सोलह सितंबर को जब सुप्रीम कोर्ट में दो तरफों से शहाबुद्दीन की जमानत को रद्द करने की अपील की गयी थी तो निश्चित ही चंदा बाबू की आँखों में एकबार फिर थोड़ी सी उम्मीद जगी। सुप्रीम कोर्ट से याचिका स्वीकार करने की खबर जैसे ही मिली , चन्दा बाबू , सीवान और बिहार के लोगों की बोझिल नजरों को एक अक्श सा नजर आया , और ये किरण थी आशा की। उन्नीस सितंबर का इंतजार बेसब्री से हो रहा था क्योंकि अहम् फैसला आ सकता था , फैसला तीन बेटों को खो चुके एक परिवार की उम्मीदों पर , फैसला बिहार सरकार के नापाक इरादों पर जिसने ऐसी परिस्थिति पैदा कर दी जिसकी वजह से एक आतंक सीखचों से बाहर निकल कर खौफ का माहौल बन गया, और एक उम्मीद उस आतंकी के लिए भी जिसका मंसूबा अभी भी आजाद रहने का है।
जी हाँ यहाँ बात हो रही है सिवान के कथित शाह शहाबुद्दीन उर्फ़ शहाब की। अगस्त २००४ में जब सिवान के चंद्रकेश्वर प्रसाद के दो बेटों गिरीश और सतीश को तेजाब से नहलाकर मार डाला गया था तो उसका एकमात्र चश्मदीद गवाह था उसका तीसरा भाई राजीव रौशन। उसे भी १६ जून २०१४ को मार डाला गया , इसमें भी आरोपी शहाबुद्दीन बनाये गए। दो भाईओं की हत्या का दोषी शहाबुद्दीन ठहराया गया और तीसरे भाई की हत्या के आरोप भी लगे जिसमे ट्रायल के अभाव में पटना हाई कोर्ट से अभी इसी महीने जमानत मिल गयी। हालांकि इस जमानत पर भी ऊँगली कई तरफ से उठायी गयी पर आखिरकार जुबान यहाँ आकर रुक जाती है कि ये न्याय और न्यायाधीश के अधिकार क्षेत्र है। पर जब बीते फ़रवरी महीने में जमानत से इंकार किया गया था तो कहा गया था कि पुलिस नौ महीने के भीतर ट्रायल शुरू कराये। शहाबुद्दीन सिवान जेल से भागलपुर जेल लाये गए पर अभी तक बिहार की सुशासन की सरकार और पुलिस सोयी रही। मजबूत सियासी स्तम्भ को थामनेवाले पूर्व राजद सांसद की जो मंशा थी उसे नौ महीने की जगह सात महीने में ही पटना हाई कोर्ट के जज जितेंद्र मोहन ने पूरी कर दी। शायद दो महीने और रुक जाना चाहिए था पटना के जज को। आखिर क्या जल्दी पड़ी थी तय मियाद से दो महीने पहले ही इतना बड़ा फैसला लेने की? अभी जो आरोप सुशासन बाबू और लालू प्रसाद की मिली भगत में ट्रायल नहीं शुरू करने का लगा , शायद नहीं लगता। ऐसा भी तो हो सकता है कि बिहार पुलिस ने बाकी के बचे दो महीने में ही अपनी ओर से कार्रवाई का सोच रखी हो। खैर जो हुआ वो अच्छा नहीं हुआ हम आम लोगों की नजर में।
अब जब हमलों का दौर शुरू हुआ , प्रशांत भूषण की पहल शुरू हुयी तो बिहार सरकार (सुशासन बाबू) ने डैमेज कंट्रोल के तहत सुप्रीम कोर्ट में जमानत रद्द करने की अर्जी लगा दी. दूसरी तरफ पत्रकार राजदेव रंजन की हत्या में शहाबुद्दीन की साजिश का आरोप लगा उसकी पत्नी आशा रंजन भी सुप्रीम कोर्ट का दरवाजा खटखटा चुकी, ऐसे में सी बी आई जाँच के आदेश के बाद टीम सिवान भी पहुँच गयी।
खैर वजह और परिस्थिति जो भी बनी अंजाम तो दोनों ही तरफ से उम्मीदों का आया।
प्रशांत भूषण और बिहार सरकार , दोनों की पहल के बाद सुप्रीम कोर्ट के जजों पी सी घोष और अमिताव रॉय ने जरूर पटना हाई कोर्ट के फैसले पर ये पूछ कर भी सवालिया निशान लगाया है कि शहाबुद्दीन पक्ष रखें की क्यों न उनके जमानत को रद्द कर दिया जाये ? निश्चित तौर पर वजह पूछना लाजिमी है। शहाब की जमानत के बाद भागलपुर जेल के बाहर का जो नजारा था वही मात्र शहाबुद्दीन की खौफ का कारण बन जाता है। अनेक शार्प शूटरो का खूंखार शहाबुद्दीन के बाएं -दाएं होना , सियासत के कई दिग्गजों का वहां मौजूद होना , पंद्रह सौ से ज्यादा गाड़ियों का काफिला ही काफी था ये बताने को कि शहाब की हनक कैसी है। अब और आगे बढ़ें , भागलपुर से सिवान तक का नजारा अभूतपूर्व शोर और आतंक से भरा था ,रास्ते पर के टोल को ऐसे नाकारा गया मानो सरकारी तंत्र से ही खुद आजाद कर दिया हो या फिर सरकार खुद शहाबुद्दीन और उनके लोग ही हों. ये तो बाते हुयी सफर की , अब जरा उस जगह को भी देखें जिसे शहाबुद्दीन अपनी कर्मभूमि मानता है। जी हाँ , हम बात कर रहे हैं सिवान की , जहाँ एक तरफ शहाबुद्दीन से खौफ खाये कई परिवार और सिवान के लोग आगामी हालात से आक्रांत दिख रहे हैं तो दूसरी तरफ होली, दिवाली और ईद मना रहे दुर्दांत सजायाफ्ता शहाबुद्दीन की जमात के लोग।
आखिर किस आधार पर इस अपराधी को जमानत मिली थी ? बस यही मात्र आधार बना न कि पुलिस ने तय समयअवधि में ट्रायल नहीं शुरू किया ? पर क्या इसके सामने बाकि सारे तथ्य गौण हो गए ? जिस सजायाफ्ता के नाम 58 केस लंबित हों , जिसके नाम से गवाह भी भय खाता हो, गवाही से मुकर जाता हो , जिसके पास अनगिनत अत्याधुनिक हथियारों का जखीरा हो , जेल से एक अलग व्यवस्था चलाता हो, रसूख ऐसा कि मंत्री से लेकर कई बड़े सख्शियत जेल जाकर हाजिरी लगाते हों , एक साथ चालीस मोबाइलों के नेटवर्क का इस्तेमाल करता हो। क्लास ए का हिस्ट्री शीटर और जमानत का हक़दार ? शाह के कई कई शागिर्द सत्ता के शीर्ष पर बैठे लोगों ( तेजप्रताप ) के निकट हों तो क्या ये जमानत के हक़दार बन जाते हैं ?
आखिरकार यही सवाल सुप्रीम कोर्ट का भी है। प्रशांत भूषण से भी कोर्ट ने पूछा – जमानत रद्द करने की याचिका है या पटना हाई कोर्ट के फैसले को चुनौती ? जबाब भी आया — पटना हाई कोर्ट के फैसले को चुनौती। और सरकारी (बिहार ) वकील गोपाल सिंह ने भी जमानत रद्द करने की अपील का आधार वही बनाया जो पहले से ही मौजूद था , यानि की दोषी – आरोपी शहाबुद्दीन का आतंक। अब सवाल ये भी उठता है कि क्या ये सारी परिस्थितियां जमानत के बाद ही अचानक बन गयी। पहले ही बिहार सरकार ने ये कदम क्यों नहीं उठाया , पटना हाई कोर्ट के जज ने और दो महीना क्यों नहीं इंतजार किया ? क्या नीतीश – लालू गठजोड़ की कोई रणनीति रही या फिर नीतीश कुमार का कुर्सी प्रेम ?
पर अब क्या होगा ? शहाबुद्दीन सात दिनों बाद 26 सितंबर को क्या जबाब देगा , अपनी रिहाई का क्या आधार बनाएगा ? उसके जबाब का क्या असर होगा ? बेल जारी रहेगा या शहाबुद्दीन फिर से जेल की सलाखों में होगा ? सवाल तो ये भी है कि यदि शहाबुद्दीन फिर से जेल के अंदर होगा तो बिहार का दृश्य क्या होगा ? लालू के रुतबे का क्या होगा , नीतीश कुमार का भविष्य क्या होगा ?
सवाल तो कई सारे हैं , सवाल ये भी है कि शहाब के जबाब से सुप्रीम कोर्ट संतुष्ट हो जाता है तो क्या होगा ? चंदा बाबू की आँखों के आंसू सूखेंगे ? आशा रंजन की उम्मीद जागेगी ? सीवान की फिजाओं का रंग कैसा होगा ?
इन सारे सवालों के बीच ये तो तय कि अगला सात दिन संभावित उम्मीदों के इंतजार का दिन होगा।
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं और लंबे समय से बिहार की राजधानी पटना में पत्रकारिता कर रहे हैं)