महिषासुरों, रक्तबीजों, रावणों और कुंभकर्णों की कहानियां हमें क्या बताती हैं? मां दुर्गा ने त्रिशूल, तलवार, धनुष-वाण, चक्र और गदा- न जाने किन-किन हथियारों के इस्तेमाल से एक महिषासुर को तो ख़त्म कर दिया, लेकिन क्या उस “नेक्सस” को ख़त्म कर पाईं, जिसकी वजह से कोई शख्स महिषासुर बन जाता है? इसी तरह एक रक्तबीज़ को मारने के लिए उन्हें क्या-क्या जतन नहीं करने पड़े। मातृशक्ति का प्रतिनिधित्व करने के बावजूद काली का रूप धरकर उन्हें रक्तपिपासु बनना पड़ा। लेकिन क्या आपने कभी सोचा है कि रक्तबीज किसके संरक्षण में पनपा-बढ़ा और दुर्गा को काली किसकी वजह से बनना पड़ा? राम और रावण की कहानी भी ऐसे ही कई सवाल खड़े करती है।
इन सारी कहानियों में एक बात कॉमन है, कि अपराधी यूं ही नहीं पनपते। उन्हें सत्ता के, समाज के किसी न किसी “ख़ुदा” का संरक्षण हासिल होता है। तभी वो बढ़ते-बढ़ते एक दिन इतने ताकतवर बन जाते हैं कि आम अवाम का जीना हराम कर देते हैं और पूरे सिस्टम को हिलाने की हैसियत हासिल कर लेते हैं। आप देखें कि ताकत हासिल करने के लिए महिषासुर और रक्तबीज ने ब्रह्मा की… और रावण ने शिव की तपस्या (चापलूसी) की। सृष्टि के दो सबसे ताकतवर ख़ुदाओं के संरक्षण और आशीर्वाद से इन “पौराणिक अपराधियों” के “धनबल, बाहुबल और घमंड” में ऐसा इज़ाफ़ा हुआ कि ये पूरी दुनिया को ठेंगे पर रखने लगे, अपराध करते-करते एक दिन राज्य कब्जाने लगे और राजनीति भी करने लगे।
…और सिर्फ़ इन तीन-चार असुरों की ही क्यों, तमाम “पौराणिक अपराधियों” की कहानियां पढ़ लें, किसी न किसी देवता के “संरक्षण” में ही वे ताकतवर बने। “अपराध और राजनीति/राजसत्ता” का यह “नेक्सस” ख़त्म हुए बिना अपराधी कैसे ख़त्म हो जाएंगे? एक दुर्गा, एक काली, एक राम कितने अपराधियों को मारेंगे? जाल ऐसा बुना गया है कि जो महिषासुर, रक्तबीज और रावण को ताकत देता है, एक दिन उनके सिरदर्द बन जाने पर वही दुर्गा, काली और राम को उन्हें ख़त्म करने के “एसाइनमेंट” पर लगाता है।
क्या आपको नहीं लगता कि इन पौराणिक कहानियों में और आज की हक़ीक़त में ज़्यादा फ़र्क नहीं है! जैसे उन दिनों राजसत्ता से संबंध रखने वाले सारे देवी-देवता हमारे इन पौराणिक नायक-नायिकाओं की कामयाबी पर इकट्ठा होकर प्रशस्ति-गायन करने लगते थे और ऐसा भावनात्मक माहौल बना देते थे कि कल्याणकारी होने की उनकी छवि बनी रहती थी और लोगों का ध्यान असली मुद्दों से भटक जाता था; उसी तरह तो आज भी हो रहा है। कुछेक योद्धा और पराक्रमी किस्म के लोग, जो अपने सरोकारों की वजह से सूली चढ़ने के लिए तैयार हो जाते हैं, उन्हें लड़वा-मरवाकर राजसत्ता कुछेक पुरस्कार और सम्मान वगैरह तो दे देती है, मूर्तियां वगैरह तो लगवा देती है, लेकिन सारा खेल वैसे ही चलता रहता है।
इन पौराणिक “नायक-नायिकाओं”, “नेताओं” और “अपराधियों” की कहानियों से एक और बात जो समझ आती है, वो ये अपराध के ख़ात्मे के लिए न सिर्फ़ अपराधियों और नेताओं के नेक्सस को तोड़ना होगा, बल्कि एक समग्र दृष्टि अपनानी होगी, जिसमें जितना ज़ोर अपराधियों को उनके अंजाम तक पहुंचाने पर हो, उतना ही ज़ोर उन प्रवृत्तियों पर अंकुश लगाने पर भी हो, जिनकी वजह से हमें यह कभी अहसास ही नहीं हो पाता कि दुनिया से महिषासुर, रक्तबीज, रावण या कुंभकर्ण समाप्त हो चुके हैं। इसके लिए हमें सिर्फ़ सज़ा देने के तंत्र पर, कानून पर या हथियार पर ही निर्भर नहीं रहना होगा। हमें दुनिया में ज्ञान और संस्कार की वह रोशनी लगातार फैलानी होगी, जिनसे बुराई और अपराध का अंधेरा दूर होता हो। मां दुर्गा, मां काली और भगवान श्री राम ने अपनी शक्ति और सरोकारों के सहारे कुछ ख़ास नाम वाले असुरों का मर्दन तो कर दिया, लेकिन उन आसुरी प्रवृत्तियों को फैलने से रोकना उनकी अगली पीढ़ियों का काम था। पर क्या आज यह काम उस पैमाने पर हो रहा है, जिस पैमाने पर होना चाहिए था?
क्या यह सच नहीं है कि आज भी हमारे बीच महिषासुर और रावण की तरह धनबल, बाहुबल, वासना और अहंकार के नशे में डूबे हुए लोग बहुतेरे हैं? क्या कुंभकर्ण की तरह जनम-जनम के भूखे, नरभक्षी (बेगुनाहों की हत्याएं कराने वाले, जातीय और सांप्रदायिक दंगे कराने वाले लोग नरभक्षी नहीं तो और क्या कहे जाएंगे?), मांस-मदिराबाज़, पूरे राज्य का हिस्सा डकार जाने वाले और लंबी तानकर सोए रहने वाले लोग हमारी सियासत और ब्यूरोक्रेसी में कम हैं क्या? क्या ठीक रक्तबीज़ की तरह ऐसे लोग जितने मरते हैं, उससे अधिक पैदा नहीं हो जाते हैं?
इसलिए हर साल चमकीली पन्नियां सजाकर, भुकभुकिया लगाकर, बैंड-बाजे बजाकर, मिट्टी के खिलौने (मूर्तियां) बनाकर, तरह-तरह के पटाखे फोड़कर और पुतले जलाकर अपराध को न समाप्त किया जा सका है, न किया जा सकेगा। इसलिए सारांश यह कि हमें अपने नायक-नायिकाओं की सिर्फ़ पूजा ही नहीं करनी चाहिए, बल्कि
1. उनके हौसले, उनके सरोकार और उनकी संघर्षशीलता को अपने जीवन में अपनाना चाहिए।
2. अपराध और सत्ता/राजनीति के नेक्सस को तोड़ने के लिए कमर कस लेना चाहिए।
3. अपराधियों के ख़िलाफ़ ज़ीरो टॉलरेंस की नीति अपनाने के साथ-साथ समाज में आपराधिक प्रवृत्तियों को पनपने से भी रोकना चाहिए।
4. यह समझना चाहिए कि मनोनुकूल परिवर्तन सिर्फ़ सज़ा देने वाले तंत्र, कानून या हथियार के इस्तेमाल से नहीं, बल्कि लोगों में ज्ञान, नैतिकता, मर्यादा, जागरूकता और ज़िम्मेदारी का फैलाव करने से आएगा।
क्या हम अपनी रोशनाई को वह रोशनी बनाने के लिए तैयार हैं, जिससे दुनिया में अज्ञान, अपराध और तमाम तरह की बुराइयों का अंधेरा दूर हो सकता है?