेता सुच्चा सिंह टिकट बेचते हुए कैमरे में पकड़े जाते हैं या दिल्ली में केजरीवाल सरकार अपने पहले साल में ही एक विज्ञापन के लिए 30 करोड़ से ज्यादा खर्च कर देती है या इस पार्टी के कई विधायक और सांसद कई तरह के मामलों में फंस जाते हैं, तो फिर आप किस आम आदमी की बात करते हैं.
अब आप यह तर्क दे सकते हैं कि अभी पार्टी अपने शैशव काल में है और इसी काल में सत्ता सुख भोगने की किस्मत पा लेने के बाद कुछ विसंगतियां अगर दिख रही हैं तो यह एक स्वाभाविक प्रक्रिया है. पार्टी नई है, इसके नेता नए हैं और पुरानी, अनुभवी और बड़ी राष्ट्रीय पार्टियों से इनका सीधा मुकाबला है तो कुछ ऐसे तत्व तो आपको मिलेंगे ही, जो पार्टी को बदनाम करें या जिनकी वजह से दूसरी पार्टियों को कीचड़ उछालने का मौका मिले.
ऐसे में नैतिकता और भ्रष्टाचारमुक्त राजनीति के दावे धूल में मिलते दिखें तो ताज्जुब नहीं होना चाहिए. जिस सुच्चा के स्टिंग ऑपरेशन को लेकर उन्हें पार्टी से निकालने की बात कही जा रही है, उसी सुच्चा ने आप की पोल खोल दी है. यह तो साफ कर ही दिया है कि ढाई सालों में सुच्चा ने आम आदमी पार्टी को लाखों रूपए का चंदा दिलवाया, फंड इकट्ठा किया. लेकिन, चुनाव के वक्त मनीष सिसोदिया ने उनकी जासूसी करवाई, स्टिंग आपरेशन करवाया और अब टिकट बांटते वक्त केजरीवाल और सिसोदिया मनमानी कर रहे हैं, जिन्होंने पार्टी को खड़ा किया उन्हें दरकिनार कर टिकट बांटे और उनकी कोई बात नहीं मानी.
साफ है कि सुच्चा और पार्टी के इन नेताओं के बीच विवाद चरम पर पहुंच चुका था. ऐसे में आने वाले चुनाव में सिसोदिया उन तमाम लोगों को किनारे करना चाहते हैं जो किसी भी तरह पार्टी के लिए नुकसानदेह साबित हो सकते हैं या फिर जो उनके इशारों पर काम नहीं करते. दरअसल आम आदमी पार्टी के लिए दिल्ली में पहले दो साल हर तरह का विरोध झेलते, केन्द्र सरकार और अपने ही उप राज्यपाल के साथ तल्खी भरे रिश्तों के बीच गुजरे. शायद विरोध और तल्ख तेवर ही आम आदमी पार्टी की रणनीति का हिस्सा भी है और इसकी पहचान भी.
लेकिन दिल्ली के साथ साथ खुद को राष्ट्रीय स्तर पर एक विकल्प के तौर पर तैयार करने की जल्दबाजी ने इस पार्टी के अंदरूनी संकट को बढ़ाया है. केजरीवाल, सिसोदिया, संजय सिंह और पार्टी के दूसरे नेताओं को बार बार अपने ऐसे नेताओं, विधायकों और सांसदों का बचाव करना पड़ता है या उनके समर्थन में आगे आना पड़ता है जो कहीं न कहीं पार्टी के लिए मुसीबत खड़ी करते रहे हैं. लेकिन सुच्चा सिंह के मामले में ऐसा नहीं है. यहां सीधा सीधा टकराव है और सुच्चा को अकाली दल के एजेंट के तौर पर देखा जाने लगा है.
गौरतलब है कि सुच्चा अकाली दल के सीनियर नेता और विधायक रह चुके हैं. अब वो ये कहने को मजबूर हो रहे हैं कि जो लोग सत्ता बदलने का दावा करके आए थे, उन्होंने सत्ता के मायने ही बदल दिए. बहरहाल चुनाव के वक्त ऐसे आरोप प्रत्यारोप नए नहीं हैं. पार्टियों के भीतर की लड़ाइयां ऐसे ही वक्त सतह पर आती भी हैं और सत्ता की महत्वाकांक्षाएं अपने अलग अलग रूप में दिखती हैं. लेकिन इस समय पार्टी का लक्ष्य सीधे तौर पर पंजाब, गुजरात और गोवा है जहां अगले 6-7 महीनों में चुनाव हैं. पंजाब इसलिए ज्यादा अहम है क्योंकि यहां से पार्टी के टिकट पर पिछले लोकसभा चुनाव में चार सांसद जीतकर आए थे.
हालांकि इनमें से दो सांसदों धर्मवीर गांधी और हरिंदर खालसा को पिछले साल पार्टी से निकाल दिया गया था. इससे पार्टी के अंदरूनी झगड़े और कलह का खुलासा तभी हो चुका था. तीसरे सांसद भगवंत मान पर संसद में शराब पीकर आने और संसद की वीडियो रिकार्डिंग करने का गंभीर आरोप लग चुका है. पिछले लोकसभा चुनाव में पंजाब में आम आदमी पार्टी को करीब 24 फीसदी वोट मिले थे लेकिन इन दो-ढाई सालों में इसमें कितने घटे या बढ़े, यह देखने वाली बात होगी. पंजाब में देश के सबसे ज्यादा दलित हैं. कुल आबादी का एक तिहाई.
इस वोट बैंक पर आम आदमी पार्टी की नज़र है और इसे हासिल करने के लिए केजरीवाल दलितों के सवाल पर हर जगह कूद पड़ते हैं, यह सबने देखा है. गुजरात में भी वो दलितों और पटेलों के साथ खड़े हो जाते हैं और उत्तर प्रदेश में भी. इस बार के तमाम चुनाव से पहले लोगों का मूड भांपने वाले सर्वे भी केजरीवाल का हौसला बढ़ाने वाले हैं. एक सर्वे ने तो कुछ महीने पहले पंजाब में केजरीवाल की बहुमत वाली सरकार तक बना दी थी. हाल ही में नवजोत सिंह सिद्धू को उनकी शर्तों में पार्टी में शामिल करने से इनकार कर देने वाले केजरीवाल यह मान कर चल रहे हैं कि इस बार पंजाब में जो कुछ भी होगा वह बगैर उनकी मर्जी के नहीं होगा.
दूसरी तरफ सुच्चा समेत आम आदमी पार्टी के तमाम निकाले गए और असंतुष्ट नेता ये आरोप लगाते रहे हैं कि पंजाब में दिल्ली से बैठकर रिमोट से पार्टी चलाने की कोशिश किसी भी हालत में मंजूर नहीं की जाएगी. जाहिर है आम आदमी पार्टी के लिए बाहर से ज्यादा भीतरी चुनौतियां ज्यादा परेशान करने वाली हैं. हालांकि, इससे निपटने के लिए केजरीवाल और पार्टी के दूसरे नेता पूरी कोशिश कर रहे हैं. लेकिन, अपनी शर्तों के साथ. जुलाई में अमृतसर जाकर केजरीवाल स्वर्ण मंदिर में मत्था टेक आए हैं और पंजाब के युवाओं के लिए पार्टी के एजेंडे का ऐलान कर आए हैं.
पंजाब के युवाओं को ड्रग्स और नशे से मुक्त कराने का वादा कर आए हैं. किसानों के लिए अलग घोषणापत्र लाने का भी ऐलान भी कर चुके हैं. जाहिर है आम आदमी पार्टी इस बार अकाली दल-बीजेपी को सीधी टक्कर देने के साथ साथ कांग्रेस को हाशिए पर धकेलने की भी पूरी कोशिश में है. तो फिर आखिर क्या फर्क है आम आदमी पार्टी, बीजेपी, कांग्रेस और दूसरी सियासी पार्टियों में?