एक अहम् सुर्खी छायी मिली चहुँ ओर। बिहार कहें या कहें देश की हरेक मीडिया में बड़े आत्मसमर्पण की खबर ब्रेकिंग के रूप में चलती दिखी — “मोहम्मद कैफ का आत्मसमर्पण। ” हम बात किसी अंतरराष्ट्रीय क्रिकेट खिलाडी की नहीं बल्कि अपराध के शातिर खिलाडी की कर रहे हैं, हालांकि ये भी खुद को क्रिकेट का द्रोणाचार्य कहता है। खैर निकलते हैं इस जाल से और बात करते हैं आत्मसमर्पण की , सरेंडर एक ऐसे शातिर वांटेड की जिसे पुलिस , प्रशासन और कानून को बेचैनी से तलाश कर अपनी गिरफ्त में लेना चाहिए था मगर अफ़सोस ये हो न सका। सात सितंबर को भागलपुर जेल के बाहर अहले सुबह से स्वागत की माला हाथ में लिए शूटर कैफ अपने आका का इंतज़ार करता रहा , कई सारी एजेंसियां , मीडिया का हुजूम और पुलिस का सख्त पहरा लगा रहा पर उस समय किसी को वो न दिखा जिसकी तलाश सबको थी। शायद इससे पहले मीडिया को कैफ कहीं अकेले मिला होता तो एक्सक्ल्यूसिव बन गया होता , किसी एजेंसी को मिला होता तो एक बड़े रणनीति का खुलासा हो जाता और यदि पुलिस को मिल गया होता तो कुछ न कुछ रिवार्ड , अवार्ड या प्रमोशन की उदघोषणा हो गयी होती , पर ये भी न हो सका। सबके मंसूबे पर पानी फिर गया बस एक छोटी सी पहल से , वो भी कैफ ने ही पूरा किया। जी हाँ उसने आत्मसमर्पण कर दिया।
अब आत्मसमर्पण शब्द की गरिमा को समझें हम। आत्मसमर्पण कौन नहीं करता ? और करना भी क्यों नहीं चाहिए ? कभी डर और भय से , तो कभी जमीर जाग जाने से , कभी मजबूरी से तो कभी किसी प्रेरणा से आत्मसमर्पण का सहारा लेना ही चाहिए। हर कोई आत्मसमर्पण करता ही है, रास्ते या वजह भले ही अलग -अलग हों।
फिर आत्मसमर्पण का चलन बिहार में कोई नयी पहल तो नहीं। ये सच है कि बात न्याय की हो , पुलिस की हो ,सरकार और सत्ता की हो या फिर किसी पीड़ित की , यहाँ सबने आत्मसमर्पण नहीं किया क्या ?
58 से भी ज्यादा मामले में आरोपी सजायाफ्ता सियासी जामा ओढ़े डॉन अपराधी शहाबुद्दीन के सिवा सब यहाँ आत्मसमर्पण करते दिख नहीं रहे क्या ? लालू के जंगलराज की मिट्टी से पैदा सुशासन का मुखौटा पहने नीतीश ने सबसे पहले आत्मसमर्पण कर दिया अपनी नेकनीयती और नेकनीति का। लालू और कांग्रेस दोनों की कब्र खोदनेवाले नीतीश ने बालू की भीत पर एक ऐसा घर तैयार किया जिसके अंदर अपनी सभी सुन्दर छवि पर कालिख पोत कर दफ़न कर दिया। शायद नीतीश और लालू की गठजोड़ के समय ही शहाबुद्दीन को लेकर ट्रीटी तैयार हो गयी थी तभी तो तय समय में बिहार की सरकार ने अपनी जिम्मेवारी को नहीं निभाया और शहाबुद्दीन आजाद हो गया। क्या यहाँ नीतीश का आत्मसमर्पण नहीं है ?
कई सालो तक बिहार की कुर्सी को सँभालने वाले लालू के कुनबे को भी हर वक्त तारणहार की जरूरत पड़ती रही , जब -जब वोट की गोलबंदी हो या तोलमोल की, शहाबुद्दीन सरीखे मोहरे उनके लिए सबसे ज्यादा माकूल हथियार साबित हुआ , इसके बिना लालू अब अपनी वजूद नहीं बचा सकते थे ऐसे में ये भी मजबूरी थी कि शहाबुद्दीन को अपने से छिटकने नहीं दे, और ये तभी संभव था जब शहाबुद्दीन को हर हाल में बचा सके। ऐसे में लालू के पास और कोई चारा नहीं था कि शहाबुद्दीन से हुए करार से मुकर जाये। और लालू को आत्मसमर्पण करना ही पड़ा शहाबुद्दीन के सामने।
सरेंडर किसने नहीं किया , बिहार की पुलिस इतनी कमजोर है कि एक अदना सा सख्स क्रिकेट की मैदान में बल्ले और गेंद से खेलते हुए बिहार पुलिस को फील्डिंग में लगाए रखा और एक भी कैच पुलिस लपक नहीं पायी ? सच्चाई तो ये है कि पुलिस ने जानबूझकर मिसफील्डिंग की और कहिये कि सीधा आत्मसमर्पण कर दिया। भागलपुर से सीवान तक पुलिस या दूसरी सुरक्षा एजेंसी सोयी रही । जब मीडिया ने ध्यान दिलाया तो पुलिस कप्तान भी अनुसन्धान के बहाने आत्मसमर्पण करते नजर आए। आखिरकार कैफ ने आत्मसमर्पण कर दिया।
शहाबुद्दीन से पीड़ित लोगो के दर्द को शायद हम उस हद तक नहीं समझ पाए पर इतना जानते हैं कि पीड़ितों की जमात को भी लाचारी में सरेंडर करना ही पड़ा। कभी भय से तो भी किसी लफरे में पड़ने के डर से। आशा रंजन की बात करें या चंद्र बाबू की , सबको सीवान से अलग होना पड़ा , दूर दिल्ली की शरण में जाना पड़ा या कह ले सीवान से खुद को अलग करना पड़ा। बड़े दुःख के साथ ये स्वीकार करना पड़ता है कि यहाँ भी किसी न किसी रूप में सरेंडर ही करना पड़ा है ,वरना लड़ना होता तो सीवान में ही लड़कर जंग जीतने की कोशिश होती।
7 सितंबर को शहाबुद्दीन को भागलपुर जेल से जमानत मिली और 9 सितंबर को पटना हाई कोर्ट को एक गुजारिश भरा आवेदन मिलता है , ” मेरा तबादला सीवान से कर दिया जाये ,,,,,,,” जी हाँ ये आवेदन सीवान के उस जज का था जिसने सीवान कोर्ट में शहाबुद्दीन को तेजाब कांड में उम्रकैद की सजा सुनाई थी। शहाबुद्दीन आजाद है …….. अब कुछ भी हो सकता है , ऐसे में सीवान और शाह से दूरी बना लेना ही बेहतर समझा जज अजय कुमार श्रीवास्तव ने। पटना हाई कोर्ट भी हर किसी के मन को समझता है , दर्द को महसूस करता है ऐसे में अजय जी की मिन्नत को मानना ही था। तबादला हो गया जज का सीवान से पटना। यहाँ सरेंडर नहीं है क्या एक न्यायाधीश का , एक न्यायपालिका का ? ये अलग बात है कि इसे रूटीन तबादले का नाम दिया गया।
कहते हैं शहाबुद्दीन ने दो बड़े वकीलों से अपने लिए केस लड़ने और पैरवी की अपील की जिसमे कपिल सिब्बल साहब ने पार्टीलाइन से अलग जाकर पैरवी नहीं करने का फैसला किया पर अपुष्ट जानकारी के अनुसार रामजेठमलानी सहाबुद्दीन के लिए केस लड़ सकते हैं। आखिर क्यों न लड़े ? राजद ने संसद जो बनाया। नहीं लगता पॉवर की भूख में हर जगह अपनी जमीर का आत्मसमर्पण हो रहा है ?
अब हम भी आत्मसमर्पण ही करेंगे क्योंकि अगर इस कलम से कुछ अंजाम नहीं मिलता है तो फिर दुबारा इस तरह की बाते करने की हिम्मत नही जुटा पाएंगे। हकीकत यही है हर आत्मसमर्पण की।