हम मेहनतकश इस दुनिया से अपना कोई भी हिस्सा नहीं मांगेंगे…कवियों ने मजदूरों का सर्वनाश किया है..हिस्सा मांगने की बजाय गाना गाने में लगा दिया भोले भाले मजदूरों को…जो मज़दूर गाना नहीं गा पाए..वो नारा लगाते रहे. दुनिया के मज़दूरों एक हो…टाइप का….नए नए में आज़ादी आज़ादी टाइप का…
मेरे पिताजी मज़दूर थे…एकदम ठेठ वाले….बेलचा मार के बालू गिट्टी उठाते थे..कभी उठा के देखिएगा बुद्धिजीवियों…..कमर टूट के पिछवाड़े में घुस जाता है…
यहां फेसबुक पर बैठ कर गाना गाना आसान है…..वहां फावड़ा चलाना मुश्किल….मैं नहीं चला सकता…इसलिए गाना भी नहीं गाता हूं..मेरे पिताजी भी गाना नहीं गाते थे…नारे लगाते थे अलबत्ता..जीवन के कई साल नारे लगाते रहे फिर उन्होंने देखा कि सारे लीडर (जो मजदूरों के लीडर थे) अपने अपने बच्चों को मजदूर नहीं इंजीनियर डॉक्टर बनाना चाहते हैं…..कोई बन नहीं पाता है तो आखिरकार कंपनी में नौकरी दिलवा देते थे…..
ये नौकरी दिलवाने का खेल इतना महीन होता था कि मेरे बाप जैसे छोटे मज़दूर समझ नहीं पाते थे….जब समझ में आया तो पिताजी ने नारे लगाना छोड़ दिया..घर से कारखाने…और कारखाने से घर में उनकी ज़िंदगी तमाम हो गई…..हालांकि वो सीखते थे…और मजदूरी से ऊपर उठ कर वेल्डर बन कर रिटायर हुए..
अपना काम अच्छे से जानते थे….रिटायर होने से कुछ समय पहले वो एक मजदूर नेता को दम भर पीटना चाहते थे….
अब गांव में रहते हैं…और हथौड़ा हंसिया देखकर उनका मुंह कड़वा हो जाता है..
हमने बहुत देखा है गाना गवा कर और नारे लगवा कर चुतिया बनाने वालों को…बचपन में…..और मूर्ख मत बनाइए…फैज और गोरख पांडे के नाम पर…मजदूर को छोड़ दीजिए उसके हाल पर….वो सर्वाइव कर रहा है….कर ही लेगा…कुछ और परोसिए उसको……फैज-गोरख पुराने हुए….
मजदूर राष्ट्रवाद से भी पेट नहीं भरेगा……उसको रोटी दीजिए….स्किल दीजिए…..
हां नय तो…बहुत गुस्सा आ गया….गाना वाना देखकर….पाश से माफी के साथ..
सबसे खतरनाक होता है किसी अच्छे भले आइडिया को रोमांटिसाइज करके उसकी ले लेना……
सुशील झा बीबीसी में वरिष्ठ पद पर कार्यरत हैं, यह उनके फेसबुक वॉल से साभार लिया गया है.