ये बोझ तो बड़ा भारी होगा दाना! दिख रहा है तुम उठा भी नहीं पा रहे। समझ सकता हूं,तुम क्या, दुनिया में किसी के लिए भी उठाना मुश्किल होगा। इसे और भारी तो बेटी की आंसू ने बना दिया होगा जो आसपास के सरे राह खड़े तमाशबीन बेशर्मों पर बहा रही है। भला हो सोशल मीडिया का की भुवनेश्वर की वो संवेदनशील सरकार के साथ दिल्ली दरबार तक जान गया कि तुमने कितना भारी बोझ उठाया है। अब क्या करें, हम तय नहीं कर पा रहे की तुम्हारे इस दर्द को कौन सी जाति या सम्प्रदाय का रंग दें ताकि खबर बने और सिस्टम हिल जाय। अभी दलित फैशन में है मगर क्या करे तुम दलित भी तो नहीं। आदिवासी हो, जो अभी बिकाऊ नहीं। अब कालाहांडी में रहने वाले ही नहीं ,झारखण्ड उड़ीसा और बिहार के बदहाल इलाके के लिए ये नई बात कहाँ है दाना? यदि ये फोटो जिसने खींची वो किसी कारण से इसे सोशल साईट पर न डालता तो कैसे हम घड़ियाली आसूं बहाते? अब देखो न मैं बिहार के मुजफ्फरपुर के जजुआर गाम का हूँ दो साल पहले मेरे गाम में लगभग ऐसी एक दिल तोड़ने वाली घटना की सूचना मुझे मिली। वो गरीब ब्राह्मण था। कोई तस्वीर नहीं मिली तो खबर भी नहीं । चलो तुम्हारे बहाने, हम सब जाने की डिजिटल इण्डिया कैसा है। दिल्ली तक तुम्हारी तस्वीर का घूमना ही इसके लिए पर्याप्त है दाना। तुम्हारे आसूं तो सुख गए होंगे मांझी, चलो अब हम बहा लेते हैं। सिस्टम पर थोडा रो लेते हैं।
अरे ये भी कोई मुद्दा है देश और मृत समाज के लिए। तुम चिंता न करो तुम्हें दो चार हजार रुपये तो अब सरकार दे ही देगी। उससे ज्यादा तो तुम्हारी हैसियत भी नहीं। क्योंकि हमारे लिए ये कोई बड़ी खबर भी नहीं। हम अभी किसी वकील के वकालत नामे में व्यस्त है। हमारी इस व्यस्तता से सरकार मस्त है। अरे वो सुना है किसी की अभिवयक्ति की आजादी संकट में है।
युवा पत्रकार मनीष ठाकुर के फेसबुक वॉल से साभार